विचार

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

दिव्य कुंभ : उम्मीद, आकांक्षा, हैरानी का कुंभ


प्रयाग में २०१९ के अर्धकुंभ की तैयारियां जोरों पर हैं। पूरा शहर दुल्हन की तरह सज रहा है। गंगा के पाटों पर पानी के पराभव के बाद रेती अपना वैभव पाती नजर आ रही है और जब देश आम चुनाव के मुहाने पर खड़ा है तो देश के बहुसंख्य समुदाय को प्रिविलेज देती समझी जाने वाली सरकारें क्यों पीछे रहेंगी। मकर संक्रांति पर १५ जनवरी को पहले गंगा स्नान से औपचारिक तौर पर शुरू होने वाले अर्ध कुंभ ने केंद्र की मोदी सरकार को पिछले दिनों लगे चुनावी झटकों को भुलाकर अपनी पिच पर विपक्षियों को खिलाने का मौका भी दे दिया है।

      मोदी ने इस रणनीति पर काम भी शुरू कर दिया है। मोदी अपने कामों की मार्केटिंग खूब करते हैं यह स्टाइल भारतीय राजनीति में नया है। इसके विरोधी भी खूब है तो इस अदा के समर्थक भी कम नहीं हैं। नतीजतन इसके आलोचकों को भी वही करना पड़ता है जिसकी आलोचना करते हैं हालिया कुछ समय से विपक्षी कांग्रेस पार्टी को अपने नेता राहुल गांधी की हिंदू धार्मिक स्थलों में पूजा करने की तस्वीर जारी करना एक बानगी है, जबकि ये नितांत व्यक्तिगत मामला है। मोदी सरकार के आने से पहले इफ्तार के फोटो के अलावा कांग्रेस पार्टी के नेताओं की ऐसी तस्वीर शायद ही दिखती रही हो। लोकसभा चुनाव २०१४ में हार के बाद कांग्रेस की ओर से गठित एंटनी समिति ने भी बहुसंख्यक की भावना की अनदेखी की ओर इशारा किया था लगता है कि कांग्रेस अनमने ही उसके सुझावों पर आगे बढ़ती नजर आ रही है। बहरहाल मोदी ने अपनी स्टाइल में काम शुरू कर दिया है। वैसे तो हर साल प्रयाग में एक माह रुककर आद्यात्मिक उन्नयन के लिए कल्पवास करने और परिवार माया से दूर ईश्वर की पूजा करने काम से कम संसाधनों में करने आते हैं। हर साल गंगा की रेती पर विशाल नगर बसता है और जाति पंथ के भेद रूपी मैल गंगा में ही विसर्जित कर देते हैं। पर छह साल पर लगने वाले अर्ध कुंभ और १२ साल के कुंभ की बात ही अलग है। इसलिए इस बार यहां १० करोड़ से अधिक लोगों के आने की उम्मीद और इंतजाम किए जा रहे हैं। इसके लिए कई काम पहली बार हो रहा है। यह केंद्र की मोदी और उसी पार्टी के योगी सरकार की छवि बदलने का भी मौका है इसलिए आस्था के साथ यह कुंभ उम्मीदों से भरा है। पहली बार कुंभ का लोगो जारी किया गया है। जिसे प्रधानमंत्री ने खुद जारी किया है। पहली बार प्रदेश सरकार की ओर से ५०० बसें चलाई जा रही है जो लोगों को अर्ध कुंभ में आने का निमंत्रण दे रही हैं।

    विभिन्न स्टेशनों पर कुंभ यात्रियों को लाने के लिए बड़ी संख्या में ट्रेन खड़ी कर दी गई है जो यात्री बढ़ने पर चला दी जाएंगी। इतने बड़े मेले के प्रबंधन का अध्ययन करने के लिए वैसे तो हमेशा विदेशी स्कॉलर आते रहे हैं या अपनी रुचि पर मगर रइस बार दुनिया को भारत के आध्यात्मिक वैभव को दिखाने के लिए दुनिया भर के दूतावासों के लोगों को यहां आने के लिए बुलावा दिया जा रहा है। इस बार कुंभ मेला कई ऐसी घटनाओं का भी गवाह बन सकता है जिसकी उम्मीद शायद ही लोगों को हो। आम चुनाव महज कुछ माह दूर होने से इस बार हिंदू समुदाय के मतों के