विचार

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

दिव्य कुंभ : उम्मीद, आकांक्षा, हैरानी का कुंभ


प्रयाग में २०१९ के अर्धकुंभ की तैयारियां जोरों पर हैं। पूरा शहर दुल्हन की तरह सज रहा है। गंगा के पाटों पर पानी के पराभव के बाद रेती अपना वैभव पाती नजर आ रही है और जब देश आम चुनाव के मुहाने पर खड़ा है तो देश के बहुसंख्य समुदाय को प्रिविलेज देती समझी जाने वाली सरकारें क्यों पीछे रहेंगी। मकर संक्रांति पर १५ जनवरी को पहले गंगा स्नान से औपचारिक तौर पर शुरू होने वाले अर्ध कुंभ ने केंद्र की मोदी सरकार को पिछले दिनों लगे चुनावी झटकों को भुलाकर अपनी पिच पर विपक्षियों को खिलाने का मौका भी दे दिया है।

      मोदी ने इस रणनीति पर काम भी शुरू कर दिया है। मोदी अपने कामों की मार्केटिंग खूब करते हैं यह स्टाइल भारतीय राजनीति में नया है। इसके विरोधी भी खूब है तो इस अदा के समर्थक भी कम नहीं हैं। नतीजतन इसके आलोचकों को भी वही करना पड़ता है जिसकी आलोचना करते हैं हालिया कुछ समय से विपक्षी कांग्रेस पार्टी को अपने नेता राहुल गांधी की हिंदू धार्मिक स्थलों में पूजा करने की तस्वीर जारी करना एक बानगी है, जबकि ये नितांत व्यक्तिगत मामला है। मोदी सरकार के आने से पहले इफ्तार के फोटो के अलावा कांग्रेस पार्टी के नेताओं की ऐसी तस्वीर शायद ही दिखती रही हो। लोकसभा चुनाव २०१४ में हार के बाद कांग्रेस की ओर से गठित एंटनी समिति ने भी बहुसंख्यक की भावना की अनदेखी की ओर इशारा किया था लगता है कि कांग्रेस अनमने ही उसके सुझावों पर आगे बढ़ती नजर आ रही है। बहरहाल मोदी ने अपनी स्टाइल में काम शुरू कर दिया है। वैसे तो हर साल प्रयाग में एक माह रुककर आद्यात्मिक उन्नयन के लिए कल्पवास करने और परिवार माया से दूर ईश्वर की पूजा करने काम से कम संसाधनों में करने आते हैं। हर साल गंगा की रेती पर विशाल नगर बसता है और जाति पंथ के भेद रूपी मैल गंगा में ही विसर्जित कर देते हैं। पर छह साल पर लगने वाले अर्ध कुंभ और १२ साल के कुंभ की बात ही अलग है। इसलिए इस बार यहां १० करोड़ से अधिक लोगों के आने की उम्मीद और इंतजाम किए जा रहे हैं। इसके लिए कई काम पहली बार हो रहा है। यह केंद्र की मोदी और उसी पार्टी के योगी सरकार की छवि बदलने का भी मौका है इसलिए आस्था के साथ यह कुंभ उम्मीदों से भरा है। पहली बार कुंभ का लोगो जारी किया गया है। जिसे प्रधानमंत्री ने खुद जारी किया है। पहली बार प्रदेश सरकार की ओर से ५०० बसें चलाई जा रही है जो लोगों को अर्ध कुंभ में आने का निमंत्रण दे रही हैं।

    विभिन्न स्टेशनों पर कुंभ यात्रियों को लाने के लिए बड़ी संख्या में ट्रेन खड़ी कर दी गई है जो यात्री बढ़ने पर चला दी जाएंगी। इतने बड़े मेले के प्रबंधन का अध्ययन करने के लिए वैसे तो हमेशा विदेशी स्कॉलर आते रहे हैं या अपनी रुचि पर मगर रइस बार दुनिया को भारत के आध्यात्मिक वैभव को दिखाने के लिए दुनिया भर के दूतावासों के लोगों को यहां आने के लिए बुलावा दिया जा रहा है। इस बार कुंभ मेला कई ऐसी घटनाओं का भी गवाह बन सकता है जिसकी उम्मीद शायद ही लोगों को हो। आम चुनाव महज कुछ माह दूर होने से इस बार हिंदू समुदाय के मतों के मद्देनजर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और अन्य कांग्रेस नेता और दूसरे दलों के प्रतिनिधियों का आना जाना लगा रहने की उम्मीद है। उम्मीद है कुंभ कुछ ऐसे सामाजिक संदेश भी देगा जो जातियों में बंटे और सामाजिक बुराइयों से घिरे समाज को आगे का कल्याणकारी रास्ता दिखाएगा। दुनिया के लिए भी मंगलकारी होगा। बहरहाल रेती पर नगर बसने से पहले यहां घाटों पर प्रवासी पक्षियों का बसेरा हो गया है जो प्रयाग के सौन्दर्य को इंदिनो बढ़ा रहा है। वैसे भी आयोजन की तैयारियों से लगता है कि कुभ से बढ़ी प्रयाग शहर की शोभा दुनिया को हैरान कर देगी और कुछ खराब घटनाओं के लोग साक्षी रहे होंगे तो विस्मृत हो जाएंगी। चित्रों से दिखाते हैं कैसे चल रही है कुंभ मेले की तैयारी।

