विचार

सोमवार, 21 नवंबर 2011

जिंदगी


खुले पन्ने
बिखरे शब्द
धुंधली आकृति
स्याह कागजों में

                 लेखक, पाठक, श्रोता
                 दर्शक न कलाकार
                  बस समय,
                 चौराहे, सनसनाहट
                  आशंका हल नहीं
                   किताब में

                                      अदीप्त, अपठित
                                    संघर्ष, भुलावा, छलावा
                                    प्रेम, नफरत, क्षोभ, हार-जीत   
                                    धोखा, थकन, टूटन, चुभन, अंधेरा
                                    गड्डमड्ड हो रही है जिंदगी
                                    व्याकरण की तलाश में

बुधवार, 10 अगस्त 2011

जनाक्रोश की अभिव्यक्ति सिंघम

अन्ना का आंदोलन, सिस्टम और सिंघम में समानताएं

यह सुखद संयोग है कि देश की धड़कन बन चुके 'भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिलÓ के लिए आंदोलन और अजय देवगन अभिनीत सिंघम फिल्म रीलीज हुई। बारीकी से देखने पर फिल्म के कई किरदार आज के हमारे समाज में घूमते-फिरते दिखाई देंगे।
अन्ना के आंदोलन को देश के लगभग हर वर्ग (भ्रष्टाचारी अथवा उनसे किसी भी तरह का कोई सहानुभूति रखने वालों को छोड़कर) का समर्थन मिल रहा है। उसी तरह सिंघम को दर्शकों ने हाथों हाथ लिया है। कई नई फिल्मों की तरह सरकार के कई हथकंडों को जनता ने (आरोपों और धमकियों को) खारिज कर, अण्णा पर भरोसा जताया है। यह फिल्म करीब दस दिन में ही ६५ करोड़ की कमाई कर चुकी है। इस फिल्म को दर्शकों का समर्थन करवट ले रहे देश के जनाक्रोश की ही अभिव्यक्ति ही है।
अजीब संयोग है कि सिंघम में ईमानदार पुलिस अफसर की आत्महत्या के बाद उसकी पत्नी का सिस्टम और सरकार सपोर्ट नहीं करती, बल्कि मंत्री महिला और उसको वहां तक लाने वाले को बुरा-भला कहता है। वैसे ही आज सरकार उसके मददगार अण्णा और उसके सहयोगियों पर अनेक आरोप लगा रहे हैं। तिल-तिल मरती आत्मा की आवाज किसी ने सुनी तो ङ्क्षसघम (जनता) ने और अण्णा के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट हो रही है। यह जनाक्रोश ही है कि सिंघम में विलन को उसी के हथकंडे से मारने के बाद भी फिल्म को हजारों लोग देखने पहुंच रहे हैं। जनता आज भ्रष्टाचार को किसी भी हालत में खत्म होते देखना चाहती है, हथियार चाहे कुछ भी हो। यह अलग बात है कि इनमें से कुछ सिस्टम से नहीं लड़ सकते थे, कभी न चाहते हुए उसका हिस्सा बना दिए गए थे, या बन गए थे। लेकिन ये अपनी ताकत और इच्छा अण्णा को सौंप चुके थे। जैसी की फिल्म में लोगों ने सिंघम को अपना भरोसा अर्पित किया था।