मद्देनजर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और अन्य कांग्रेस नेता और दूसरे दलों के प्रतिनिधियों का आना जाना लगा रहने की उम्मीद है। उम्मीद है कुंभ कुछ ऐसे सामाजिक संदेश भी देगा जो जातियों में बंटे और सामाजिक बुराइयों से घिरे समाज को आगे का कल्याणकारी रास्ता दिखाएगा। दुनिया के लिए भी मंगलकारी होगा। बहरहाल रेती पर नगर बसने से पहले यहां घाटों पर प्रवासी पक्षियों का बसेरा हो गया है जो प्रयाग के सौन्दर्य को इंदिनो बढ़ा रहा है। वैसे भी आयोजन की तैयारियों से लगता है कि कुभ से बढ़ी प्रयाग शहर की शोभा दुनिया को हैरान कर देगी और कुछ खराब घटनाओं के लोग साक्षी रहे होंगे तो विस्मृत हो जाएंगी। चित्रों से दिखाते हैं कैसे चल रही है कुंभ मेले की तैयारी।

रविवार, 16 दिसंबर 2018

एक गांधी जिसे भुला दिया गया


देश के राजनीति में सबसे रसूखदार टाइटिल पर कभी कुछ लिखा गया तो गांधी टाइटिल के कद के आगे सारे बौने साबित होंगे। इस टाइटिल वालों ने देश में वर्षों राज किया है। इंदिरा गांधी तकरीबन 15 साल प्रधानमंत्री रहीं,राजीव गांधी तकरीबन 5 साल प्रधानमंत्री रहे। इससे पहले १७ साल इंदिरा के पिता पूर्व प्रधानमंत्री pt जवाहर लाल नेहरू ने शासन किया। इसके अलावा भी ज्यादातर समय देश की राजनीति में इस टाइटिल का ही प्रभाव रहा। जो फैसले चाहा कराये। बाद में 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे, जिस पर गांधी परिवार का प्रभाव किसी से छिपा नहीं है पर वर्तमान परिवार के ही एक सदस्य बल्कि इनकी बुनियाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के दादा पारसी धर्मावलंबी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और कांग्रेस में भ्रष्टाचार के व्हिसिलब्लोअर, सत्ता तंत्र के रवैये के खिलाफ लोगों की आवाज फिरोज जहांगीर का कोई नाम नहीं लेता। जबकि ये भी कांग्रेस के ही सांसद थे पर सिंहासन खाली करो कि जनता आती है कहने वाले दिनकर की तरह सही को सही और गलत कहने का दमखम रखते थे। इलाहाबाद में इनकी कब्र पर भी शायद ही कोई जाता हो जब परिवार के लोग ही उनका जिक्र नहीं करते तो दूसरा कौन याद करेगा। यह हाल तब है जब इंदिरा राजीव की जयंती और वर्तमान गांधी परिवार के लोगों के जन्मदिन पर बड़े बड़े कार्यक्रम होते हैं। अब तो फिरोज जहांगीर गांधी राजीव गांधी के भाई संजय के बेटे वरुण फिरोज गांधी जो भाजपा नेता हैं के नाम में ही रह गए हैं। कमाल की बात है कि लोकतंत्रिक मूल्यों पर बहस करने वाली भारत की मीडिया और तब से अब तक के विद्वानों को भी इसमें कुछ खास नहीं लगा, इंदिरा पर जीवनी व अन्य गाथा के रूप में तो खूब पन्ने काले किये गए पर उन्हीं के पति का जिक्र करते लेखनी ठिठक गयी और दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। इस सवाल का जवाब तो शायद कभी नहीं मिलेगा की फिरोज में किसी की दिलचस्पी बौद्धिक तबके को क्यों नहीं थी या इसको लेकर दबाव था। या इसके पीछे परिवार के लोगों के दूसरे पक्ष सत्ता की लालसा थी और फिरोज जिस समुदाय से आते थे वोट के लिहाज से हिंदू बहुल देश में मुफीद नहीं थी। देश का मानस बदलने की कोशिश भी जारी थी। आखिरकार फिरोज पर कुछ लिखा तो