रविवार, 16 दिसंबर 2018

एक गांधी जिसे भुला दिया गया


देश के राजनीति में सबसे रसूखदार टाइटिल पर कभी कुछ लिखा गया तो गांधी टाइटिल के कद के आगे सारे बौने साबित होंगे। इस टाइटिल वालों ने देश में वर्षों राज किया है। इंदिरा गांधी तकरीबन 15 साल प्रधानमंत्री रहीं,राजीव गांधी तकरीबन 5 साल प्रधानमंत्री रहे। इससे पहले १७ साल इंदिरा के पिता पूर्व प्रधानमंत्री pt जवाहर लाल नेहरू ने शासन किया। इसके अलावा भी ज्यादातर समय देश की राजनीति में इस टाइटिल का ही प्रभाव रहा। जो फैसले चाहा कराये। बाद में 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे, जिस पर गांधी परिवार का प्रभाव किसी से छिपा नहीं है पर वर्तमान परिवार के ही एक सदस्य बल्कि इनकी बुनियाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के दादा पारसी धर्मावलंबी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और कांग्रेस में भ्रष्टाचार के व्हिसिलब्लोअर, सत्ता तंत्र के रवैये के खिलाफ लोगों की आवाज फिरोज जहांगीर का कोई नाम नहीं लेता। जबकि ये भी कांग्रेस के ही सांसद थे पर सिंहासन खाली करो कि जनता आती है कहने वाले दिनकर की तरह सही को सही और गलत कहने का दमखम रखते थे। इलाहाबाद में इनकी कब्र पर भी शायद ही कोई जाता हो जब परिवार के लोग ही उनका जिक्र नहीं करते तो दूसरा कौन याद करेगा। यह हाल तब है जब इंदिरा राजीव की जयंती और वर्तमान गांधी परिवार के लोगों के जन्मदिन पर बड़े बड़े कार्यक्रम होते हैं। अब तो फिरोज जहांगीर गांधी राजीव गांधी के भाई संजय के बेटे वरुण फिरोज गांधी जो भाजपा नेता हैं के नाम में ही रह गए हैं। कमाल की बात है कि लोकतंत्रिक मूल्यों पर बहस करने वाली भारत की मीडिया और तब से अब तक के विद्वानों को भी इसमें कुछ खास नहीं लगा, इंदिरा पर जीवनी व अन्य गाथा के रूप में तो खूब पन्ने काले किये गए पर उन्हीं के पति का जिक्र करते लेखनी ठिठक गयी और दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। इस सवाल का जवाब तो शायद कभी नहीं मिलेगा की फिरोज में किसी की दिलचस्पी बौद्धिक तबके को क्यों नहीं थी या इसको लेकर दबाव था। या इसके पीछे परिवार के लोगों के दूसरे पक्ष सत्ता की लालसा थी और फिरोज जिस समुदाय से आते थे वोट के लिहाज से हिंदू बहुल देश में मुफीद नहीं थी। देश का मानस बदलने की कोशिश भी जारी थी। आखिरकार फिरोज पर कुछ लिखा तो दूसरे देश के masalan swidish journalist बर्टिल फाल्क ने फिरोज: द forgotten Gandhi men। फ़िरोज़ - द फ़ॉरगॉटेन गाँधी के लेखक बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि "जब मैंने 1977 में इंदिरा गांधी का इंटरव्यू किया तो मैंने देखा उनके दो पुत्र और एक पौत्र और पौत्री थे। मैंने अपने आप से पूछा, 'इनका पति और इनके बच्चों का बाप कहाँ हैं?" जब मैंने लोगों से ये सवाल किया, तो उन्होंने मुझे बताया कि उनका नाम फ़िरोज़ था, और उनकी कोई ख़ास भूमिका नहीं थी। लेकिन जब मैंने और खोज की जो मुझे पता चला कि वो न सिर्फ़ भारतीय संसद के एक अहम सदस्य थे, बल्कि उन्होंने भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने का बीड़ा उठाया था। मेरे विचार से उनको बहुत अनुचित तरीके से इतिहास के हाशिए में ढ़केल दिया गया था। इस जीवनी के लिखने का एक कारण और था कि कोई दूसरा ऐसा नहीं कर रहा था।जिस नेहरू गांधी डाएनेस्टी की बात की जाती है, उसमें फ़िरोज़ का बहुत बड़ा योगदान था, जिसका कोई ज़िक्र नहीं होता और जिस पर कोई किताबें या लेख नहीं लिखे जाते। हालांकि ३१ अक्टूबर २०१८ को Bbchindi.com और कई अन्य वेबसाट ने भी फालक के हवाले से फिरोज गांधी पर रिपोर्ट प्रकाशित की थी । फिरोज की कहानी ८०-९० के दशक की बॉलीवुड फिल्मों सी लगती है। जिसमें दो वर्गों के युवा प्रेम में पड़ जाते हैं। दोनों की सामाजिक आर्थिक स्थिति men kafi अंतर है। इकलौती बेटी के दबाव में दोनों की शादी करनी पड़ जाती है पर इस हार को लड़की का पिता बर्दाश्त नहीं कर पाता पर इसे छिपा लेता है सब चीजोंका दोनों के संबंधों पर पड़ता है। बाद में लड़की पती है का घर छोड़ पिता के यहां आ जाती है। इसके बाद लड़की के पतिं को लेकर तमाम किस्से आने लगते हैं। फिल्म में तो आख़िर मेंसुखंट होता है पर इस फिल्म की कहानी के कई पन्ने गायब हैं। बस इतना पता है कि अपनी मौत से पहले फिरोज इंदिरा सेन्नही मिली। भालेंही इंदिरा ने रा ने फिरोज़ की मौत के बाद एक ख़त में लिखा कि जब भी उन्हें फिरोज़ की ज़रूरत महसूस हुई वो उन्हें साथ खड़े दिखे। दोनों इतने करीब थे फिर दोनों के बीच अलगाव की वजह समझ से परे है। बीबीसी की रिपोर्ट में बतिल फालक बताते हैं कि फ़िरोज़ गांधी का आनंद भवन में प्रवेश इंदिरा गांधी की माँ कमला नेहरू के ज़रिए हुआ था। एक बार कमला नेहरू इलाहाबाद के गवर्नमेंट कालेज में धरने पर बैठी हुई थीं। "जब कमला ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ नारे लगा रही थीं, तो फ़िरोज़ गाँधी कालेज की दीवार पर बैठ कर ये नज़ारा देख रहे थे। वो बहुत गर्म दिन था। अचानक कमला नेहरू बेहोश हो गईं।" "फ़िरोज़ दीवार से नीचे कूदे और कमला के पास दौड़ कर पहुंच गए. सब छात्र कमला को उठा कर एक पेड़ के नीचे ले गए। पानी मंगवाया गया और कमला के सिर पर गीला कपड़ा रखा गया। कोई दौड़ कर एक पंखा ले आया और फ़िरोज़ उनके चेहरे पर पंखा करने लगे। जब कमला को होश आया, तो वो सब कमला को ले कर आनंद भवन गए। इसके बाद कमला नेहरू जहाँ जाती, फ़िरोज़ गांधी उनके साथ ज़रूर जाते।" इसकी वजह से फ़िरोज़ और कमला के बारे में अफ़वाहें फैलने लगीं। कुछ शरारती लोगों ने इलाहाबाद में इनके बारे में पोस्टर भी लगा दिए। जेल में बंद जवाहरलाल नेहरू ने इस बारे में खोजबीन के लिए रफ़ी अहमद किदवई को इलाहाबाद भेजा। किदवई ने इस पूरे प्रकरण को पूरी तरह से बेबुनियाद पाया। यानी ब्रिटेन में पढ़े और उदार नेहरू जी भारतीय समाज दुर्बलताओं से प्रभिवित हुए नहीं बच सके। बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि एक बार स्वतंत्र पार्टी के नेता मीनू मसानी ने उन्हें एक रोचक किस्सा सुनाया था। "तीस के दशक में मीनू मसानी आनंद भवन में मेहमान थे। वो नाश्ता कर रहे थे कि अचानक नेहरू ने उनकी तरफ़ मुड़ कर कहा था, मानू क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई मेरी पत्नी के प्रेम में भी फंस सकता है? मीनू ने तपाक से जवाब दिया, मैं ख़ुद उनके प्रेम में पड़ सकता हूँ। इस पर कमला तो मुस्कराने लगीं, लेकिन नेहरू का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। बहरहाल फ़िरोज़ का नेहरू परिवार के साथ उठना बैठना इतना बढ़ गया कि ये बात उनकी माँ रतिमाई गांधी को बुरी लगने लगी। बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि जब महात्मा गाँधी मोतीलाल नेहरू के अंतिम संस्कार में भाग लेने इलाहाबाद आए तो रतीमाई उनके पास गईं और उनसे गुजराती में बोलीं कि वो फ़िरोज़ को समझाएं कि वो ख़तरनाक कामों में हिस्सा न ले कर अपना जीवन बरबाद न करें। वो किस खतरनाक काम की ओर इशारा कर रहीं थी शायद ही किसी को पता हो पर गांधीजी ने उनको जवाब दिया, "बहन अगर मेरे पास फ़िरोज़ जैसे सात लड़के हो जा एं तो मैं सात दिनों में भारत को स्वराज दिला सकता हूँ।" इससे पहले इंदिरा की मां के निधन के बाद फिरोज इंदिरा और करीब आ गए। बहरहाल १942 में तमाम विरोध के बावजूद इंदिरा और फ़िरोज़ का विवाह हुआ। १२ सितंबर २०१८ को आज तक पर प्रकाशित खबर के मुताबिक फिरोज को गांधी सरनेम इसी दौरान महात्मा गांधी ने ही दिया था। यह एक बड़ी राजनतिक पूंजी थी। हालांकि नेहरू जी इससे ख़ुश नहीं थे। पर महात्मा गांधी के समझाने पर जवाहरलाल नेहरू इस शादी के लिए तैयार हो गए थे और अपनी भावना छिपा ले गए थे। इंदिरा गांधी ने शादी में अपने पिता के हाथ की काती गई सूत की साड़ी पहनी थी। Bhaskar.com par prakashit khabar ke mutabik लेखिका कृष्णा हठीसिंह ने इंदिरा गांधी पर लिखी किताब 'इंदिरा से प्रधानमंत्री' में 26 मार्च 1942 को हुई उनकी शादी का बारी‍की से वर्णन किया है। उन्‍होंने ये भी लिखा है कि जवाहरलाल नेहरू कभी मन से फिरोज को दामाद नहीं मान सके। इसकी वजह का अब अंदाजा ही लगाया जा सकता है। ये वही मानवीय कमजोरियां हो सकती हैं जैसा कि उन्होंने अपनी पत्नी के बारे में किया था। एक तो इंदिरा का फिरोज से उनकी मर्जी के खिलाफ विवाह, दूसरा फिरोज का सरकार की गड़बड़ियों पर बोलना। फिरोज गांधी का जीवन: स्वतंत्रता सेनानी फिरोज गांधी का जन्म 12 सितंबर, 1912 को मुंबई एक पारसी परिवार में हुआ था।उनके पिता का नाम जहांगीर और माता का नाम रतिमाई था। साल 1915 में वे अपनी मां के साथ इलाहाबाद में कार्यरत एक संबंधी महिला के पास आ गए। इस प्रकार उनकी आरंभिक शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई। इलाहाबाद उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों का केंद्र था। युवक फिरोज गांधी इसके प्रभाव में आए और नेहरू परिवार से भी उनका संपर्क हुआ। उन्होंने 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार में भाग लिया और 1930-1932 के आंदोलन में जेल की सजा काटी। फिरोज गांधी 1935 में आगे के अध्ययन के लिए लंदन गए और उन्होंने ‘स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स’ से अंतर्राष्ट्रीय कानून में ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की। बाद में सांसद बने और नेशनल हेराल्ड का कार्यभार भी संभाला। राजनीतिक जीवन: फिरोज गांधी १९५२ से अपनी मृत्यु ८ सितंबर १९६० तक यूपी के रायबरेली से सांसद रहे थे। दोनों के बीच तनाव तब शुरू हुआ जब इंदिरा अपने दोनों बच्चों को लेकर लखनऊ स्थित अपना घर छोड़ कर पिता के घर आनंद भवन आ गईं। शायद ये संयोग नहीं था लेकिन इसी साल यानी 1955 में फिरोज़ ने कांग्रेस पार्टी के भीतर भ्रष्टाचार विरोधी अभियान शुरू किया। इंदिरा गांधी इसी साल पार्टी की वर्किंग कमेटी और कंद्रीय चुनाव समिति सदस्य बनी थीं। उन दिनों संसद में कांग्रेस का ही वर्चस्व था। विपक्षी पार्टियां ना केवल छोटी थीं बल्कि बेहद कमज़ोर भी थीं। इस कारण नए बने भारतीय गणतंत्र में एक तरह का खालीपन था। हालांकि फ़िरोज़ सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े परिवार के करीब थे, वो विपक्ष के अनौपचारिक नेता और इस युवा देश के पहले व्हिसलब्लोअर बन गए थे। इससे फिरोज और इंदिरा के रिश्ते और तल्ख हो गए। फिरोज ने बड़ी सावधानी से भ्रष्ट लोगों का पर्दाफ़ाश किया जिस कारण कईयों को जेल जाना पड़ा, बीमा उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया गया और नेहरू जी के बेहद करीबी वित्त मंत्री टी टी कृष्णमाचारी को इस्तीफ़ा तक देना पड़ा। फ़िरोज़ के ससुर जवाहरलाल नेहरू उनसे खुश नहीं थे और इंदिरा गांधी ने भी कभी संसद में फिरोज़ के महत्वपूर्ण काम की तारीफ़ नहीं की। फिरोज़ पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी पत्नी के ऑथेरीटेटिव प्रवृत्ति को पहचान लिया था। साल 1959 में जब इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि केरल में चुनी हुई पहली कम्यूनिस्ट सरकार को पलट कर वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। आनंद भवन में नाश्ते की मेज़ पर फिरोज़ ने इसके लिए इंदिरा को फ़ासीवादी कहा। उस वक्त नेहरू भी वहीं मौजूद थे। इसके बाद एक स्पीच में उन्होंने लगभग आपातकाल के संकेत दे दिए थे। फ़िरोज़ गांधी अभिव्यक्ति की आज़ादी के बड़े समर्थक थे। उस दौर में संसद के भीतर कुछ भी कहा जा सकता था लेकिन अगर किसी पत्रकार ने इसके बारे में कुछ कहा या लिखा तो उन्हें इसकी सज़ा दी जा सकती थी। इस मुश्किल को ख़त्म करने के लिए फिरोज़ ने एक प्राइवेट बिल पेश किया। ये बिल बाद में कानून बना जिसे फिरोज़ गांधी प्रेस लॉ के नाम से जाना जाता है। इस कानून के बनने की कहानी बेहद दिलचस्प है। फिरोज़ गांधी की मौत के पंद्रह साल बाद इंदिरा ने आपातकाल की घोषणा की और अपने पति के बनाए प्रेस लॉ को एक तरह से कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। बाद में जनता सरकार ने इस कानून को फिर से लागू किया और आज हम दो टेलीवज़न चैनल के ज़रिए भारतीय संसद की पूरी कार्यवाही देख सकते हैं। इसके साथ फिरोज़ गांधी की कोशिश हमेशा के लिए अमर हो गई। इंदिरा की करीबी रह चुकी मेरी शेलवनकर ने मुझे बताया था "इंदिरा और मैं लगभग हर बात पर चर्चा करते थे, ये चर्चा दोस्ताना स्तर होती थी। मुझे लगता है कि हर व्यक्ति को अपनी बात रखने की आज़ादी होनी चाहिए लेकिन वो मदर इंडिया की छवि से काफी प्रेरित थीं। उन्हें अपने हाथ में पूरी ताकत चाहिए थी। वो भारत के संघीय ढ़ांचे के ख़िलाफ़ थीं। उनका विचार था कि भारत संघीय राष्ट्र बनने के लिए अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुआ है।" उन्होंने बताया, "फिरोज़ के विचार इससे अलग थे। 1950 के दशक के दौरान नई दिल्ली में मैं फिरोज़ से केवल दो या तीन बार ही मिली थी। मैं कभी उनके करीब नहीं आ पाई क्योंकि मुझे लगा कि इंदिरा ऐसा नहीं चाहतीं। लेकिन इंदिरा के साथ हुई मेरी चर्चाओं से मैं समझती हूं कि फिरोज़ भारत के संघीय ढ़ांचे के समर्थक थे और ताकत के केंद्रीकरण के ख़िलाफ़ थे" ये स्वाभाविक है कि फिरोज़ गांधी के गणतांत्रिक विरासत को खत्म करने में इंदिरा गांधी ने सफलता पाई। इससे पहले इंदिरा के आनंद भवन चले जाने के बाद उनके प्रेम प्रसंग की अफवाहें भी उड़ी। एक वेबसाइट ke mutabik रशीद किदवई बताते हैं, "अफवाहों में उनके एकाकीपन की भूमिका ज़रूर रही होगी, क्योंकि इंदिरा गांधी दिल्ली में रहती थीं, फ़िरोज़ लखनऊ में रहते थे। दोनों के बीच एक आदर्श पति पत्नी का संबंध कभी नहीं पनप पाया। फ़िरोज़ गांधी स्मार्ट थे। बोलते बहुत अच्छा थे। उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत अच्छा था। इसलिए महिलाएं उनकी तरफ़ खिंची चली आती थी। नेहरू परिवार की भी एक लड़की के साथ जो नेशनल हेरल्ड में काम करती थी, उनके संबंधों की अफवाह उड़ी।" "उसके बाद उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ मुस्लिम मंत्री की बेटी के साथ भी फ़िरोज़ गांधी का नाम जुड़ा। नेहरू इससे बहुत विचलित हो गए। उन्होंने केंद्र में मंत्री रफ़ी अहमद किदवई को लखनऊ भेजा। रफ़ी अहमद किदवई ने उन मंत्री, उनकी बेटी और फ़िरोज़ को बहुत समझाया, ऐसा भी सुनने में आया है कि उस समय फ़िरोज़ गांधी इंदिरा गाँधी से अलग होकर उस लड़की से शादी भी करने को तैयार थे। लेकिन वो तमाम मामला बहुत मुश्किल से सुलझाया गया।" "लेकिन फ़िरोज़ गाँधी के दोस्तों का कहना है कि फ़िरोज़ गाँधी इन सब मामलों में बहुत गंभीर नहीं थे। वो एक मनमौजी किस्म के आदमी थे।उन्हें लड़कियों से बात करना अच्छा लगता था। नेहरू कैबिनेट में एक मंत्री तारकेश्वरी सिन्हा से भी फ़िरोज़ गांधी की काफ़ी नज़दीकियाँ थीं।" "तारकेश्वरी सिन्हा का खुद का कहना था कि अगर दो मर्द अगर चाय काफ़ी पीने जाएं और साथ खाना खाएं तो समाज को कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन अगर एक महिला और पुरुष साथ भोजन करें तो लोग तरह तरह की टिप्पणियाँ करते हैं। उनका कहना था कि लोग हमेशा महिला और पुरुष की दोस्ती को शकोशुबहे की नज़र से देखते हैं।"

रविवार, 25 नवंबर 2018

नेताओं के बिगड़े बोल : राजनीतिक प्रदूषण पर कब बात शुरू होगी


देश में पर्यावरण प्रदूषण और गंगा के प्रदूषण पर कम से कम बात शुरू हो गई है, मगर एक और प्रदूषण जो हमारी जिंदगी को प्रभावित करता है उसको लेकर समाज में सुगबुगाहट तक नहीं है। देश की राजनीति में शुचि अशुचि का भेद मिटता जा रहा है। यह किसी भी समाज के लिये चिंताजनक होना चाहिए क्योंकि सामाजिक विकास की प्रक्रिया में यही प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता है, इन्हीं राजनेताओंकी सोच के प्रकाश में दूसरे लोग आगे बढ़ते हैं। यह पहले भी हुआ है, आज के युग में भारत, पाकिस्तान उदाहरण हैं तो सभ्यता की शुरुआत करने वाले या मिलजुलकर रहने की पहल करने वाला कोई एक ही रहा होगा, बाकी लोगों ने उसे अपनाया। क्योंकि सब की एक बराबर बौद्धिक दृष्टि संभव नहीं है। बहरहाल एक जमाने में कांग्रेस के भीतर ही नरम दल और गरम दल बन गए थे। क्रांतिकारियों की शैली पर भी लोगों में मतभेद थे। इन सबके नेता एक दूसरे का सम्मान भी करते थे। नेहरू जी के समय में भी पार्टी के भीतर किसी असहमति पर उसी पार्टी के सांसद कवि दिनकर लिख सकते थे कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है....मगर इतने अरसे बाद लगता है देश में राजनेताओं की सोच ही प्रबंधित हो गयी है न उनके पास इतने शब्द हैं औऱ न ही अपने अनुयायियों के नेतृत्व कर सकने की क्षमता की वो लोगों को अपनी बातें समझा सकें। नतीज़तन लोक तंत्र भीड़ तंत्र में तब्दील होता जा रहा है भीड़ के आगे दलों और सरकारों के घुटने टेकने के नज़ारे आम हैं। अब सत्ता में आने के लिए और बने रहने के लिए संगठित बिना समझ के काम करने वालों की भावनाओं का पोषण नेताओं की जैसी मजबूरी बन गयी है, या नेता खुद ही ऐसा समाज बनाना चाह रहे हैं जो आसान भले गलत रास्ता हो उसकी ओर भागे। वो सवाल करने लायक ही न रहे बस मन की दो बातों से ही वो अपने में ही पागल हो जाय। इन सबके सम्मिलित प्रभाव से राजनीतिक प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। अब एक दूसरों को कोसने में शब्दों की मर्यादा की दीवार टूटती जा रही है। ये इनके बोले हुए शब्दों के दुष्प्रभाव की चिंता भी नहीं कर रहे। राजनेताओं में भी असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। अभी महज कुछ सालों पहले समाजवादी पार्टी के सबसे बड़े नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ने रेप की घटनाओं पर कहा था ये लड़के है...गलतियां हो जाती हैं। यह बयान अमर्यादित था मगर वो वोट के दबाव में घुटने टेक दिये। दरअसल उसी दरम्यान उनके ही क्षेत्र में उनकी जाति के दबंग पर रेप का आरोप लगा था और वो अपने जाती के लोगों पुरुषों के साथ हर हाल में साथ रहने का संदेश दे रहे थे क्योंकि वो जानते हैं कि हमारे समाज में आज भी फैसले मर्द ही करते हैं। कुछ साल पहले चुनाव रैली में कांग्रेस पार्टी की पुर्व अध्यक्ष ने गुजरात के मुख्यमंत्री को मौत का सौदागर तक कह दिया था, उस दौरान वे एक धर्म विशेष के लोगों को डरा रहीं थी। वहीं शायद 2014 के आसपास बीजेपी के अब के बड़े नेता ने कांग्रेस नेता की गर्ल फ्रेंड को लेकर 50 लाख की गर्ल फ्रेंड का जुमला उछाला था, यह भ्रष्टाचार और उनके अभिजात्य पर वार करने के लिए अपने वोटबैंक को और उग्र करने के लिए था। यह प्रदूषण बढ़ते बढ़ते सड़ांध के स्टार तक पहुंच गया है। आजकल कांग्रेस के अध्यक्ष राहुलगाँधी अक्सर सभाओं में चौकीदार ही चोर है का जुमला उछालते हैं दरअसल प्रधानमंत्री खुद को अक्सर जनता का चौकीदार कहते हैं ऐसे में उनको घेरने के लिए करते हैं। यह शायद कुंठा का भी मामला है कि पुर्व की उनकी पार्टी की सरकार जाने की एक बड़ी वजह भ्रष्टाचार भी था जिसने जनता को बदलने के लिए प्रेरित किया। अब कीचड़ की होली ही शुरू हो गयी है ताकि कोई साफ न दिखे। और बातें सब हवाहवाई ही हो रही हैं। यह सब एक व्यक्ति से नाराज वोटों को साधने के लिए हो रहा है। इसलिए विजेता पर हमले ज्यादा हो रहे हैं। किसी को ये चिंता नहीं है कि ये प्रदूषण कैसे रूकेगा। कुछ दिन ही पहले एक चुनावी रैली में यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर ने प्रधानमंत्री को मनहूस कह दिया। ये प्रदूषण यही नहीं रुक एक अन्य रैली में राजस्थान मचुनाव में एक सभा में स्थानीय प्रत्याशी और कांग्रेस प्रत्याशी सीपी जोशी ने प्रधानमंत्री की जाती तक पूछ डाली यह ब्रामण मतदाताओं को गोलबंद करने के लिए किया गया।हालांकि नेता लोगों को वो देना चाह रहे हैं जो शायद उन्हें चाहिए भी नहीं और उन्हीं के नाम पर। यह लिस्ट यहीं खत्म नहीं होती। एक आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी के नेता काम बेलगाम नहीं हैं। मंत्री रह चुके इस पार्टी के नेता को एक चैनल की एंकर की बात उतनी बुरी लगी वहां पर जाकर बैठने की बात कह दी कि यही मर्द दिन के उजाले में भी जाने में घबराते हैं। शर्मनाक यह है है कि इस मामले में उन्हीं की पार्टी के महिला नेता के माफ़ी की मांग करने पर दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल समेत पुरी पार्टी उस पर ही टूट पड़ी और दो महिलाओं का नाम लेकर पहले उसको न्याय दिलाने की नसीहत देने लगी कि जैसे तब तक ये कुछ भी बोलते रहेंगे कोई चाहे कुछ भी कर ले। ये लिस्ट इतनी छोटी नहीं है बिहार भाजपा अध्यक्ष नित्यानंद रॉय का प्रधानमंत्री की ओर उंगली उठाने पर उँगली तोड़ने का बयान,कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह का अपनी ही पार्टी के महिला नेता को टंच माल कहना, बीजेपी सांसद नेपाल सिंह का एक मौके पर ये सेना के जवान है जान तो जाएगी ही,इसके अलावा भी बीजेपी के तमाम नेता विवादित बयानों और कई बार हिन्दू मुस्लिम मुद्दों पर सुर्खियों में रहता है। यह प्रदूषण समाज को प्रभावित कर रहा है इसलिए जनता को ही इसे रोकने आगे आना होगा। क्योंकि सारा खेल उसी के नाम पर हो रहा है। और समाज की इस पर चुप्पी थी नहीं है उसे इन नेताओं को बताना होगा कि वो यह नही चाहते।