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

तो क्या लब आजाद होते

मजबूत लोकपाल की मांग को लेकर देश दो फाड़ में बंटता जा रहा है। एक पक्ष अपने लिए देश की संसद से कुछ मांग रहा है तो दूसरा पक्ष इससे अपने 'अहम्Ó से जोड़ कर देख रहा है। गुरुवार को समाजसेवी अन्ना हजारे और उनके साथियों ने लोकसभा में प्रस्तुत कठपुतली और बूढ़े लोकपाल विधेयक को प्रस्तुत करने के विरोध में मसौदे की प्रतियां जलाईं। अब तथाकथित जनप्रतिनिधि इसे संसद का अपमान बता रहे हैं। आजादी से पहले ऐसे ही अंग्रेज भी किसी भी विरोध प्रदर्शन पर ब्रिटेन की संसद और कानून का अपमान बताकर जनप्रतिनिधियों को जेल में डाल देते थे और यातना देते थे। इसके बावजूद जनता और जनप्रतिनिधियों ने संघर्ष का रास्ता चुना और अपने मन और विवेक की बात मानी, जिसका नतीजा निकला, कम से कम हम कहने को तो आजाद हो गए। ऐसे ही अंग्रेजों द्वारा बनाया एक कानून (नमक) को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने १९३० में तोड़ा था। यही नहीं राष्ट्रपिता द्वारा चलाए गए सारे आंदोलन किसी न किसी नीति या कानून के विरोध में ही थे, ऐसे में हम यदि उन गलत कानूनों का मानकर हक के लिए न लड़ते तो शायद ये लब भी आजाद न होते। सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन, असहयोग आंदोलन आखिर किसकी रक्षा के लिए हुए, जो आज लोगों को अपनी बात रखने पर संसद का अपमान होने लगा और फिर तथाकथित जनप्रतिनिधि जन की भावना समझते तो क्या आज मसौदे की प्रति जलाने की नौबत आती, जबकि चर्चा का नाटक महीनों चला।

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

तो इसलिए सिब्बल लोकपाल विरोधी हैं

मजबूत लोकपाल के लिए २०११ में जनता के आंदोलन के खिलाफ, यूपीए सरकार के सबसे मुखर (आंदोलन विरोधी) प्रवक्ता मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ही बनकर उभरे थे। लेकिन अब भ्रष्टाचार की लपटें उनतक पहुंच रही हैं। इस संबंध में सीपीआईएल(सेंटर ऑफ पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन) ने कोर्ट में आवेदन देकर यूएएसएल एग्रीमेंट का उल्लंघन करने पर आरकाम पर लगाए गए ६५० करोड़ के जुर्माने को पांच करोड़ में बदलने का आरोप लगाया है। अब मामला न्यायालय में पहुंचने पर इनकी भूमिका की भी जांच हो सकती है। इसके साथ ही २-जी स्पेक्ट्रम मामले में अटार्नी जनरल जीई वाहनवती की भी मुश्किल बढऩे की संभावना है।

रविवार, 3 जुलाई 2011

लो अब दिल की बात जुबां पर आ ही गई

देश के सबसे ईमानदार नेता और हमारे प्रधानमंत्री ने रविवार को लोकपाल के मुद्दे पर आयोजित सर्वदलीय बैठक में मन को अपने लोगों के सामने खोलकर रख दिया। प्रधानमंत्री का मानना है 'लोकपाल बिल हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में मौजूद अन्य संस्थाओं की तर्कसंगत भूमिका और उनके अधिकार को कोई कमतर नहीं कर सकताÓ। हमारा संविधान एक दूसरे की संतुलन की व्यवस्था पर कायम है। मतलब साफ है सरकार नई पहल नहीं करना चाहती चाहे देश घोटाले दर घोटाले का दंश झेलता रहे। साथ ही सरकार लोगों को धोखा देने के लिए वैसा ही कोई लोकपाल चाहती है। जैसा हमारे संविधान में सीवीसी जैसा सम्मानीय पद है। सरकार ऐसा लोकपाल चाहती है जो बिना दांत का हो और किसी नेता और अधिकारी को केवल उपकृत किया जा सके। बस हिस्सा मिले बस। आज तक इस देश में एक भी बड़े नेता को सजा शायद ही मिली हो। साथ ही आजकल के परिदृश्य को देखकर तो प्रधानमंत्री के कहे एक-एक शब्द सही प्रतीत हो रहे हैं कि हमारी व्यवस्था संतुलन पर आधारित है, सब एक दूसरे को पुष्ट करते हैं, सारे कानून कमजोरों के लिए हैं। वैसे सरकार ने इस बैठक के जरिए एक अपूरणीय शर्त तो थोप दी है, कि सर्वसम्मति से मजबूत लोकपाल का कानून बनेगा। हमें मालूम है हमारे घरों में यदि एक पिता के दो संतान हैं तो उनमें शायद ही किसी मुद्दे पर सहमति बनती हो।