दूसरे देश के masalan swidish journalist बर्टिल फाल्क ने फिरोज: द forgotten Gandhi men। फ़िरोज़ - द फ़ॉरगॉटेन गाँधी के लेखक बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि "जब मैंने 1977 में इंदिरा गांधी का इंटरव्यू किया तो मैंने देखा उनके दो पुत्र और एक पौत्र और पौत्री थे। मैंने अपने आप से पूछा, 'इनका पति और इनके बच्चों का बाप कहाँ हैं?" जब मैंने लोगों से ये सवाल किया, तो उन्होंने मुझे बताया कि उनका नाम फ़िरोज़ था, और उनकी कोई ख़ास भूमिका नहीं थी। लेकिन जब मैंने और खोज की जो मुझे पता चला कि वो न सिर्फ़ भारतीय संसद के एक अहम सदस्य थे, बल्कि उन्होंने भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने का बीड़ा उठाया था। मेरे विचार से उनको बहुत अनुचित तरीके से इतिहास के हाशिए में ढ़केल दिया गया था। इस जीवनी के लिखने का एक कारण और था कि कोई दूसरा ऐसा नहीं कर रहा था।जिस नेहरू गांधी डाएनेस्टी की बात की जाती है, उसमें फ़िरोज़ का बहुत बड़ा योगदान था, जिसका कोई ज़िक्र नहीं होता और जिस पर कोई किताबें या लेख नहीं लिखे जाते। हालांकि ३१ अक्टूबर २०१८ को Bbchindi.com और कई अन्य वेबसाट ने भी फालक के हवाले से फिरोज गांधी पर रिपोर्ट प्रकाशित की थी । फिरोज की कहानी ८०-९० के दशक की बॉलीवुड फिल्मों सी लगती है। जिसमें दो वर्गों के युवा प्रेम में पड़ जाते हैं। दोनों की सामाजिक आर्थिक स्थिति men kafi अंतर है। इकलौती बेटी के दबाव में दोनों की शादी करनी पड़ जाती है पर इस हार को लड़की का पिता बर्दाश्त नहीं कर पाता पर इसे छिपा लेता है सब चीजोंका दोनों के संबंधों पर पड़ता है। बाद में लड़की पती है का घर छोड़ पिता के यहां आ जाती है। इसके बाद लड़की के पतिं को लेकर तमाम किस्से आने लगते हैं। फिल्म में तो आख़िर मेंसुखंट होता है पर इस फिल्म की कहानी के कई पन्ने गायब हैं। बस इतना पता है कि अपनी मौत से पहले फिरोज इंदिरा सेन्नही मिली। भालेंही इंदिरा ने रा ने फिरोज़ की मौत के बाद एक ख़त में लिखा कि जब भी उन्हें फिरोज़ की ज़रूरत महसूस हुई वो उन्हें साथ खड़े दिखे। दोनों इतने करीब थे फिर दोनों के बीच अलगाव की वजह समझ से परे है। बीबीसी की रिपोर्ट में बतिल फालक बताते हैं कि फ़िरोज़ गांधी का आनंद भवन में प्रवेश इंदिरा गांधी की माँ कमला नेहरू के ज़रिए हुआ था। एक बार कमला नेहरू इलाहाबाद के गवर्नमेंट कालेज में धरने पर बैठी हुई थीं। "जब कमला ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ नारे लगा रही थीं, तो फ़िरोज़ गाँधी कालेज की दीवार पर बैठ कर ये नज़ारा देख रहे थे। वो बहुत गर्म दिन था। अचानक कमला नेहरू बेहोश हो गईं।" "फ़िरोज़ दीवार से नीचे कूदे और कमला के पास दौड़ कर पहुंच गए. सब छात्र कमला को उठा कर एक पेड़ के नीचे ले गए। पानी मंगवाया गया और कमला के सिर पर गीला कपड़ा रखा गया। कोई दौड़ कर एक पंखा ले आया और फ़िरोज़ उनके चेहरे पर पंखा करने लगे। जब कमला को होश आया, तो वो सब कमला को ले कर आनंद भवन गए। इसके बाद कमला नेहरू जहाँ जाती, फ़िरोज़ गांधी उनके साथ ज़रूर जाते।" इसकी वजह से फ़िरोज़ और कमला के बारे में अफ़वाहें फैलने लगीं। कुछ शरारती लोगों ने