रविवार, 18 नवंबर 2018

राज्यों के चुनाव में सावरकर भी मुद्दा


पिछले दिनों एक चुनावी रैली में दिए गए बयान से कांग्रेस अध्यक्ष मुश्किल में फंस सकते हैं। रैली में राहुल ने कहा कि वीर सावरकर ने जेल से छूटने के लिए अंग्रेजों से माफी मांगी थी।इस पर सावरकर के परपोते आर सावरकर ने उनके खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर करने की बात कही है। कहा कि राहुल का बयान झूठ है, उनको अंग्रेजों ने २७ साल जेल की सजा थी। गौरतलब है कि राजस्थान की चुनावी रैली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल ने आरोप लगाया था कि सावरकर ने अंग्रेजों को पत्र लिखा था कि वह अंग्रेजों के लिए कुछ भी करेंगे। राहुल गांधी ने दावा कि सावरकर ने ब्रिटिश हुकूमत से कहा था कि वो किसी राजनीत के गतिविधियों में शामिल नहीं हैं, मुझे जेल से से मुक्त कर दो।

शनिवार, 17 नवंबर 2018

सिख दंगा: गवाह के सज्जन कुमार के पहचानने से कांग्रेस की भी मुश्किल बढ़ेगी


1984 के सिख दंगे देश की सियासत पर बदनुमा दाग हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री की हत्या के विरोध के सनक में कराए गए इन दंगों के दाग सबसे पुरानी पार्टी पर है। एक कांग्रेस नेता का बयान कि बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है और दो दशक तक जांच को दिशा न मिलना आरोपियों के संरक्षण की ओर इशारा करता है। अब भी पार्टी इससे जुड़े सवालों का जवाब देने से बचती नज़र आती है। दुनिया की विभिन्न सभ्यताओं ने अपने कुकृत्यों के लये समय समय पर माफी मांगी है, जर्मनी में नाजियों का कोई नाम लेवा नहीं है, ब्रिटिश लोगों ने भी तमाम बातों के लिए माफी मांगी है मगर अभी भारत में पश्चाताप की प्रवृत्ति का लगता है इनतजार करना होगा। इससे अपराध का स्टेटस नहीं बदलेगा, मगर पीड़ित परिवारों को ढांढस बंधेगा और शायद सिख दंगा पीड़ितों को कांग्रेस की उस क्षमा याचना करने के दिन का इनतज़ार रहेगा। बहरहाल केन्द्र की मोदी सरकार के गठन के बाद गठित एस आई टी को दोषियों को उनके मुकाम तक पहुंचाने में सफलता मिलने लगी है। सरकार की ओर से गवाहों के लिए दिल्ली पंजाब में दिया विज्ञापन रंग ला रहा है,न्याय मिलने की आस छोड़ चुके कई चश्मदीद और पीड़ित एस आई टी तक पहुंचे हैं और कोर्ट में बयान भी दर्ज कराया है। इसी के तहत १ नवंबर १९८४ को दिल्ली के महिपालपुर में ५०० लोगों की भीड़ के एक दुकान पर धावा बोलकर तोड़फोड़ करने और ३ भाइयों को जिंदा जलाने के मामले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की अदालत ने बीते दिन दो दोषियों को दोषी करार दिया है। ३४ साल बाद आए इस फैसले को भले ही मुकाम मिलने में अभी लंबा इंतजार करना पड़ेगा मगर टूटी उम्मीद तो फिर बंधी ही है। गौरतलब है कि गवाह न मिलने से बंद हो चुके इस केस में विज्ञापन पढ़ने के बाद पीड़ित परिजन डिल्ली लौटा। इसी कड़ी में अब एक मामले में पटियाला हाउस कोर्ट में एक गवाह ने पूर्व कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को पहचान लिया है। इससे कांग्रेस की भी मुश्किल बढ़ेगी, भले ही उसने सज्जन से नाता तोड लिया हो। मगर इन जांचों की तरफ तत्कालीन सरकारें जिनमें एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस सरकारें भी थीं इनको आगे क्यों नहीं बढ़ा पाइं।उनकी संवेदना किसकी तरफ है पीड़ित या आक्रामक। यह भी की इतनी बड़ी वारदातें बिना किसी बड़े नेता की शह या चुप्पी के स्थानीय नेता कैसे अंज़ाम दे सकते हैं या मामला कुछ और है इन सबके जवाब तो उसके नेताओं को देने होंगे। खैर हम इंतजार करेंगे कि सियासत कैसी करवट लेती है।

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

अफरीदी का ब्रिटिश संसद में बयान इमरान पर निशाना


अपनी बल्लेबाजी से एक दौर में सुर्खियों में रहने वाले पाकिस्तान के बल्लेबाज अफरीदी ब्रिटिश संसद में छात्रों को दिए बयान को लेकर सुर्खियों में हैं। इससे संबंधित जो वीडियो सामने आ रहा है उसमें कश्मीर की हताशा के साथ जो प्रमुख बात सामने आ रही है वो बात अंतरराष्ट्रीय मामले से ज्यादा उनकी घरेलू राजनीतिक स्थिति को इशारा कर रही है। दरअसल वीडियों में अफरीदी कहते नज़र आ रहे हैं कि पाकिस्तान से उसके ही चार प्रांत संभल नहीं रहे हैं। यह तीन महीने पहले गठित पाकिस्तान सरकार के मुखिया पर पहला अप्रत्यक्ष बड़ा हमला है, जिसमें ३ महीने में किसी बदलाव का नजर आना तो दूर उस दिशा में बढ़ने की बात भी नजर नहीं आ रही है। इससे पाकिस्तानियों में असंतोष पैदा हो रहा है। दरअसल चुनाव जीतने के लिए इमरान ने जो दावे कर डाले थे उसके उलट ही कार्य करते नजर रहे हैं। चुनाव के दौरान उन्होने विदेशी कर्ज लेने की पुरानी सरकारों की कड़ी आलोचना की थी मगर अपनी बुनियादी पूंजी भारत दुश्मनी में जेहादी ताकतों और आतंकियों के हाथों लुटा बैठे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को दर दर सहायता मांगने के लिए भटकना पड़ रहा है। ३ महीने में ही वो सहायता के लिए सऊदी अरब और चीन तक का चक्कर लगा आए हैं। सऊदी ने तो उनकी कुछ सहायता की मगर सदाबहार दोस्त चीन से कुछ ठोस आश्वासन नहीं मिला इसने इमरान, पाकिस्तान और पाकिस्तान आर्मी की जग हंसाई कराई क्योंकि इमरान को पाकिस्तान सेना का पूर्ण समर्थन माना जाता है। वहीं पाकिस्तान के रुपए का फिसलना जारी है, जिसको लेकर इमरान दूसरी सरकारों पर तंज कसते थे, परिणाम तो दूर वहां के वित्त मंत्री असद उमर अभी ऐसे उपाय भी नहीं कर पाए हैं कि बाजार में कुछ उम्मीद ही पैदा हो जिससे पाकिस्तानी रुपया जितना गिर चुका है वहीं संभल सके। महंगाई बढ़ ही रही है, जिसके आई एम एफ से कर्ज लेने के बाद और बढ़ने की आशंका पाकिस्तानी अवाम से मीडिया तक है । इसके एवज में वित्तमंत्री बस पुरानी सरकारों का दोष गिनाते नजर आते हैं अब तक कोई प्लान वो नहीं पेश कर सके है। इससे पहले की भी सरकारें अपने पूर्वर्ती पर दोष मढ़ के ही काम चला रही थीं। इसके अलावा राज्यों के हालात भी ठीक नहीं है बुनियादी सुविधाएं तो है नहीं इनके पाले जेहादी अब इन्हीं को आंखे तरेर रहे हैं, वो जब चाहते हैं पूरे पाकिस्तान को बंधक बना लेते हैं, वहां किसी के जीने कि कोई गारंटी नहीं दे सकता। एक से अधिक गिरोह होने से हालात और मुश्किल हो गए हैं। साथ ही पाकिस्तान असमंजस की स्थिति में है। इससे अवाम की उम्मीदें टूट रही हैं। इसलिए संभवतः पाकिस्तानी राजनीति में उतरने की कोशिश कर रहे अफरीदी वीडियो में अपनी जगह बनाने और अपने समर्थकों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं। अब महत्वपूर्ण है इमरान पर निशाने के लिए जगह के चुनाव की। दरअसल पाकिस्तान मीडिया में अब भी इमरान को कुछ और समय दिए जाने का एक सामान्य विचार है। इसलिए इस तरह के बयान को ज्यादा तवज्जो नहीं मिलने की आशंका थी। साथ ही इमरान को सेना का भी समर्थन है, इससे अफरीदी को विश्वास रहा होगा कि यूके में इस तरह का बयान देने से उसे मीडिया में जगह भी मिलेगी और उनके समर्थकों, imran sarkar और अवाम को भी संदेश पहुंच जाएगा। ऐसा हुआ भी, अफरीदी के बयान के पक्ष विपक्ष और विवेचना संबंधी प्रतिक्रिया आने लगीं। इधर भारतीय मीडिया के कश्मीर पर उनके बयान को लेकर ज्यादा तवज्जो का उन्होंने खंडन भी कर दिया। कुल मिलाकर वो यूके में छात्रों नहीं अपनी अवाम से ही रूबरू थे। इसमें हो सकता है उन्हें सेना का भी समर्थन हो क्योंकि ३ महीने में कुछ बदलाव आता नजर नहीं आ रहा है। और इमरान सरकार को सेना का पूर्ण समर्थन माना जाता है, ऐसे में इमरान की असफलता की तोहमत से सेना बच नहीं सकेगी। इससे सेना एक मोहरे के पीटने से पहले दूसरा तैयार कर लेना चाहती हो। अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं के नेताओं कि छबि जैसी बिगाड़ी जा चुकी है इसलिए सेना ने आगे बढ़ने का इरादा किया होगा। जैसा कि विदित है कि पाकिस्तान कि राजनीति हो या सेना सर्वाइव करने या जगह बनाने के लिए कश्मीर का शोशा उड़ाने की जरूरत होती है ऐसे में अफरीदी का बयान उसी की फेहरिस्त का बस एक नया नाम भर है। इमरान से लेकर पूर्वर्ती नेताओं तक सबने यही किया। अब असल चुनौती इमरान की है अब उन्हीं की पिच पर संभवतः अफरीदी खेलने और चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं। ये भी क्रिकेटर हैं इमरान की तरह अनुयायियों की तादाद अच्छी है, पाकिस्तानी क्रिकेट का नाम बढ़ाने वाला नाम, राजनीति में न होने से दामन पर दाग नहीं, कश्मीर राग गाने को तैयार और भारत दुश्मनी की बात कर सेना का समर्थन पाने की जुगत सारा खेल हूबहू इमरान का। अब तो शायद उन्हें बस इमरान के असफल होने का इंतज़ार हो । अफरीदी गेंदबाज भी हैं तो सम्भवतः शुरू हो जाएं खेल में। अब इमरान के पास विकल्प कम हैं पाकिस्तान की आर्थिक हालत सुधारने के लिए एक तो दीर्घकालीन प्रयास की जरूरत है, दूसरे कारोबारी माहौल बनाने के लिए जेहादियों से मुक्ति पानी होगी यह मुश्किल होगी क्योंकि इमरान के सिर पर ताज सजाने में इनकी अहम भूमिका रही है और इमरान भले ही पाकिस्तान को वर्ल्ड कप jitaen हों सेना उन्हें स्टेट्समैन नहीं बनने देगी। ऐसे में इमरान छोटे विकल्प भारत दुश्मनी को पूर्ववर्तियों की तरह आजमा सकते हैं। इससे भारत सरकार और उसकी एजेंसियों को सजग रहना होगा। इधर अफरीदी अपने लिए मौके देख रहे हैं और उन्होंने दबाव बढ़ा दिया है। आमतौर पर खिलाडी राजनीतिक विषयों से दूर रहते हैं, मगर अफरीदी पाकिस्तान में मानवाधिकार उल्लंघन की तरफ से आंख बंद कर कश्मीर को लेकर सुर्खियों में रहने का शगल संभवतः इसीलिए पाल रहे हैं। बहरहाल पाकिस्तान में इमरान की चुनौती बढ़ है।