गुरुवार, 30 जून 2011

भारत में नया दर्शन 'दुर्भाग्य जरूरी

किसी भी देश के समाज में शुभ-अशुभ का दर्शन सभ्यता के विकास के साथ ही फल-फूल जाता है। भारत इसका अपवाद नहीं है। जिस तरह समाज में अशुभ और दुर्भाग्य का दर्शन विकसित होता है, इसे टालने के प्रयत्न भी किए जाते हैं। लेकिन भारत का समाज ही शायद इतना भ्रष्ट है कि यहां के प्रधानमंत्री 'दुर्भाग्यÓ पूर्ण कार्रवाई को जरूरी बताते हंै। इससे बड़ा दुर्भाग्य ढूढऩा शायद मुश्किल हो। वह भी उस कार्रवाई का बचाव करने की कोशिश की जा रही है, और उस जनता को धमकी दी जा रही है, जिसे कोई कानून और किसी देश का समाज शक्ति ग्रहण करता है। संविधान की प्रस्तावना के अनुसार जिस संविधान की रक्षा के नाम पर भ्रष्टाचार का विरोध करने वालों को सरकार सता रही है, वह संविधान किसी संसद को, किसी न्यायपालिका को नहीं बल्कि 'आत्मार्पितÓ किया गया है। मतलब संसद और अन्य मशीनरी लोगों के लिए स्थापित हैं। कायरतापूर्ण बर्बर कार्रवाई का बचाव करने से पता चलता है भारत सरकार के प्रमुखों में सीधे ईमानदार भले ही कोई दिखें, उनके पाक साफ होने पर संदेह खत्म नहीं होता।

शुक्रवार, 24 जून 2011

बंट गया देश

इन दिनों एक रेखा से पूरा देश दो धु्रवों में बंट गया है।वह है लोकपाल बिल एक समूह जो कमजोर है ले·िन हौंसले बुलंद है उस·ा नेतृत्व ·र रहे हैं अन्ना हजारे तो दूसरे वर्ग ·ी अगुआ है सर·ार।
पहला समूह संविधान ·े दायरे में ए· ए· मजबूत लो·पाल चाहता है, जिस·े पास भ्रष्टाचार ·ा ·लेजा फाडऩे ·े लिए नाखून और दांत हो तो दूसरा समूह भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों ·ो सुरक्षा ·वच ·े अंदर रख·र उस·ा हर तरह से बचाव ·रने ·ी ·ोशिश ·र रही है। यह भी सर·ार न्यापालि·ा ·ो सर·ार ·ो
इस दरमियान पहला समूह(आम जनता) अपने अगुवा ·े पक्ष में समर्थन व्यक्त ·र चु·ा है तो दूसरा समूह अगुवा पर चौतरफा हमले ·र रहा है जिससे अगुवा ·ी छवि धूमिल हो, ले·िन बहुमत ·ी सर·ार संविधान ·े अनुसार जो जनता से ता·त ग्रहण ·रती है, वह जनता ·ा विश्वास लगातार खो रही है। ·ुछ धर्मगुरु भी सर·ार ·ी ·ठपुतली बन जन आंदोलन ·ो निशाना बना रहे हैं, ऐसे में वे ·हीं नहीं ·हीं अपने ·ो भ्रष्टाचार में लिप्त होने ·ी आशं·ा ·ो जन्म दे रहे हैं साथ ही अपनी विश्वसनीयता खत्म ·र रहे हैं। अब तो जनता बोले आर या पार।
सर·ार द्वारा ·भी इस जनयुद्ध ·ो मीडिया प्रायोजित ·हा जाता है तो ·भी ·ुछ और, ले·िन सवाल यह है ·ि क्या मीडिया अछूत है जो उस·ा प्रायोजित आंदोलन गलत हो जाय या जनता ·ी बात ·रना उसे अस्पृश्य बनाता है, जब·ि मीडिया ·ा दायित्व यही है ·ि जो हो रहा है वह जनता त· पहुंचाया जाय, वह जनता और सर·ार ·े बीच ·ा माध्यम बने। फिर जब चुनाव और अन्य मौ·ों पर जब नेता मीडिया ·ो इस्तेमाल ·रते हैं तब मीडिया इन·े लिए सही क्यों होती है।