इलाहाबाद में इनके बारे में पोस्टर भी लगा दिए। जेल में बंद जवाहरलाल नेहरू ने इस बारे में खोजबीन के लिए रफ़ी अहमद किदवई को इलाहाबाद भेजा। किदवई ने इस पूरे प्रकरण को पूरी तरह से बेबुनियाद पाया। यानी ब्रिटेन में पढ़े और उदार नेहरू जी भारतीय समाज दुर्बलताओं से प्रभिवित हुए नहीं बच सके। बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि एक बार स्वतंत्र पार्टी के नेता मीनू मसानी ने उन्हें एक रोचक किस्सा सुनाया था। "तीस के दशक में मीनू मसानी आनंद भवन में मेहमान थे। वो नाश्ता कर रहे थे कि अचानक नेहरू ने उनकी तरफ़ मुड़ कर कहा था, मानू क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई मेरी पत्नी के प्रेम में भी फंस सकता है? मीनू ने तपाक से जवाब दिया, मैं ख़ुद उनके प्रेम में पड़ सकता हूँ। इस पर कमला तो मुस्कराने लगीं, लेकिन नेहरू का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। बहरहाल फ़िरोज़ का नेहरू परिवार के साथ उठना बैठना इतना बढ़ गया कि ये बात उनकी माँ रतिमाई गांधी को बुरी लगने लगी। बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि जब महात्मा गाँधी मोतीलाल नेहरू के अंतिम संस्कार में भाग लेने इलाहाबाद आए तो रतीमाई उनके पास गईं और उनसे गुजराती में बोलीं कि वो फ़िरोज़ को समझाएं कि वो ख़तरनाक कामों में हिस्सा न ले कर अपना जीवन बरबाद न करें। वो किस खतरनाक काम की ओर इशारा कर रहीं थी शायद ही किसी को पता हो पर गांधीजी ने उनको जवाब दिया, "बहन अगर मेरे पास फ़िरोज़ जैसे सात लड़के हो जा एं तो मैं सात दिनों में भारत को स्वराज दिला सकता हूँ।" इससे पहले इंदिरा की मां के निधन के बाद फिरोज इंदिरा और करीब आ गए। बहरहाल १942 में तमाम विरोध के बावजूद इंदिरा और फ़िरोज़ का विवाह हुआ। १२ सितंबर २०१८ को आज तक पर प्रकाशित खबर के मुताबिक फिरोज को गांधी सरनेम इसी दौरान महात्मा गांधी ने ही दिया था। यह एक बड़ी राजनतिक पूंजी थी। हालांकि नेहरू जी इससे ख़ुश नहीं थे। पर महात्मा गांधी के समझाने पर जवाहरलाल नेहरू इस शादी के लिए तैयार हो गए थे और अपनी भावना छिपा ले गए थे। इंदिरा गांधी ने शादी में अपने पिता के हाथ की काती गई सूत की साड़ी पहनी थी। Bhaskar.com par prakashit khabar ke mutabik लेखिका कृष्णा हठीसिंह ने इंदिरा गांधी पर लिखी किताब 'इंदिरा से प्रधानमंत्री' में 26 मार्च 1942 को हुई उनकी शादी का बारी‍की से वर्णन किया है। उन्‍होंने ये भी लिखा है कि जवाहरलाल नेहरू कभी मन से फिरोज को दामाद नहीं मान सके। इसकी वजह का अब अंदाजा ही लगाया जा सकता है। ये वही मानवीय कमजोरियां हो सकती हैं जैसा कि उन्होंने अपनी पत्नी के बारे में किया था। एक तो इंदिरा का फिरोज से उनकी मर्जी के खिलाफ विवाह, दूसरा फिरोज का सरकार की गड़बड़ियों पर बोलना। फिरोज गांधी का जीवन: स्वतंत्रता सेनानी फिरोज गांधी का जन्म 12 सितंबर, 1912 को मुंबई एक पारसी परिवार में हुआ था।