रविवार, 11 नवंबर 2018

उत्तर के राज बनने की फ़िराक़ में राहुल गांधी


अवसर का इफरात न होना, अयोग्यता के साथ महत्वाकांक्षा देश में आर्थिक क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रही है और यह आग पश्चिम में महाराष्ट्र से उत्तर और मध्य भारत आ पहुंची है। इस आग को बढ़ा रहे हैं राजनीतिक दल और 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव इसके लिए प्रयोगशाला बन गए हैं। आज से कुछ अरसे पहले ऐसी बातों के लिए मुंबई सुर्खियों में रहती थी। जिसकी शुरुआत स्वर्गीय बाला साहेब ठाकरे के मराठी मानस नारे के साथ हुई। जहां सत्ता के लिए आर्थिक संसाधनों पर मुंबईकर का पहला हक का नारा उछाला गया। इसका लाभ उन्हें मिला भी। पहले दक्षिण भारतीयों के खिलाफ शुरू हुई यह अराजकता बाद में यूपी बिहार के लोगों के खिलाफ भी फली फूली, जिसमें इनसे मारपीट भी शामिल है। जिसे ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने खूब बढ़ाया। इसका उन्हें भी लाभ मिला, इससे उनका अच्छा खासा राजनीतिक आधार तैया हो गया है। अब यही राजनीतिक रेसीपी उत्तर भारत में आजमाने कि कोशिश की जा रही है। छत्तीगढ़ में विधान सभा चुनाव को लेकर शनिवार को कांकेर में आयोजित रैली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि यहां अन्य राज्यों के लोगों को रोजगार दिया जा रहा है। हम सत्ता में आए तो छत्तीसगढ़ के लोगों को ही रोजगार देंगे। इससे महज कुछ दिनों पहले भोपाल की सभा में उन्होंने सीधे सीधे मध्य प्रदेश के लोगों को भड़काया था और आरोप लगाया था कि यहां गुजरात के लोगों को रोजगार दिया जा रहा है। हालांकि इस आंकड़े पर हमेशा सवाल उठेंगे की क्या पलायन अमीर राज्य से गरीब राज्य की ओर हो सकता है मगर यह राजनीति राज के मुंबई में मुंबईकर से अलग नहीं है। इसमें न सहिष्णुता है और न देश की एकता का संदेश जैसा कि अक्सर कांग्रेसी नेता दिखावा करते हैं। यह ऐसा मवाद है जो फैलता ही जाता है और आखिरकार शरीर को यानी देश को खत्म करने के बाद ही रुकता है। अफसोस की बात है कि अब एक राष्ट्रीय पार्टी आर्थिक क्षेत्रवाद को बढ़ाने की कवायद में जुटी है। फिर इससे छोटे रूप में जातीय आधार पर राजनीति करने वालों की आप आलोचना कैसे कर पाएंगे। वैसे आर्थिक क्षेत्रवाद को बढ़ाकर सत्ता तक पहुंचने की राहुल की बेसब्री समझ में आती है। एक दशक की राजनीति में राहुल के खाते में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं है और अब जब अध्यक्ष बन गए हैं उनकी पार्टी को लेकर जवाबदेही है तो वो अधीर हो गए हैं। संभवतः उन्होंने मान लिया है कि अभी नहीं तो अरसे तक नहीं। इसलिए वो जनता की आर्थिक लालच की कमजोरी का लाभ उठाना चाहते हैं और आर्थिक आधार पर सबको एक दूसरे के खिलाफ भड़का रहे हैं मगर इसका राहुल से भविष्य जवाब मांगेगा कि क्या स्वतंत्रता सेनानियों ने इसी दिन के लिए कुर्बानी दी थी।

शनिवार, 10 नवंबर 2018

प्रदूषण से लड़ना किसकी जिम्मेदारी


देश में गर्मी जाड़ा बरसात के छह मौसम कभी दुनिया के लिए भारत को ईश्वर की नेमत थे मगर सभ्यता के महज ६००० वर्षों में यह खूबी देशवासियों को इतना डराएगी। शायद ही किसी ने सोचा होगा। मैं बात कर रहा हूं सर्दी की देश में जाड़े ने दस्तक दे दी है और साथ ही डर ने, डर है बीमारी का और मौत का। मगर क्यों कारण मनुष्य के ही कार्यों का परिणाम यानी प्रदूषण। देश की राजधानी में हवा इतनी दूषित हो गई है कि इससे लोगों को अस्थमा , स्वास समेत कई बीमारियों का खतरा मंडराता रहता है और सर्दी के गहराते ही खतरा गहरा जाता है। भारत में जाड़े के साथ ही हर साल की तरह दिल्ली का दम फूलने लगता है हवा को दूषित करने वाले तत्वों की वजह से इसका एक मापदंड पिएम २.५ और पीएम १० से। और यह लगातार बाद रहा है दिल्ली में इसकी सामान्य स्थित हवा में पीएम २.५ सामान्य ५० से १०० की जगह कई गुना ज्यादा 400 से 600 के बीच घूम रहा है इसके कई कारण माने जाते है एक देश की राजधानी होने से भौतिक विकास की उम्मीद देखते हुए देश भर से आने वाले लोगों ने बिना सोचे समझे यहां पेड़ काट डाले नतीजा दिल्ली में पेड़ पौधे देखने के लिए काफी दूर चलना पड़ता है जबकि पेड़ पौधे हमारे लिए प्राकृतिक सफाईकर्मी और जीवन का स्रोत ऑक्सीजन का भी स्रोत थी। इसके अलावा दिल्ली में लोगों के पास बेतहाशा वाहन होना, सारी दुनिया भारत सहकारिता और सहजिविता से सीख रही है और हम ही इसे भूला बैठे है। नतीजतन कई परिवारों में हर सदस्य अपनी अलग गाड़ी का इस्तेमाल करता है और उससे निकलने वाली गैसें हवा को दूषित करती हैं। एसी के साथ अभी भी दिल्ली एनसीआर में तमाम फैक्ट्रियां पुरानी तकनीक और कोयले आदि पर आश्रित हैं जो प्रदूषण की बड़ी कारक हैं, इसमें काफी कुछ का समाधान हो जाय यदि लोग अपना लालच छोड़ और नई तकनीक अपनाएं। बेतहाशा निर्माण कार्य भी एक वजह बन रही है जिसका कोई उपाय खोजना होगा। शुरुआत में इस पर कुच्छ अतिरिक्त खर्च जरूर आएगा, मगर दीर्घकाल में इसका मालिक को ही फायदा है मगर वो चेतने को तैयार ही नहीं नजर आ रहे। साथ ही हरियाणा और पंजाब के किसानों का पराली जलाना भी इसकी वजह बताई जाती है मगर शर्मनाक है कि सबको कारण और निवारण पता है मगर रोते रहने के बावजूद समाधान के लिए कोई आगे बढ़ना नहीं चाहता और सब एक दूसरे पर दोष मढ़ते रहते हैं। अधिकतर पपीहे की तरह स्वाति नक्षत्र की बूंद का इंतज़ार कर रहे हैं जहर भी पैदा कर रहे हैं सब कहते हैं सरकार कुछ करे मगर आम लोगों का काम सरकार कैसे करे कोई नहीं सोचता और यह भी की कोई सरकारी मुहिम खुद लोगों कि सहभागिता के बगैर क्या सफल हो सकती है। इस साल प्रदूषण की हर साल बनने वाली एक वजह दिवाली पर सामान्य पटाखा न जलाने देने के लिए देश की सुप्रीम कोर्ट ने कोशिश की थी। सरकारी करवाई भी हुई दुकानदारों पर आमलोगों पर मगर लोगों ने इसका पालन किया तमाम लोगों ने पड़ोसी राज्यों से पटाखे फोड़े और प्रदूषण फैलाए। आखिर इस नियम का किसको फायदा होता सरकार तो एक अव्यक्त संगठन है फिर ऐसी हठधर्मी क्यों और बाद में प्रदूषण का रोड़न क्यों। यह भी की अगर कोई खुदकुशी करना ही चाहे तो उसे कितने दिन रोका जा सकता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 20 विं शताब्दी के शुरुआत के दशक में चीन का भी हाल कुछ ऐसा था, लेकिन 2013 से वहां की हवा साफ़ होने लगी। बीजिंग 2013 में PM2.5 स्तर 50 से लेकर 400 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के बीच गया लेकिन ज़्यादातर 250 के नीचे ही रहा। लेकिन दिल्ली में नवंबर 2013 से जनवरी 2014 के बीच PM2.5 का स्तर 240 था जो वैश्विक स्तर से 8 गुना ज़्यादा है। इस साल दिवाली पर कुछ रिपोर्ट के मुताबिक यह दिल्ली में ये 575 तक पहुंचा। दिल्ली में बुधवार शाम को यानी दिवाली के दिन बीजिंग में PM2.5 का सबसे ज़्यादा स्तर 38 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रहा जबकि दिल्ली में ये 300 रहा जो स्वीकृत स्तर से 10 गुना ज़्यादा है। इस संबंध में चीन के पर्यावरण शोध केंद्र से जुड़े मिस्टर झांग ने कहा कि चीन की सरकार ने हवा साफ़ करने के लिए विकास को कुछ धीमा करने का दर्द उठाया है। पहले नियमों का गंभीरता से पालन नहीं होता था। जबसे शी राष्ट्रपति बने तो उन्होंने इस बारे में बहुत गंभीरता दिखाई। नए आंकड़ों और विशेषज्ञों की मदद से चीन लगातार अपने लक्ष्यों को सुधारता रहता है। दरअसल चीन ने बीजिंग के आसपास कोयले से चलने वाले विद्युत संयंत्र बंद कर दिए,जिससे प्रदूषण में कमी आई। सड़कों पर कारों की संख्या पर पाबंदी लगी। जन परिवहन को बढ़ावा देकर, किराये कम किए गए। उद्योगों को ग्रीन बनने के लिए प्रोत्साहन मिला। मगर क्या हम इसके लिए तैयार हैं चीन में तो लोकतंत्र नहीं है तो क्या हम खुद अपनी अगली पीढी के लिए यूं ही मौत के कांटे बोते रहेंगे या प्रदूषण को ना कहेंगे। एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में प्रदूषण की वजह से ऐसे लोग जो सिगरेट नहीं पीते वो भी रोजाना 22 सिगरेट के धुएं के बराबर धुआं सोख रहे होते हैं। इससे उनके फेफड़े प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे में एक ही सवाल जेहन में गूंजता है कि अब नहीं चेतेंगे तो कब चेटेंगे। ईश्वर के लिए, खुदा के लिए ईमानदारी से प्रद्दूषण फैलाने से बचें, आखिरकार इससे हमी प्रभावित होंगे, इसलिए सरकार के इंतज़ार कि बजाय खुद जिम्मेदारी समझें और प्रदूषण को न कहें।

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

राज्यों के चुनाव में फिर बीजेपी के लिये गेम चेंजर साबित हो सकते हैं मोदी


मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मिजोरम और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। चुनाव आयोग ने चुनाव कार्यक्रम का ऐलान कर दिया है। सभी प्रतिस्पर्धी अपनी सेना सुसज्जित कर चुके हैं कुछ तो अपने अभियान पर भी निकल चुके हैं, चुनाव का समय ऐसा है विधानसभा चुनाव ज्यादा ही महत्वपूर्ण हो गए हैं क्योंकि इसके परिणाम फिर से सिपहसालार के मूल्यांकन का कारण और जनता पर पकड़ की कसौटी पर कसे जाएंगे। इस बीच abp-cvotersने सर्वे में मतदाताओं की नब्ज पकड़ने की कोशिश की है। इनका अनुमान है कि यदि अभी चुनाव हो जाएं तो तीन बड़े राज्यों में जहाँ कॉंग्रेस भाजपा का सीधा मुकाबला है सत्ता विरोधी लहर के कारण कांग्रेस की अरसे बाद वापसी हो सकती है। सर्वे में mp में कॉंग्रेस को 122 सीट, छत्तीसगढ़ में 47 सीट और राजस्थान में 142 सीट मिलेगा, इसीतरह bjp को क्रमशः 108, 40 और 56 सीट मिलती बताई गई हैं। इसी के साथ mp, cg में कांग्रेस-भाजपा का वोट शेयर क्रमशः 42.2 और 41.5%,जबकि छत्तीसगढ़ में 38.9 और 38.2% मिलता दिखाया गया है। इस तरह पहली नज़र में कांग्रेस का पलड़ा भारी है मगर वोट % का मार्जिन दोनों राज्यों में बहुत कम है, ऐसे में किसी भी पार्टी की सुस्ती या मतदाता का स्विंग नतीजों में बड़ा अंतर कर सकता है उसपर भी जब इन दोनों ही राज्यों में अब भी वर्तमान मुख्यमंत्री लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं। दूसरा मामला संगठन का भी है जिसमें bjp अपेक्षाकृत मजबूत है। उनके मुख्यमंत्री की प्रदेश भर में अपील है और mp men कांग्रेस के 3 दिग्गज दिग्विजयसिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य खुद को बड़ा और दूसरों को छोटा करने में लगे हैं जिनके प्रदेश भर अपील भी नहीं है ज्यादातर अपने जिले या मंडल भर में प्रभाव रखते हैं और दिग्विजय तो वैसे भी नकारे जा चुके हैं ऐसे में जनता बिना किसी रोडमैप के केवल इसलिय इन्हें स्वीकार कर लेगी की शिवराज के 3 कार्यकाल हो गए हैं जनता से थोडा ज्यादा मांगने जैसा होगा क्योंकि दिग्विजय की दौर की बिजली सड़क आदि व्यवस्था को वोट देने से पहले याद करेंगे तो उनका निर्णय क्या होगा अंदाजा लगाया जा सकता है। इसके बाद bjp के पास एक तुरुप का पत्ता है प्रधानमंत्री मोदी, अब सवाल यह है कि यह पत्ता क्या फिर असरकारी होगा। वैसे वक्तृत्व कला और खुद को जनता से जोड़ लेने की क्षमता और मतदाता को अपनी बात समझाने की म जैसी ताकत आज के दौर में मोदी में है वैसी क्षमता उनके मुखल्फीन में नहीं है और कांग्रेस अध्यक्ष तो कहीं ठहरते नहीं। bjp को उम्मीद होगी की मोदी कुछ प्रतिशत मददाता को उनकी तरफ मोड़ देंगे और ऐसा हुआ तो कांग्रेस को फिर मायूसी मिल सकती है। मगर क्या इस बार मोदी क्या ऐसा कर पाएंगे क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष राफेल मामले को उठा रहे हैं क्या मामला विधानसभा में समझ में आएगा, फिर जब कांग्रेस अध्यक्ष की बॉडी लैंग्वेज इस दौरान ऐसी हो कि जैसे हमलोग आपसी बातचीत के दौरान तीसरे दोस्त को बेवकूफ बनाने के दौराण आंख मार देते हैं। वहीं कांग्रेस अध्यक्ष mp में एक रैली में कह बैठे की मोदी गुजरात के लोंगो को नौकरी दे रहे हैं और mp में नौकरी नहीं यह बातें उनकी विश्वसनीयता पर और भी सवाल उठाती हैं। साथ ही उन्हें तय करना होगा कि समस्या रोजगार की कमी है gujrat के लोंगो को ज्यादा रोजगार मिलना। अगले साल लोकसभा चुनाव में गुजरात में भी वोट मांगना है, इसलिये कॉंग्रेस की 70 के दशक से अब तक कि divide & rule की पॉलिसी उनको तो फायदा नहीं ही पहुंचाएगी अलबत्ता देश का नुकसान जरूर कर देगी। फिर केंद्र के पिछले karrykal से अबकी विश्वसनीयता पर जो सवाल खड़े हुए हैं अब भी कांग्रेस जवाब नहीं दे पाई है और जब तब उसे बगलें झाँकनी पड़ती है इसके बरक्स प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता अब भी है। ऐसे में कांग्रेस की राह आसान नहीं है इसके साथ ही इसमें bsp बड़ा फैक्टर साबित हो सकती है फिलहाल कुछ और ििइंतज़ार करना होगा।

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

बुंदेलखंड का आध्यात्मिक और पर्यटन का केंद्र है दतिया


मध्यप्रदेश के दतिया जिले में स्थित मां पीतांबरा का मंदिर एक सिद्धपीठ है। यह मंदिर बुंदेलखंड की आध्यात्मिक ऊर्जा का केंद्र है। वैसे तो देश विदेश से लोग यहां दर्शन करने आते हैं, मगर बुंदेलखंड क्षेत्र के लोग तो नियमित दर्शन पूजन करते हैं। तमाम लोग दिल्ली तक से आते जाते हैं। वैसे तो आछ्छे काम पूजा के लिए हर समय पवित्र है और नवरात्र आदि शक्ति को प्रिय है पर शनिवार को यहां पूजा अर्चना खास माना जाता है। इस मंदिर के संचालन का कामकाज देखने वाली ट्रस्ट की प्रमुख राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया हैं। मंदिर की खास बात यह है कि आमतौर पर दूसरे प्राचीन मंदिरों में पुजारियों की ओर से रुपये का चढ़ावा को लेकर जो लालच और अनुचित व्यवहार दिखता है यह इस मंदिर में नज़र नहीं आता। मां पीताम्बरा पीले वस्त्रों में रहती हैं और बगलामुखी का रूप मानी जाती हैं।

  इसलिए यहां पीले वस्त्र में अनुष्ठान करते हैं राज सत्ता की चाहत रखने वाले और दुश्मनों से रक्षा की गुहार लगाने अक्सर भक्त यहां हाजिरी लगाते हैं। मंदिर में पूजा पाठ के लिए काफी स्पेस है। सबसे बड़ी बात शक्ति के विभिन्न स्वरूपों के साथ शिव के भी विभिन्न मंदिर है। सम्भवतः यह शिव पार्वती दंपति के प्रेम का प्रतीक है। शक्ति के जल्द क्रोधित होने वाली स्वरूप धूमावती मां का मंदिर भी है मगर ज्यादातर यह बंद ही रहता है यह 7.30 baje शाम को आरती के समय ही खुलता है।

  यहां भक्तो के लिए रहने और नाश्ते आदि की भी व्यवस्था है मगर अब यह सुविधा सिर्फ नियमित भक्तों को मिलती है बहुत कम शुल्क पर । पहले सभी को यह सुविधा उपलब्ध थी मगर आने वाले लोगों के कर्मचारियों से दुर्व्यवहार की वजह से यह सुविधा अन्य के लिये बंद कर दी गयी। हालांकि यहां रुकने के लिए अन्य होटल आदि मिल जाएंगे।  


 दतिया में बहुत कुछ है देखने लायक: सिद्धपीठ के अलावा भी दतिया में देखने लायक बहुत कुछ है। राजा वीर सिंह का 16 विन शती में बनवाया गया सात खंडा महल। यह महल 7 तल वाला है किंवदंती यह है कि इसमें 7 तल अंदर ग्राउंड भी हैं मगर पुरातत्व बिभाग वाले सुरक्षा कारणों से इसे बंद रखते हैं दीवाली पर सफाई के लिए ही मजदूर निचले हिस्से में जा पाते हैं वो भी 1 तल। बाकी दिनों में महल के ऊपरी हिस्से में लोगों को आने जाने दिया जाता है। महल के दो तरफ तालाब है जिससे नहाकर महल की ओर आने वाली हवा से भीषण गर्मी में भी आपको यहां गर्मी महसूस नहीं होगी। साथ ही इससे पूरे शहर का नज़ारा देखा जा सकता है। और तालाब इस शहर को खूबसूरत बनाते हैं। वीर सिंह के वंशजो का किलानुमा घर भी है मगर वो आमलोगों के लिए शायद बंद है वहां राजा के परिजन रहते हैं।


  https://datia.nic.in पैलेस भी यहीं है इसे राजा शत्रुजीत बुंदेला ने बनवाया था। महाभारत कालीन वनखण्डेश्वर मंदिर भी यहीं है। आसपास भी बहुत कुछ:दतिया से 12 किलोमीटर दूर सोनागिरी जैन धर्म का तीर्थ स्थल है। दतिया से 17 किलोमीटर दूर पराग ेेतीहसिक काल का उन्नाव बालाजी मंदिर है। 55 किलोमीटर दूर घने जंगल में रतनगढ़ माता का मंदिर है। दिल्ली की तरफ से आने पर 69 किलोमीटर पहले ग्वालियर है, जहां किला, सिंधिया पैलेस, झांसी की रानी पार्क, तानसेन की मजार, तिघरा डैम आदि दर्शनीय स्थल हैं। दतिया से 34 किलोमीटर दूर झांसी और 52 किलोमीटर दूर ओरछा है यहां भी काफी दर्शनीय स्थल हैं कुल मिलाकर समय हो तो यहां और आसपास इतने दर्शनीय स्थल हैं अलग अलग तरीके की सोच वालों को जो दीवाना बना दे। कैसे पहुंचे:दतिया दिल्ली मुम्बई रेल रुट पर है। यह दिल्ली से 325 किलोमीटर दूर तो भोपाल से 320 किलोमीटर दूर है। इस रूट पर ट्रेन तकरीबन समय पर चलती हैं। एक अच्छी ट्रेन ताज एक्सप्रेस है सिटिंग ac aur non ac भी है, मगर सीट बस से आरामदायक है। और भी कई अच्छी ट्रेन है। बस की भी सुविधाएं भी हैं।

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

History of india


जो पीढ़ी अपना इतिहास संभाल कर नहीं रख सकती उसका कोई भविष्य नहीं हो सकता। क्योंकि इससे हमें वर्तमान को बनाने की सीख मिलती है और यही भविष्य की बुनियाद होती है। इसलिये हम सबको मिलकर जो जहां भी है अपनी अतीत की घटनाओं की निशानियों को संभाल कर रखना होगा ताकि हमारे भविष्य की बुनियाद मजबूत रहे।


     इ सी सोच के साथ पिछले साल मुझे व्हाट्सएप पर किसी साथी से अतीत की घटनाओं के कुछ फोटो मिले थे, आजकल सोशल मीडिया पर तमाम सवाल उठते रहते हैं मैनी इनका परीक्षण नहीं किया मगर पहली नज़र में सही लगीं। इसलिए एक साल से संभाल कर अब इन्हें गूगल पर सुरक्षित कर देने की मंशा से ब्लॉग पर डाल दे रहा हूँ, ताकि जब जरूरत पड़े पाया जा सके।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

राफेल विमान विवाद : कितनी हकीक़त कितना अफसाना

देश के अभिजात्य के पलकों के साये में पले बढ़े राहुल गांधी 2004 में अमेठी से चुनाव जीतने के बाद महज 15 साल में देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष पद तक पहुंच गए। ऐसी किस्मत कांग्रेस के किसी दूसरे कार्यकर्ता की कब होगी पता नहीं पर राहुल पहली बार किसी जिम्मेदारी को उठाने के लिये शायद मजबूर किये गए हैं। इससे पहले तक एक अनिच्छुक राजकुमार के रूप में उनके पास बेशुमार ताकते थीं मगर जिम्मेदारी कुछ भी नहीं। अब मीठा मीठा गप्प कड़वा कड़वा थू से काम नहीं चलेगा, अब पार्टी के सफलता का श्रेय राहुल को दिया जाएगा तो असफलता भी स्वीकार करनी होगी।
 राहुल के पार्टी अध्यक्ष दिसंबर 2017 बनने के बाद अब बड़े राज्यों में मध्यप्रदेश और राजस्थान में चुनाव प्रक्रिया चल रही है। इससे पहले पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में फरवरी में हुए चुनाव में उनकी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। मगर इन चुनावों के परिणाम से उनका वास्तविक मूल्यांकन जरूर होगा। फिलहाल उनकी अगुवाई में कांग्रेस ने एंटनी समिति की उस सिफारिश पर अमल करना शुरू किया है जिसमें समिति ने 2014 के चुनावों में हार की प्रमुख वजह मुस्लिम समुदाय की ओर पार्टी के अधिक झुकाव की चर्चा को वजह बताई गई थी। इससे अब कांग्रेस अध्यक्ष मंदिर मंदिर घूम रहे हैं, इससे पहले यह क्षेत्र मुख्य रूप से बीजेपी नेताओं का समझा जाता था। इससे पहले तक पार्टी महज इफ्तार पार्टी ही मानते देखी जाती थी। मगर संकेत की इस राजनीति से उनकी पार्टी और मतदाता को क्या मिलेगा और यह सिर्फ चुनावी हार का दबाव है तो आमलोग इसे कितना स्वीकार करेंगे यह समय ही बताएगा। और यह भी की जिस वजह से एक समुदाय विशेष इस पार्टी से नजदीकी महसूस करता था अब उसका कांग्रेस से कैसा रिश्ता रहेगा।
 फिलहाल राहुल नीत कांग्रेस में सत्ता की अकुलाहट नजर आ रही है। इसको लेकर कांग्रेस तमाम उन रास्तों पर बढ़ रही है जिसके लिए वह बीजेपी की आलोचना करती थी। अब धर्म और जाति का खुलेआम प्रदर्शन शर्म का बायस नहीं बन रही है। मध्य प्रदेश शिवभक्त राहुल और राहुल की जाति ब्राह्मण जैसे पोस्टर से पट रहा है, हालांकि देश का बौद्धिक गिरोह चुप्पी साधे है। हालांकि देश की एक राष्ट्रीय पार्टी की ओर से इस तरह का व्यवहार समझ से परे है फिर सपा, बसपा, डीएमके में क्या फर्क होगा।
राफेल सौदा: फिलहाल राहुल देश के लिये फ्रांस से खरीदे जाने वाले राफेल विमान को लेकर खासे आक्रामक हैं। वो इसमें अनियमितता का आरोप लगा रहे हैं। हालांकि फ्रांस की सरकार और देश की केंद्र सरकार ने इसको खारिज किया है। उनकी एक आपत्ति खरीद के तहत विमान की बिक्री से मिलने वाली रकम के एक हिस्से का मेक इन इंडिया के तहत भारत की किसी कंपनी के साथ मिलकर निवेश करने के मामले का है। इसके लिए फ्रांसीसी देसा ने रिलायंस को पार्टनर चुना है। राहुल इसी को लेकर घेर रहे हैं हालांकि इसमें देसा-रिलायंस की हिस्सेदारी 51-49 की रहेगी। अगर ऐसा है तो यह कंपनी रिलायंस लीड नहीं करेगी मोटे तौर पर।
 फिलहाल दूसरा विवाद कीमत को लेकर है इसकी आधिकारिक कीमत अभी सामने नहीं आयी है और यही विवाद की भी वजह बन रही है। सब का अलग कैलकुलेशन है कांग्रेस कह रही है यह हमारी ओर से किये करार से महंगा है तो एनडीए सरकार उनके करार के विमानों में कुछ और छेजेलचीजें जुड़वाने के लिहाज से सस्ता बता रही है। बहरहाल जब तक कैग की रिपोर्ट नहीं आ जाती तब तक हर खिलाड़ी को अपने तरह से खेलने से कोई रोक नहीं सकता। बता दें कि यूपीए 2 के कार्यकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को हार में उनके कुशासन के साथ टू जी, कामनवेल्थ, आदर्श सोसायटी और रक्षा कंपनी के भ्रष्टाचार आदि को वजह बताया जाता है। अब फिर चुनाव है तो कुछ उसी तरह की चौसर सजाने की कोशिश हो रही है।
फिलहाल राफेल की खरीद प्रक्रिया की शुरुआत में चलते हैं अगस्त में इंडिया टूडे में एक रपट छपी है इसमें वरिष्ठ पत्रकार लिखते हैं कि मोदी सरकार के 36 विमानों की खरीद और यूपीए की 126 विमानों की खरीद की चर्चा की तुलना नहीं कि जा सकती। क्योंकि समझौते पर वास्तविक दस्तखत nda ने किए हैं, upa ने समझौता किया ही नहीं था। हालांकि दोनों ने ने ही सही लागत का ब्योरा जाहिर नहीं किया है।
इसी रिपोर्ट में रक्षा विश्लेषक नितिन गोखले की किताब सिक्यॉरिंग इंडिया द मोदी वे के हवाले से उल्लेख है कि 2011 में रक्षा मंत्रालय ने 2011 में इस खरीद के लिये 163403 करोड़ रुपये यानी करीब 23 अरब यूरो का बेंच मार्क तय किया था। इस आंकड़े के मुताबिक प्रति विमान लागत 1296 करोड़ बैठती। पर विमानों की अधिग्रहण की लागत जैसा कि किताब में जिक्र है 126mmrca के लिए अनुबंधित कुल लागत से अलग थी, जिसके लिये रक्षा मंत्रालय ने 69454 करोड़ का बेंच मार्क तय किया था। इसमें ऑफसेट लोडिंग की लागत शामिल नहीं थी जिसकी अनुमानित लागत 2530 करोड़ से 5060 करोड़ के बीच रखी गई है। इससे ऐसा लगता है कि विमानों की कीमत 1296 करोड़ से भी ज्यादा बैठती। यह हाल टैब था जब कीमत के पेंच और अन्य मामलों को लेकर समझौता नहीं हो पा रहा था।
वहीं रपट में ही बताया गया है कि 2016 में 36 राफेल के तुरंत बाद रक्षा मंत्रालय ने एक ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफ़िंग में संकेत दिया था कि 36 राफेल के लिए 7.8 अरब यूरो का करार हुआ है। इसमें 5 अरब जहाजों के लिए और 2.85अरब इसमें लगने वाले हथियारों और भारत की विशिष्ट जरूरतों के मुताबिक कुछ विशिष्ट संवर्धन के एवज में दिए जाने थे। इन लड़ाकू विमानों को 70 करोड़ यूरो की लागत से  हवा से हवा में मार करने वाली मेंटॉर मिसाइल और हवा से सतह पर मार करने वाली स्कैल्प क्रूज मिसाइलों से लैस करने की बात भी जोड़ी गई। इसका उद्देश्य कम संख्या में मिलने वाले राफेल विमानों का अधिकतम उपयोग करके अपनी सामरिक जरूरतों की पूर्ति करना था। अगर ऐसा है तो अब का सौदा यूपीए की चर्चा से महंगा तो नहीं है। इधर रिपोर्ट में बताया गया है कि 12 मार्च को रक्षा राज्य मंत्री सुभाष भामरे ने बताया कि मोटे तौर पर एक राफेल की कीमत 670 करोड़ पड़ेगी। जिसमें संबंधित उपकरणों, हथियार आदि के खर्चे शामिल नहीं हैं। 
 अगर यही मामला है तो इस तरह मोठे तौर पर यूपीए के  1296 करोड़ और एनडीए के 670 करोड़ में कौन सस्ता है ज्यादा समझने में दिक्कत नहीं है फिर विवाद की वजह tit for tat जैसे को तैसा का लगता है। जैसा 2 जी घोटाले में फिलहाल तमाम अरोपी बरी हो गए मगर यूपीए की छवि को धक्का लगा और लोग सत्ता से बाहर होने को इसे बड़ी वजह मान रहे हैं।
मगर फिर दोनों दलों में फर्क क्या, वो मामला तो कैग की रिपोर्ट के बाद बवाल की वजह बना था मगर इसके लिए तो कैग की रिपोर्ट की भी जरूरत नहीं समझी जा रही है। ये तो असहिष्णुता है कांग्रेस जिसका आरोप बीजेपी नेताओं पर लगाती है। सबसे चिंता जनक है राजनीति रक्षा के मामले में हो रही है और उनकी चिंता नहीं कि जा रही है जिन्होंने देश को आजाद कराने के लिए बिना कुछ सोचे जान की बाजी लगा दी और कहा हम रहे न रहें यह देश रहे, और न ही ब्राह्मण और शिवभक्त का पोस्टर लगवाने वाले कांग्रेस अध्यक्ष उस ब्राह्मण चाणक्य की कही बात को याद कर रहे हैं जिसने कहा चंद्रगुप्त देश के लिये तुम राजा बने हो और जरूरत पड़ी तो तुम्हे सत्ता छोड़नी पड़ेगी(चाणक्य नाम की बुक से)। और यहाँ सिर्फ सत्ता के लिए क्या हो रहा है।
 इधर सत्ता की अकुलाहट इतनी बढ़ रही है कि 20 जुलाई को मानसून सत्र में लोकसभा में कांग्रेस अध्यक्ष के बयान से देश को शर्मशार होना पड़ा। दरअसल गांधी ने आरोप लगाया कि राफेल में सरकारी गोपनीयता के मामले में रक्षा मंत्री ने प्रधानमंत्री के कहने पर झूठ बोला था। इसमें उन्होंने कहा था कि फ्रांस के राष्ट्रपति ने उन्हें बताया था कि फ्रांस के साथ ऐसा कोई गोपनीयता समझौता नहीं हुआ था। कुछ घंटे बाद ही फ्रांस की सरकार ने राहुल की बात का खंडन कर दिया और गोपनीयता के मामले पर जोर दिया। इस मामले में वायु सेना अध्यक्ष को राफेल का पक्ष लेने पर राजनीतिक मामलों से दूर रहने की सलाह भी कांग्रेस की ओर से धमकाने जैसा ही था जो उचित नहीं है।
इधर राहुल की ओर से रिलायंस को देसा का पार्टनर बनाने के दबाव के आरोप से भी देसा और फ़्रांस की सरकार ने पल्ला झाड़ लिया है। इस तरह तो दूसरों की छवि पर बिना उचित सबूत दिए प्रहार से राहुल की छवि भी कितनी अच्छी बनेगी यह सवाल है। अभी कुछ दिनों पहले ट्रोलर्स की ओर से विदेश मंत्री को भला बुरा कहे जाने पर कुछ वेबसाइट के लेखों में कहा गया था ये भाजपा के पाले हु ट्रोलर्स हैं और भस्मासुर बन गए । इस नज़र से देखें तो राहुल की कवायद राजनीति के और पतन व झूठ के व्यापार के एक और नींव रखती नज़र आ रही है।