उनके पिता का नाम जहांगीर और माता का नाम रतिमाई था। साल 1915 में वे अपनी मां के साथ इलाहाबाद में कार्यरत एक संबंधी महिला के पास आ गए। इस प्रकार उनकी आरंभिक शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई। इलाहाबाद उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों का केंद्र था। युवक फिरोज गांधी इसके प्रभाव में आए और नेहरू परिवार से भी उनका संपर्क हुआ। उन्होंने 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार में भाग लिया और 1930-1932 के आंदोलन में जेल की सजा काटी। फिरोज गांधी 1935 में आगे के अध्ययन के लिए लंदन गए और उन्होंने ‘स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स’ से अंतर्राष्ट्रीय कानून में ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की। बाद में सांसद बने और नेशनल हेराल्ड का कार्यभार भी संभाला। राजनीतिक जीवन: फिरोज गांधी १९५२ से अपनी मृत्यु ८ सितंबर १९६० तक यूपी के रायबरेली से सांसद रहे थे। दोनों के बीच तनाव तब शुरू हुआ जब इंदिरा अपने दोनों बच्चों को लेकर लखनऊ स्थित अपना घर छोड़ कर पिता के घर आनंद भवन आ गईं। शायद ये संयोग नहीं था लेकिन इसी साल यानी 1955 में फिरोज़ ने कांग्रेस पार्टी के भीतर भ्रष्टाचार विरोधी अभियान शुरू किया। इंदिरा गांधी इसी साल पार्टी की वर्किंग कमेटी और कंद्रीय चुनाव समिति सदस्य बनी थीं। उन दिनों संसद में कांग्रेस का ही वर्चस्व था। विपक्षी पार्टियां ना केवल छोटी थीं बल्कि बेहद कमज़ोर भी थीं। इस कारण नए बने भारतीय गणतंत्र में एक तरह का खालीपन था। हालांकि फ़िरोज़ सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े परिवार के करीब थे, वो विपक्ष के अनौपचारिक नेता और इस युवा देश के पहले व्हिसलब्लोअर बन गए थे। इससे फिरोज और इंदिरा के रिश्ते और तल्ख हो गए। फिरोज ने बड़ी सावधानी से भ्रष्ट लोगों का पर्दाफ़ाश किया जिस कारण कईयों को जेल जाना पड़ा, बीमा उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया गया और नेहरू जी के बेहद करीबी वित्त मंत्री टी टी कृष्णमाचारी को इस्तीफ़ा तक देना पड़ा। फ़िरोज़ के ससुर जवाहरलाल नेहरू उनसे खुश नहीं थे और इंदिरा गांधी ने भी कभी संसद में फिरोज़ के महत्वपूर्ण काम की तारीफ़ नहीं की। फिरोज़ पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी पत्नी के ऑथेरीटेटिव प्रवृत्ति को पहचान लिया था। साल 1959 में जब इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि केरल में चुनी हुई पहली कम्यूनिस्ट सरकार को पलट कर वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। आनंद भवन में नाश्ते की मेज़ पर फिरोज़ ने इसके लिए इंदिरा को फ़ासीवादी कहा। उस वक्त नेहरू भी वहीं मौजूद थे। इसके बाद एक स्पीच में उन्होंने लगभग आपातकाल के संकेत दे दिए थे। फ़िरोज़ गांधी अभिव्यक्ति की आज़ादी के बड़े समर्थक थे। उस दौर में संसद के भीतर कुछ भी कहा जा सकता था लेकिन अगर किसी पत्रकार ने इसके बारे में कुछ कहा या लिखा तो उन्हें इसकी सज़ा दी जा सकती थी। इस मुश्किल को ख़त्म करने के लिए फिरोज़ ने एक प्राइवेट बिल पेश किया। ये बिल बाद में कानून बना जिसे फिरोज़ गांधी प्रेस लॉ के नाम से जाना जाता है। इस कानून के बनने की कहानी बेहद दिलचस्प है। फिरोज़ गांधी की मौत के पंद्रह साल बाद इंदिरा ने आपातकाल की घोषणा की और अपने पति के बनाए प्रेस लॉ को एक तरह से कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। बाद में जनता सरकार ने इस कानून को फिर से लागू किया और आज हम दो टेलीवज़न चैनल के ज़रिए भारतीय संसद की पूरी कार्यवाही देख सकते हैं। इसके साथ फिरोज़ गांधी की कोशिश हमेशा के लिए अमर हो गई। इंदिरा की करीबी रह चुकी मेरी शेलवनकर ने मुझे बताया था "इंदिरा और मैं लगभग हर बात पर चर्चा करते थे, ये चर्चा दोस्ताना स्तर होती थी। मुझे लगता है कि हर व्यक्ति को अपनी बात रखने की आज़ादी होनी चाहिए लेकिन वो मदर इंडिया की छवि से काफी प्रेरित थीं। उन्हें अपने हाथ में पूरी ताकत चाहिए थी। वो भारत के संघीय ढ़ांचे के ख़िलाफ़ थीं। उनका विचार था कि भारत संघीय राष्ट्र बनने के लिए अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुआ है।" उन्होंने बताया, "फिरोज़ के विचार इससे अलग थे। 1950 के दशक के दौरान नई दिल्ली में मैं फिरोज़ से केवल दो या तीन बार ही मिली थी। मैं कभी उनके करीब नहीं आ पाई क्योंकि मुझे लगा कि इंदिरा ऐसा नहीं चाहतीं। लेकिन इंदिरा के साथ हुई मेरी चर्चाओं से मैं समझती हूं कि फिरोज़ भारत के संघीय ढ़ांचे के समर्थक थे और ताकत के केंद्रीकरण के ख़िलाफ़ थे" ये स्वाभाविक है कि फिरोज़ गांधी के गणतांत्रिक विरासत को खत्म करने में इंदिरा गांधी ने सफलता पाई। इससे पहले इंदिरा के आनंद भवन चले जाने के बाद उनके प्रेम प्रसंग की अफवाहें भी उड़ी। एक वेबसाइट ke mutabik रशीद किदवई बताते हैं, "अफवाहों में उनके एकाकीपन की भूमिका ज़रूर रही होगी, क्योंकि इंदिरा गांधी दिल्ली में रहती थीं, फ़िरोज़ लखनऊ में रहते थे। दोनों के बीच एक आदर्श पति पत्नी का संबंध कभी नहीं पनप पाया। फ़िरोज़ गांधी स्मार्ट थे। बोलते बहुत अच्छा थे। उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत अच्छा था। इसलिए महिलाएं उनकी तरफ़ खिंची चली आती थी। नेहरू परिवार की भी एक लड़की के साथ जो नेशनल हेरल्ड में काम करती थी, उनके संबंधों की अफवाह उड़ी।" "उसके बाद उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ मुस्लिम मंत्री की बेटी के साथ भी फ़िरोज़ गांधी का नाम जुड़ा। नेहरू इससे बहुत विचलित हो गए। उन्होंने केंद्र में मंत्री रफ़ी अहमद किदवई को लखनऊ भेजा। रफ़ी अहमद किदवई ने उन मंत्री, उनकी बेटी और फ़िरोज़ को बहुत समझाया, ऐसा भी सुनने में आया है कि उस समय फ़िरोज़ गांधी इंदिरा गाँधी से अलग होकर उस लड़की से शादी भी करने को तैयार थे। लेकिन वो तमाम मामला बहुत मुश्किल से सुलझाया गया।" "लेकिन फ़िरोज़ गाँधी के दोस्तों का कहना है कि फ़िरोज़ गाँधी इन सब मामलों में बहुत गंभीर नहीं थे। वो एक मनमौजी किस्म के आदमी थे।उन्हें लड़कियों से बात करना अच्छा लगता था। नेहरू कैबिनेट में एक मंत्री तारकेश्वरी सिन्हा से भी फ़िरोज़ गांधी की काफ़ी नज़दीकियाँ थीं।" "तारकेश्वरी सिन्हा का खुद का कहना था कि अगर दो मर्द अगर चाय काफ़ी पीने जाएं और साथ खाना खाएं तो समाज को कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन अगर एक महिला और पुरुष साथ भोजन करें तो लोग तरह तरह की टिप्पणियाँ करते हैं। उनका कहना था कि लोग हमेशा महिला और पुरुष की दोस्ती को शकोशुबहे की नज़र से देखते हैं।"