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

#talktoamuslim: मुस्लिम समाज को खुद से भी बात करने की जरूरत

इन दिनों सोशल मीडिया पर हैश टैग टॉक टू अ मुस्लिम ने एक नई बहस छेड़ दी है। इसके पक्ष में भी और विपक्ष में भी तमाम लोग अपनी राय रख रहे हैं। इससे एक संदेश निकल रहा है कि मुस्लिम समुदाय के लोगों को देश के दूसरे लोग नहीं समझते, खैर इस पर वाद प्रतिवाद जारी है। और इसमें कुछ हो या न हो देश की छवि धूमिल करने की कोशिश करने वालों  का मकसद कामयाब तो होता ही है। साथ ही हैशटैग शुरू करने वाली सेलेब्रिटी कुछ दिन चर्चा में भी रहेगी।
यह वैसा ही है जैसा पिछले दिनों रॉयटर्स फाउंडेशन नामक एक निजी संगठन ने भारत को स्त्रियों के लिए सबसे असुरक्षित देश महज चंद लोगों से बातचीत के आधार पर घोषित किया था। यह कैसा मजाक था कि ऐसे देश खास तौर पर सीरिया जैसे जहां आतंकी महिलाओं को बंधक बनाकर दुष्कर्म करते हैं और उन्हें बेचकर जन्नत का टिकट कटाते हैं उस पर निगाह नहीं डाली गई और भी हमारे पड़ोस में भी तमाम देश हैं जहां के कारनामे दुनिया भर में सुर्खियां बटोरते हैं उनके बारे में भी नहीं सोचा। खैर भारत में भी अपराध काफी हो रहे हैं जो हमारे लिये शर्म का वायस हैं मैं उनका बचाव नहीं कर रहा हूं मगर सर्वाधिक पर आपत्ति तो है।
   खैर बात करते हैं हैशटैग वाले विषय पर तो मुझे लगता है आज का जो दौर है जिसमें मुस्लिम धार्मिक कट्टरता, क्रूरता और हिंसा बढ़ती जा रही है, उसमें मुस्लिम समाज को खुद से भी बात करनी चाहिए कि क्या वजह है जिन भी देशों हिंसा हो रही है वो इसी समुदाय के बाशिंदों की ज्यादा आबादी वाला  है और प्रशासन भी इन्ही का है सीरिया की बात करें, अफगानिस्तान की बात करें या नाइजीरिया की बात करें या किसी और की। अफगानिस्तान में तो बाकायदा शरई शाषन लागू करने की जंग ही है। पैगम्बर ने किसी की हत्या के लिये तो नहीं कहा है जहां तक मैं जानता हूँ। ऐसे में मुस्लिम समाज इसे रोकने के लिए क्या कर रहा है। कुल मिलाकर बुनियादी गड़बड़ी कुछ तो है जिसे मुस्लिम समाज को ही सोचना होगा।
कुछ लोग कहेंगे हिंसा हिन्दू समुदाय के लोग भी करते हैं मगर भारत में भी नक्सलवाद है और इसकी आतंकवाद से तुलना नहीं कर सकते, इसमें आम जनता इस कदर प्रभावित नहीं होती।इस समुदाय के अमन पसंद लोगों को सोचना चाहिए कि जो भी हिंसा करने वाले हैं ज्यादातर इसी समुदाय से क्यों हैं ओसामा से फजलुल्लाह तक। यहां तक भारत जैसे देश से भी आतंकी निकला तो उसका नाम दाउद, अबू सलेम निकला । इसके अलावा भी भारत के तमाम दबंगों के नाम इस तरह के होंगे, अभी बागपत जेल में एक मुन्ना बजरंगी नाम का बदमाश मारा गया उसके भी मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति के लिए काम करने की खबरें छप चुकी हैं।
 मैं ये नहीं कहता कि दूसरे समुदायों में अपराधी नहीं हैं कट्टर नहीं  हैं औऱ उन्हें किसी तरह छूट मिलनी चाहिए मगर सामूहिक हिंसा की ऐसी प्रवृत्ति दूसरे समुदाय से आने वाले व्यक्ति में कम देखने को मिलती है। इन सब में सबसे खतरनाक है इसको सामाजिक स्वीकृति इस पर मुस्लिम समाज में चर्चा सुनाई नहीं देती। br /> अभी कुछ समय पहले  बॉलीवुड की एक फ़िल्म आई थी रईस, इसकी पंच लाइन थी बनिये का दिमाग और मियां भाई की डेयरिंग और नायक हिंसक गतिविधियों में शामिल होता है। जब किसी नकारात्मक विषय पर फ़िल्म बनने लगे और उस पर आपत्ति भी न हो तो समझ लेना चाहिए कि उस समाज में नकारात्मक बातों को किस हद तक स्वीकृति मिल चुकी है, इस तरह की डेयर उपलब्धि नहीं मानी जा सकती। मुस्लिम समाज में दीन को लेकर हर कुछ महीने में कॉन्फ्रेंस होते मिल जाएंगे मगर सामाजिक मसलों पर चर्चा आप शायद ही सुने जबकि धर्म समाज के लिये ही है।पिछले साल सम्भल में इस तरह की कुछ पंचायतें अपवाद ही हैं और इस समाज का कोई अगुआ भी नहीं बोलता। इसलिए दूसरे समाज के लोग और नेता भी चुप ही रहते हैं। बल्कि समाज को अच्छे सामाजिक पहल वाले मसलों पर चुप्प रहने नेताओं को अपना हितैषी तो नहीं मानना चाहिए। अपराधी भी बचने में जोखिम उठा लेते हैं तो क्या उन्हें साहसी कहा जाएगा।
  खैर आते हैं टॉक टू मुस्लिम वाले विषय पर संभवत: ये दूसरे समुदाय से खौफ को एड्रेस करने की कोशिश हो सकती है तो मैं कहना चाहूंगा आदमी हिंसा से डरता है और हिंसा ज्यादा कहाँ है खुद सोचें। इस मसले पर इसी समाज को सोचना पड़ेगा। रही बात भारत की तो इस विषय पर अभियान छेड़ने की जरूरत बहुसंख्यक समुदाय के साथ ज्यादती है। क्योंकि देश की 20% आबादी को कोई दरकिनार कर सके संभव नहीं है। भारतीय मुस्लिमों से बात न किया जाना यह गॉसिप ही है , अभियान शुरू करने वाली गौहर खान जी खुद भी सोचें, उनके कितने हिन्दू परिचित होंगे। फिर गुमराह किसे कर रही हैं। कोई भी आंख बंद कर एक पल के लिए सोचे तो हर हिन्दू के दो चार मुस्लिम दोस्त जरूर होंगे या परिचय होगा या उनसे राब्ता होगा।  संबंध भी ठीक होंगे।
जहां तक मेरे मुस्लिम समाज को खुद से बात करने के लिए कहने की बात है तो उसकी वजह है पिछडापन मगर क्या उसके लिये सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार है मगर गहराई में देखेंगे तो काफी हद तक इसके लिये इस समाज की इलीट  जिम्मेदार है जो खुद आगे बढ़ने के बाद समाज के वंचितों को फालतू की बातों में उलझाए हुए है। इनकी उन्नति के लिये कुछ किया भी नहीं, न विश्व विद्यालय खोले न अस्पताल। ऐसा भी नहीं कि इस समाज में सब गरीब ही हैं, मदन मोहन मालवीय ने तो चंदे से बीएचयू बनवा दिया। रामपुर में जरुर एक विश्वविद्यालय खोला गया मगर इसमें आसपास के गांवों की जमीन कब्जा ली गई और फायदा तत्कालीन मंत्री को पहुंचा। अंदाजा लगाया जा सकता है कि विश्वविद्यालय का मकसद समाज था या व्यक्ति, खैर इसकी जांच चल रही है।
 फिलहाल मुस्लिम समुदाय में आधुनिक शिक्षा को लेकर दिलचस्पी अभी तक जग नहीं पाई है, जबकि हिन्दू समुदाय में दलितों की हालत कभी बहुत खराब थी। आज उनमें उल्लेखनीय प्रगति दिखाई देती है। आज गरीब दलित अगर रिक्शा चला रहा होगा तो भी अपने बच्चे को पढ़ाने की कोशिश करता मिलेगा। ये हाल तब है जब उनके साथ भेदभाव समाज में था कुछ हद तक कह सकते हैं कि हो रहा होगा। मुस्लिम समुदाय को तो अस्पृश्यता का दंश भी नहीं झेलना पड़ा। वो खुद शासक वर्ग से थे अंग्रेजों से पहले उनके शासन का लंबा इतिहास है। अंग्रेजों के दौर में भी इनमें से एक वर्ग काफी अच्छी स्थिति में था जैसा कि इतिहास से पता चलता है।
भारत में तो हिंदू मुसलमान एकमेक हैं उनकी भाषा और अदब तक तो एक जैसी है। लखनऊ में रहने वाला मुसलमान एक पन्ना अपनी स्थानीय उर्दू में लिखे और देखे की उसमें कितने शब्द अवधी के हैं उसे पता भी शायद न हो ऐसे में ही हिन्दू लिखे तो देखे कितने शब्द वो हिंदी के समझता है वो उर्दू फ़ारसी आदि के हैं। फिर टॉक टू मुस्लिम का सवाल ही सवालों में रहेगा। भारत के सभी समाजों की उन्नति की वजह सिर्फ सरकार नहीं है चाहे शिक्षा हो या अन्य मामला उस समाज के लोगों ने भी प्रयास किया है।  ऐसे में मुस्लिम समाज को अपने अगुओ से सवाल करना चाहिए। एक समय हिंदुओं में सती प्रथा, विधवा समस्या जातिपाँति, छुआछूत की बीमारी थी। इसके खिलाफ समाज से आवाज उठी, स्वतंत्र भारत में कानून बने लेकिन ऊपरी विरोध भी हुआ होगा, मगर बहुसंख्यक का समर्थन मिला। इसका काफी असर भी हुआ है। इधर मुस्लिम समाज क्या तैयार होगा इसके लिए, लगता नहीं। राजीव गांधी के कार्यकाल में तलाक़शुदा महिला नूर बानो को गुजारा भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुस्लिम समाज के दबाव में सरकार ने पलट दिया। ऐसे में लगता है कि समाज खिड़कियां खोलने को तैयार है, यह फैसला मुस्लिम महिलाओं को शसक्त करता नतीजा मुस्लिम समाज ही शसक्त होता। जब सरकार तक जिस समाज सर डरती हो उस समाज की ओर से टॉक टू मुस्लिम हैशटेग से अभियान चलाना ज्यादती नहीं तो क्या है। मदरसों के आधुनिकीकरण की बात निकलते ही शक सुबहा सामने आ जाता है मसलन किसी भी नई बात का विरोध तभी तो राजनीतिक दलों को इस समाज को वोट बैंक समझने का मौका मिलता है कोई खुद को मुल्ला मुलायम कहलवाता है, कोई मैं मुसलमानों का हूँ मैं कांग्रेस हूं कहता है मगर इन सब का नतीजा क्या है। ऐसे में समाज को सबसे पहले खुद से सवाल करना होगा ऐसा क्यों है।
   आज हिंदू विवाह अधिनियम पारित हुआ, और ज्यादतर हिंदू की मजाल नहीं होती विवाहिता से पंगा ले और किसी ने लिया तो भुगतता है। मगर आज तक भारत में निकाह, हलाल को लेकर कानून नहीं बन सका क्योंकि इसे तुरंत धर्म से जोड़ दिया जाता है, खूद सोचें कि ये धर्म का विषय है या समाज का और इस पर समाज से कोई आवाज नहीं उठती तो ऐसे बंद समाज से तो दूसरे लोग डरेंगे । मुझे लगता है यहां यही स्थिति है। मैं बीते साल मुरादाबाद में था। वहाँ अमरोहा के मंडी धनौरा तहसील के एक मौलवी के घर एक मुस्लिम परिवार रहता ।दंपति में मामूली बात पर विवाद हुआ और पति ने 3 तलाक कह दिया। जल्द ही पति को होश आ गया मगर मौलवी ने यह बात सुन ली थी। पति कहता रहा कि मैंने गुस्से में कहा मगर मौलवी साहब ने पंचायत बुला ली, वो तो खुद हलाला के लिये तैयार थे। अब बताइये ऐसी स्थिति पर सामाजिक चूप्पी क्या इशारे कर रहा है इसके खिलाफ कोई चर्चा कभी हुई, नहीं। यह खबर अखबार में प्रकाशित हुई है, अब कोई अख़बार पर सवाल न उठा दें क्योंकि संबंधित अखबार की पॉलिसी इस मामले में बेदाग है।
  एक और किस्सा सुनाता हूँ मुरादाबाद मंडल का जिला है संभल। इसमें एक मोहल्ला है दीपा सराय व्यापारिक केंद्र है और मुस्लिम समुदाय के लोग बहुतायत में हैं। एक अपराधी को पकड़ना था, पुलिस की हिम्मत नहीं पड़ रही थी वहां जाने के लिए। बहुत दबाव पड़ने पर कई थानों की फोर्स गई तो घर की महिलाओं ने धर्मग्रंथ की बेहुरमती का आरोप लगाकर पोलिस पार्टी को पीटा और उनको जान बचाकर भागना पड़ा। बाद में हंगामा हुआ फोर्स के साथ एसडीएम पहुंचे तो बवाल देख भागे मगर अर्दली हत्थे चढ़ गया। खूब कूटा गया कई दिन भर्ती रहा , सबसे खराब बात थी कि इस भीड़ की अगुआई महिलाएं कर रहीं थी। नारे भी लगा रहीं थी की दीप सराय को कश्मीर बना देंगे। इन खबरों को स्थानीय प्रेस वाले भी छापने से डरते थे मगर दूसरे अखबारों की प्रतिस्पर्धा और नौकरी की वजह से किसी तरह हिम्मत जुटाते थे। इसलिये बहुसंख्यक से डर का सवाल खुद सवालों में है क्योंकि भीड़ हर जगह है और उसकी शक्ल नही होती।
 मैं ये नहीं कहता कि गोहत्या के नाम पर किसी की हत्या ठीक है, मगर अल्पसंख्यक कम उन्मादी नहीं है और कोई समुदाय दुसरों की खराब बात को बताकर तरक्की नहीं कर सकता उसे तो खुद काम से कम अपने लोगों के लिए अच्छे सामाजिक कार्य करने चाहिए।
 इस्लाम में तो जकात का महत्व खूब बताया गया है और प्रचार भी खूब है, जकात इकठ्ठा भी खूब होता होगा। हिंदुओं के ग्रंथों में भी आमदनी को संभवतः 5 भाग में बांट कर 1 भाग दान के लिये कहा गया है मगर खुद को हिंदू होने का दावा करने वालों को पता होगा ये मुझे नहीं पता। ऐसे में जकात की राशि का शिक्षा स्वास्थ्य आदि सामाजिक कार्यों पर खर्च किया जाय तो हालात में तब्दीली आ सकती है सबसे बड़ी बात सभी पक्ष जिसे अपने धर्म को समझना हो दूसरों से व्याख्या समझने से अच्छा मूल धर्म ग्रंथ की भाषा सीखे और खुद समझें वरना अधजल गगरी छलकत जाय और थोथा चना की तर्ज़ पर नीम हकीम खतरे जान। आपको जाना कहीं है और ये कहीं पहुंचा देंगे और ये अगर कार्य व्यवहार में आया तो दोनों बड़े समुदायों का एक दूसरे को लेकर जो सुबहा है वह भी खत्म हो जाएगा और हैशटैग टॉक टू मुस्लिम की जरूरत नहीं पड़ेगी।




सोमवार, 16 जुलाई 2018

कुछ सवाल न्याय के आंगन से भी

भारतीय न्यायपालिका का गौरवशाली इतिहास रहा है, इसकी निष्पक्षता और निर्णय दुनिया की दूसरी अदालतों के लिए नज़ीर रही हैं। इसलिये दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जहां करोड़ों तरह के स्वार्थ और आकांक्षाओं के बीच किसी संस्थान पर सवाल खड़ा कर दिया जाना आम है, न्यायपालिका विश्वशनीयता की कसौटी पर हमेशा खरी उतरी है, नतीजा जनविश्वास उसके साथ है। यही कारण है कि जब भी न्यायपालिका का दूसरी संस्थाओं से टकराव हुआ, संप्रभु जनता न्यायपालिका के साथ खड़ी दिखाई दी और उसे ताकत दी है। न्यायपालिका ने भी अपने संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाई है।
 मगर, बीते कुछ सालों में न्यायपालिका से जुड़े कुछ ऐसे प्रकरण सामने आए जो इसके स्वर्णिम इतिहास को धूमिल कर रहे हैं। इस पर न्याय के पहरुओं को विचार करना चाहिए। इसमें पूर्व जस्टिस करनन विवाद ने हमारी काफी जग हसाई कराई। ऐसे मामले पर विचार की आज अनिवार्यता है साथ ही उनके आरोपों की जांच भी जरूरी है। खैर इस प्रकरण का पटाक्षेप अवमानना मामले में उनकी गिरफ्तारी से हुआ। लोगों ने सोचा होगा चलो राहत मिली लेकिन फिर कई जस्टिस की ओर से मीडिया में प्रेस कांफ्रेंस कर मुख्य न्यायाधीश पर कुछ विशेष मामले विशेष पीठ को भेजने के आरोप लगाए गए। इसने पूरी न्यायपालिका को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया, जिससे सवाल खड़े करने वाले भी नहीं बच सके। वजह तो इस मामले में राजनीतिक दलों का कूदना था मगर ये जमीन इनको माननीय जस्टिस लोगों ने ही उपलब्ध कराई थी। जनता को जो संदेश मिला साफ था राजनीति न्यायपालिका में प्रवेश कर गई है। क्योंकि जैसा दिखाया जा रहा था कि ये सवाल सिर्फ मुख्यन्यायधीश पर है प्रकान्तर से उन्हें भी आरोपी बना दिया गया जिन जज को तथाकथित विशेष मामले भेजे गए और आरोप लगाने वालों के क्रांति के संदेश को बहुसंख्यक ने शायद ही स्वीकार किया हो।अच्छा होता यह मामला मीडिया में लाने की बजाय आपस में बने मैकेनिज्म से सुल्टा लिया जाता। इन विवादों से कुछ और हुआ हो या न जनता के विश्वास को ठेस जरूर पहुंची है। यही कारण है इस विवाद पर संभ्रांत वर्ग भले ही चर्चा करे जनता में हलचल नहीं हुई।
 एक ऐसा ही मसाला और मुंह बाए खड़ा है जो आदर्श स्थिति से कोसो दूर जा रहा है। वह है उत्तराखंड के मुख्यन्यायधीश की सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति का, कोलेजियम बार बार इनके नाम पर ही अटकी है और केंद्र सरकार अपने कारण गिनाकर उनके नाम पर राजी नहीं है। इससे दूसरे रिक्त पदों पर भी प्रक्रिया अटकी पड़ी है, इस रसाकसी में पीड़ित कौन हो रहा है। क्या कोलेजियम या सरकार, नहीं आम लोग, जो न्याय की आस में उम्र गुजार रहे हैं और जज की कमी से उनके मुकदमो पर फैसला नहीं आ रहा है। न्याय में देरी न्याय नहीं के बराबर खुद कोर्ट ने कई बार दोहराया है फिर इसके जिम्मेदार कौन हैं सभी पक्ष खुद ही बैठकर तय कर लें। क्या इसके लिये जिद जिम्मेदार नहीं है। कोलेजियम किस वजह से सिर्फ उत्तराखंड के मुख्यन्यायधीश को लेकर अड़ा है यह शायद कोलेजियम ही जनता है मगर सरकार ने तो उनके प्रोन्नति पर राजी न होने के तर्क जूनियर होने, क्षेत्रीयता आदि के सार्वजनिक कर दिए हैं। ऐसे में सरकार का पलड़ा तो भारी नज़र आता है, फिर सरकार जनता की प्रत्यक्ष प्रतिनिधि है उसे दरकिनार करना हिंदुस्तान जैसे मुल्क में तो ठीक नहीं। जिद में तमाम दूसरे प्रतिभाशाली जज को अनजाने में ही कमतर आंका जा रहा है।ऐसे में सबसे अच्छा है कि सभी संबंधित पक्ष अपनी गौरवशाली विरासत में कुछ जोड़ें पूर्वजों के लिए अफ़सोस का वायस न बनें, कम से कम जो शपथ लिए हैं उसकी लाज रखें।

बुधवार, 13 जून 2018

भारतीय सेवा के कुछ पदों का विशेषज्ञों के लिए खोलना

भारतीय सूचना सेवा के अफसरों ने देश के लिये काफी काम किये हैं खास कर योजनाओं के क्रियान्वयन में। मगर इस सेवा के लोगों में शिथिलता आती जा रही है, खासकर नवाचार के संबंध में, कोई नया विचार अफसरों की ओर से आता नज़र नहीं आ रहा है जिससे बेहतर भविष्य की उम्मीद की जा सके। ज्यादातर घिसी पिटी परियोजनाएं ही सामने आ रही हैं जो थोड़े बहुत बदलाव से अरसे से चल रही हैं अब देश की जरूरत नवाचार और नवोन्मेष मांग रही है, खासतौर से विशेषज्ञता वाले क्षेत्र में।
  ऐसा लगता है कि तमाम योजनाओं में नवाचार की कमी की वजह अफसरों की सीमाएं हैं, अभी आईएएस बनने वाले अफसरों में बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जिनके पास तकनीकी विशेषज्ञता की कमी है और अब तमाम योजनाओं में तकनीक का इस्तेमाल होता है ऐसे में इसके लिए एक अलग चैनल तैयार करना पड़ा है जो अपने ईगो तालमेल की कमी आदि के कारण या तो नवाचार को सामने नहीं आने देता या फाइल में लटका देता है। इसके साथ निजी क्षेत्र में तम प्रतिभाएं ऐसी हैं जिनके पास नए विचार हैं, इनको सरकार को साथ जोड़ने की जरूरत है ताकि देश को उनका लाभ मिले।
इससे निपटने के लिए केंद्र सरकार ने अच्छी पहल की है। सरकार ने केंद्रीय सेवा के संयुक्त सचिव स्तर के तकरीबन 10 पदों पर सीधी भर्ती की योजना बनाई है, इससे इस सेवा में खुलापन आएगा, विशेषज्ञ नियुक्त किये जा सकेंगे। भर्ती चूँकि संविदा पर होगी इसलिए नौकरी बचाने के लिए इन्हें आउटपुट भी देना होगा।हमारे यहां कार्य संस्कृति ऐसी बन गयी है कि नियमित स्टाफ कार्य करने की कोशिश भी नहीं करना चाहता नहीं तो लोगों दफ्तरों के चक्कर न लगाने पड़ते। उदाहरण सामने है देश में सरकारी विभागों कंपनियों का हाल देख लीजिए वो ज्यादातर नुकसान में ही होंगी वही कर्मचारी निजी कंपनी के कर्मचारी के रूप में कार्य करने लगते हैं तो आउटपुट देने लगते हैं। ऐसा लगता है कि सोच बन गई है कि अधिकार चाहिए बेशुमार काम के लिये न ठहराओ जिम्मेदार।
बहरहाल कुछ विघ्नसंतोषी लोगों को इस पर भी सुबहा है। ये इसको भी आरक्षण से जोड़कर देख रहे हैं मगर प्रशासनिक सेवा पर सवाल तो है। कुछ लोग समझ रहे हैं कि इससे दिक्कत आएगी, मगर मेरा कहना है कि इन विशेषज्ञों के बॉस तो नियमित आईएएस ही रहेंगे हालांकि चैनल काफी ऊपर का होने से सरकार की निगरानी रहेगी और इनकी फाइल आईएएस बेवजह लटका नहीं पाएंगे। इसलिए मुझे तो यह कदम ठीक लगता है। अब भला डीआरडीओ और मेडिकल में कामकाज की जीम्मेदारी इस फील्ड से इतर के व्यक्ति को दे देंगे तो उसका क्या हाल होगा। इस हिसाब से सरकार के इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए। 
रही बात इससे आईएएस के नाराज होने की तो हो सकता है कि ये विचार भी किसी आईएएस का ही हो और यह भी की इसी नाराजगी और कुछ मामलों में अप्रभावी होने की ही वजह से तो सीधी भर्ती की जरूरत पड़ रही है।

गुरुवार, 31 मई 2018

भारतीय राजनीति में बेवजह के विवाद

लग रहा है विवाद करना भारतीय राजनताओं का शगल बन गया है। ताजा विवाद पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की ओर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर कार्यालय में होने वाले कार्यक्रम में स्वयंसेवकों को संबोधित करने का न्योता स्वीकार करने का है। इसको लेकर कांग्रेस के सांसद संदीप दीक्षित ने सवाल उठाए हैं और आलोचना की है। उनका कहना है कि ये उनकी पार्टी की विचारधारा के करीब नहीं है इसलिये पूर्व राष्ट्रपति को वहां नहीं जाना चाहिए। क्या ये देश के उन राष्ट्रपति महोदय की सोच का विस्तार नहीं है जिन्होंने खुद को प्रधानमंत्री का सफाई कामगार तक बता दिया था। कांग्रेस ने स्पष्ट तो कुछ नहीं कहा मगर दीक्षित के बयान को खारिज भी नहीं किया।
ये एक तरह से पूर्व राष्ट्रपति के अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लगाने की कोशिश भी है। यह हाल तब है जब देश में जब तब अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोना रोया जाने लगता है और हस्ताक्षर अभियान चलाए जाने लगते हैं और हस्ताक्षर करने वालों में ये कुछ लोग कॉमन होते हैं।
ये हाल तब है जब हम पाकिस्तान से बात करने के लिये तैयार रहते हैं जबकि वो हमें कितने जख्म देता है। पिछले दिनों पूर्व कांग्रेस नेता मणि शंकर अय्यर के घर पाकिस्तान के शायद पूर्व अफसर के साथ गुफ़्तगू ने खूब सुर्खियां बटोरी थी। अभी पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के पूर्व चीफ दुर्रानी और रा के पूर्व चीफ दुलत की किताब के विमोचन में कांग्रेस नेता पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक शामिल हुए थे। जो चीज हम अपने लिए चाहते हैं वो दूसरों को क्यों नहीं मिलना चाहिए। अलगाववादियों से भी बात करने के लिये होते हैं फिर आरएसएस से जुड़े लोगों से बात न करना एक तरह की असहिष्णुता ही है।
एक बात और कि अगर आरएसएस के किसी भी विचार से आपको इख़्तिलाफ़ है तो उससे बात कर ही प्रभावित कर सकते हैं। फिर जब देश के करोड़ों लोग जिस संगठन से प्रभावित हों या जुड़ें हों उससे

मंगलवार, 29 मई 2018

चुनाव में हार का डर औऱ ईवीएम पर हायतौबा

देश में हर चुनाव में सबसे ज्यादा निशाना ईवीएम आजकल बनाई जा रही है। आमतौर पर चुनाव के बाद अपनी हार की वजह छिपाने के लिए हमारे यहां उसको बलि का बकरा बनाया जाता है। और कई बार पहले से ही इस बात की गुंजाइश रखी जाती है कि जनता द्वारा दरकिनार किये जाने पर ईवीएम को दोषी क़रार दिया जाय।हालाँकि कोई राजनीतिक दल या इस मेधावी देश का एक भी मेधावी इस पर अपने खयाली पुलाव को सिद्ध नहीं कर सका है।।जबकि पिछले चुनाव में ऐसी ही आवाज उठने पर चुनाव आयोग ने गड़बड़ी सिद्ध करने की चुनौती भी दी तंगी।
28 मई 2018 को देश भर में हुए उपचुनावों में खासकर कैराना उप चुनाव जहाँ विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों की इज़्ज़त दांव पर लगी है। इस चुनाव में मतदान से पहले  ईवीएम में जुड़ने वाली एक और मशीन जिसे वीवीपैट कहा जाता है जो मतदाता  को इलेक्ट्रॉनिक रशीद देती है कि  मतदाता ने किसे वोट दिया में कुछ खराबी पाई गईं।संभवतः मशीन चली नहीं इससे मतदान में कुछ देरी हुई मगर राजनीतिक दल ऐसे प्रचारित कर रहे हैं जैसे ईवीएम खराब थी।जबकि वीवीपैट को कुछ देर में बदल दिया गया होगा।
वहीं राजनीतिक दलों खासकर विपक्ष को बैलेट पेपर पर बहुत भरोसा जग रहा है और विपक्ष ऐसा प्रचारित करता है कि जनता को ईवीएम पर भरोसा नहीं है। हालांकि बैलेट पेपर से मतदान लोकतंत्र के लिए ज्यादा अहितकर है। खासतौर से जब हम सुधार का एकचरण पर कर चुके हैं तो दरकिनार कर दिए गए लोगों की चालबाजियों के चक्कर में हमें अपनी चुनाव प्रारणी में अतार्किक छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए।
हालांकि जनता को ईवीएम की खासियत जरूर बतानी चाहिए ताकि वो किसी चालबाजी में न फंसे। फिलहाल बैलेट पेपर से चुनाव में कुछ दिक्कतें हैं। पहला की इससे मतदान में बड़ी संख्या में वोट अमान्य हो जाते हैं क्योंकि अशिक्षित लोग सही से मोहर नहीं लगा पाते।स्याही इधर से उधर लगने या फैल जाने पर ये दिक्कत आएगी।
वहीं इससे वोट में कर्मचारियों पर निर्भरता बढ़ेगी क्योंकि कई बार अष्पष्ट स्याही लगने पर मतगणना कर्मी तय करेगा कि वोट सही है या नहीं अपने विवेक से और देश में डंडे के जोर से ही निष्पक्षता आती है जैसा चुनाव आयोग की कार्यवाही का डर।साथ ही हमारे यहां अशिक्षित लोगों का प्रतिशत काफी है।
वहीं बैलेट पेपर से मतदान और मतगणना में समय ज्यादा लगेगा और ज्यादा समय मतगणना में ज्यादा गड़बड़ी के मौके देगा।फिर बैलेट पेपर के दौर में तमाम बूथों पर बूथ कैप्चरिंग , चुनाव को प्रभावित करने के लिए बैलेट बॉक्स में पानी डालकर दोबारा चुनाव कराने के हथकंडे अपनाने के ये आरोप ईवीएम पर सवाल उठाने वाले विपक्षी दलों के तमाम स्थानीय नेताओं पर लगते रहे हैं। और आपमेंसे कई इसके गवाह होंगे या इसके किस्से सुने होंगे।ऐसे में दरअसल ईवीएम पर सवाल इनकी नीयत पर सवाल है।
मगर चिंताजनक है कि कैराना चुनाव में सत्तारूढ़ दल के लोगों की ओर से भी सवाल उठाए गए हैं हालांकि उनकी ओर से कर्मचारियों पर सवाल उठाए गए हैं मगर खबरों में इस तरह से प्रकाशित किया गया है जैसे उन्होंने भी ईवीएम पर सवाल उठाए हैं जबकि विपक्षी दल भी वीवीपैट की बात कर रहे हैं जो एक अलग मशीनहै।
इसके अलावा मतदान से पहले हर बूथ पर सभी प्रत्याशी के एजेंट की मौजूदगी में मॉक पोलिंग होती है और एजेंट के ओके करने पर मतदान शुरू होता है। ऐसे में गड़बड़ी होने पर पता चल जाएगा। इसलिये स्वार्थ की ख़ातिर संवैधानिक संस्थाओं पर सवाल ठीक नहीं।


रविवार, 27 मई 2018

कहाँ जा रहे हैं हम एक समाज के रूप में

भारत देश विकास के आधुनिक मानकों पर तेजी से बढ़ रहा है, मगर भागदौड़ के बीच हम कुछ खोते भी जा रहे हैं और वो है मूल्य। भारतीय संस्कृति की जो ताकत है वही हम खो रहे हैं। मैं ये सब फिलहाल बहुत ही मामूली परिप्रेक्ष्य में बात करूंगा।
आज से कुछ अरसे पहले हमारे यहां समाज का बड़ा असर था लोग दूसरों के सुख दुख से प्रभावित होते थे और अपने स्तर पर अच्छा और मदद की कोशिश करते थे नतीजतन तमाम धर्मशाला स्कूल आज भी दिखाई देंगे जो लाभ के मद्देनजर नहीं बनाए गए मगर आज ये स्थिति नहीं है।
आज स्वार्थपरता चरम पर है और सब अपने और लाभ के लिये हो रहा है। ज्यादातर लालची ढोंगी और पाखंडी हैं और यह धर्म जाति की सीमा को तोड़कर एक तरह से है। लोगों के पास इतने मुखौटे हैं कि किसी व्यक्ति का असली स्वरूप क्या है कहना मुशकिल है। हाल यह है कि कानून तोड़ना लोगों को रोमांच दिलाता है, हालांकि खुद पीड़ित होने पर यही लोग, कानून न्याय समाज की दुहाई भी देते हैं।
 50 साठ साल पहले देश में इतने धनाढ्य लोग कम रहे होंगे मगर सामाजिक कार्य ज्यादा दिखाई देंगे अब करोड़पतियों की लंबी सूची है और हर कंपनी के लिए लाभ का एक हिस्सा सोसल रिस्पांसिबिलिटी के लिए खर्च का नियम है मगर कोई खर्च करता दिखाई नहीं देता और उल्टा गरीबों के हिस्से का धन लोन के रूप में चुराकर भागने का चलन बढ़ गया है।
 फ़िलहाल मैं इसको जिस बात से जोड़ना चाहता हूं। वो यह है देश में शिक्षा के अधिकार कानून के तहत निजी स्कूलों में गरीब तबके के लिए संभवतः 25 %सीट आरक्षित हैं मगर एक भी स्कूल गरीबों को दाखिला देने को तैयार नहीं दिखते। सख्ती पर गुरुग्राम जिले में इडब्लयूएस में किसी तरह दाखिला दिया मगर अभी भी सैकड़ो बच्चों को टरकाया जा रहा है। किसी को स्कूल के स्तर से कमतर बताया जा रहा है तो किसी पर और कुछ आपत्ति लगाई जा रही है।इधर शनिवार को cbse 12th के परीक्षा परिणाम जारी किए गए तो पुष्पा नाम की छात्रा ने 77% अंक पाये उसको ईडब्ल्यू एस में ही दाखिला मिला था और उसने कालेज का नाम रोशन किया। इससे स्तर की आपत्ति तो सवाल के घेरे में है।ऐसी और भी कहानियां होंगी।
एक और बात मैं एक वीडियो देख रहा था।इसमें सरकारी स्कूल की बच्चियां गीत के माध्यम से गर्भ में बालिका हत्या की समस्या को उठाती हैं और समाज को सोचने को मजबूर करती हैं। इससे पता चलता है कि प्रतिभा संसाधनों की मोहताज नहीं है जरूरत है उसे तराशने की और अपनी जिम्मेदारी निभाने की और इंसान बनने की।

शनिवार, 19 मई 2018

कर्नाटक का नाटक

कर्नाटक का सियासी ड्रामा अपने आखिरी दौर में है। इससे पहले चुनाव प्रचार और उसके पहले जो हुआ शर्मनाक था तो अब जो हो रहा है वह भी खतरनाक है। लोकतंत्र के चोर दरवाजों का जमकर इस्तेमाल हो रहा है। हालांकि समय का फेर तो देखिए कुछ लोगों को उम्मीद नहीं रही होगी कि ऐसा भी समय आ सकता है कि उनके बनाये गलियारे का कोई और इस्तेमाल करेगा और उन्हें न्याय का राग अलापना पड़ेगा। फ़िलहाल आम लोग एक बार फिर सत्ता के लिये हर तरह की अनीति देखने के लिए विवश है।
 फ़िलहाल चलते हैं 2018 के परिणाम पर आम जनता बीजेपी को 104, कांग्रेस को 78, निर्दलीयों को 2, जनता दल एस गठबंधन को 38 सीट दीं। मतलब जता दिया किसी से ज्यादा खुश नहीं है, मगर जैसे हर कर्म का फल भुगतना पड़ता है वैसे जनता के इस निर्णय का फल तो उसे भुगतना था मगर इतनी जल्दी होगा पता नहीं था। अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की खामियां इस क़दर उजागर होगा पता नहीं था। पहले जिसके खिलाफ जनादेश मांगा अब गठबंधन,  फिर राज्यपाल के फैसले औऱ इतिहास का दोहराया जाना सब पर सवाल है।

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

दलित साधु को महामंडलेश्वर बनाने की घोषणा

आज की सुबह अखबार की एक खबर ने बरबस ही मेरी यादों की सुइयों को कुछ पीछे अतीत में पहुंचा दिया।ख़बर कहो या खिड़कियां खोले जाने का उपक्रम, जिसे प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत: जिसका अर्थ सम्भवतः है कि विचारों की खिड़कियां हमेशा खोलकर रखें ताकि दुनिया के हर कोने से सदविचार आ सकें।
    दरअसल, एक घोषणा हुई थी प्रयाग से, यहां अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने यमुना तट पर एक दलित साधु को महामंडलेश्वर बनाने की घोषणा की थी। वैसे तो साधु की कोई जाति नहीं होती, हमारे यहां यही आधार है मगर देश में फिलहाल जो माहौल है और कुछ लोग सत्ता के लिए इस हद तक गिर चुके हैं कि सामाजिक विभाजन का कोई मौका नहीं छड़ते इसलिए जोर देना पड़ रहा है कि सब देख लें उम्मीदें अभी बाकी हैं और सत्ता के स्वार्थ में जिस धर्म और संस्कृति को लांछित किया जाता है अबकी एकता सम्मान की आवाज वहीं से उठी है।
ये सब इसलिए याद आ रहा है कि अक्सर तमाम राजनीतिक लोग दलित साथियों को भड़काया जाता है कि उनकी समस्याओं की वजह उनका धर्म ही है। कुछ घटनाएं हो सकती हैं उस पर कार्रवाई भी होनी चाहिए, मगर इसके पीछे व्यक्ति विशेष की आपराधिक मानसिकता ही मानना चाहिए। अभी मुझे हाल की एक घटना याद आ रही है। दुनिया भर में न्याय का बुनियादी सिद्धान्त है कि 10 अपराधी छूट जाए मगर एक निरपराध सजा न पाए। इसलिये संभवतः कानून की आंखों पर पट्टी बंधी होती है ताकि वह सिर्फ सबूत की बिनाह पर फैसले दे।
इसी मकसद से सर्वोच्च न्यायालय ने एससी एसटी एक्ट के कार्यान्वयन के लिये जांच पर जोर दिया था ताकि अगर ग़लत आरोप लगाए जाएं तो निरपराध को सजा न मिले। मगर तमाम लोगों ने इसे ऐसे प्रचारित किया गया कि जैसे आरक्षण खत्म कर दिया गया और लोगों को भड़काकर देश को ठप कर दिया गया। अब भी इस तरह की कोशिश जारी है। इस माहौल में ऐसे कदम उन लोगों के लिये तमाचा हैं जो सत्ता के लिए सामाजिक विभाजन से बाज नहीं आते और देश हित को तिलांजलि दे देते हैं।
फिलहाल प्रयाग से जो फैसला हुआ है वो हमारे सामाजिक ताने बाने को मजबूत करेगा। उम्मीद करेंगे ऐसे और फैसले अलग अलग क्षेत्रों से आए ताकि ये मिसाल और खबर न हो बल्कि आम बात है। यही देश की एकता अखंडता और हमारी सांस्कृतिक विशेषताओं का अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक लाभ पहुंचना होगा।

सोमवार, 16 अप्रैल 2018

विकास यज्ञ

चहुं ओर विकास के लिए

सरकार ने कथा सुनी

पूंजीपतियों ने किया मंत्र प्रवाह

और अरमान हमारे हवन बने

हम तो  श्रो ता, द्

दर्शक रहे हमको मिला प्रसाद
 


इस यज्ञ का धुंआ यहीं तक फैला

हम देख रहे अपनी ओर शांत आकाश

किसी ने बताया हवा के साथ

तुम्हारी ओर ही आएगा

होगी स्वर्ग कुसुमों की बरसात

बीते दिन पर दिन... अब तो आस भी छूटी

अब ऐसे ही फफक फफक कटेगी रात।।