विचार

सोमवार, 4 दिसंबर 2023

किसी की आजादी, किसी की बवाल ए जान

 



हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जिसकी कैफियत अजीबोगरीब है। हर आदमी ही सिर्फ खुद को अच्छा सबको बुरा समझने में लगा है। सबको बेतहाशा अधिकार चाहिए और सिर्फ अपने लिए, वे भी जिम्मेदारियों के बगैर। किसी ने सवाल उठाया तो झट से डेविल करार दे दिया, और हर काम में देखिए और धारणा को टेस्ट भर करिए, आपको लगेगा ये घटनाएं तो आपके पास भी हों रहीं हैं। यह सब होता है आजादी के नाम पर, हमारे अपने देश का हाल भी काबिलेगौर है। लेकिन यह किसी की आजादी, किसी की बवाल ए जान न हो जाय..अराजकता की स्थिति न पैदा हो जाय..क्या जरूरी नहीं है एक नियम आधारित समाज बनाया जाय, जिसमें निजता निजी और सामाजिकता प्रखर हो..


मैं शुरुआत करता हूं, उस बात से कि अक्सर आपने लोगों के मुंह से सुना होगा कि संविधान ने हमें अमुक आजादी दी है, लेकिन क्या आपने सुना है कि कोई बता रहा है कि संविधान ने ही उसी अनुच्छेद में आजादी पर क्या बंदिशें लगाईं हैं और नागरिकों के लिए क्या ड्यूटी तय की हैं। 

दरअसल यह बातें करने वाले अभिजात्य लोग आजादी को ढाल के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं, बेपरवाह ताकत भोगने के लिए.. बगैर ड्यूटी के अधिकार मांगने वाला और रिस्ट्रिक्शन का ध्यान न रखने वाले पर सशंकित होना चाहिए.. यह बातें संदर्भ के लिए ही कर रहा हूं...असल चर्चा का मकसद उत्तर प्रदेश में हलाल सर्टिफिकेशन पर प्रतिबंध से जुड़ा है..जिस पर बड़ी बहस छिड़ी है..


बतातें चलें कि पहले उत्पादों पर वेज और नॉन वेज को बताने के लिए उत्पादों पर हरे भूरे रंग के निशान देखा होगा। लेकिन अब विभिन्न उत्पादों पर हलाल लिखे जाने का चलन बढ़ा है, पहले तो हलाल (कुछ संप्रदायों की मजहबी मान्यताओं में उन जानवरों का सिर एक झटके से अलग करने की मनाही है जिनके मांस का भक्षण करना होता है, जानवर को हलाल करने से अर्थ है उसकी सांस नली काट देना और खून धीरे-धीरे बहने देना, शरिया में तो इस काम को मुस्लिम के ही करने की भी शर्त लगाई गई है, जो विशेष इबादत के साथ जानवर को जिबह करेगा, यहूदी भी ऐसा तरीका अपनाते हैं और इसे क्रोशर कहते हैं। हालांकि जर्मनी, बेल्जियम और ग्रीस आदि देशों ने इस पर रोक लगा रखी है ) की चर्चा भक्षण करने वाले मांस के समय होती थी अब हर चीज दाल, अनाज, चाय पत्ती मसाला, फ्लैट के लिए सुनाई दे रही है। 

पता चला कि कुछ निजी संस्थाएं और कंपनियां इससे संबंधित सर्टिफिकेशन, शुल्क लेकर कर रहीं हैं। ये एक खास समुदाय के लिए किया जा रहा है, मतलब भोज्य पदार्थ पर भी धार्मिक छन्नी लगा दिया गया। यह उजागर तब हुआ जब उत्तर प्रदेश में इससे संबंधित एफआईआर दर्ज हुई। लेकिन इसी के साथ कई सवाल भी खड़े हो गए ?  सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि यह प्रमाणन कर कौन रहा है और धार्मिक आधार पर बंटवारे का औचित्य क्या है?


अभी जो जानकारी सामने आई है उसके अनुसार हलाल इंडिया, जमीयत उलमा ए हिंद हलाल ट्रस्ट और हलाल काउंसिल ऑफ इंडिया जैसी संस्थाएं ऐसा काम कर रहीं हैं। अगला सवाल यही है कि उन्हें यह अधिकार किसने दिया और किसी कानून की आड़ में भी कर रहीं हैं तो यदि नियम बनाना, प्रमाणन और जांच करना भी आउटसोर्स कर दिया जाएगा तो फिर हमारी संसद, विधानसभा और सरकारी मशीनरी क्या करेगी। 


यह तो एक तरह से निजी संस्थाओं को समानांतर व्यवस्था चलाने की छूट देना है, क्योंकि खाद्य पदार्थों के प्रमाणन के लिए भारत में पहले से ही एक संस्था है भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण यानी एफएसएसएआई और यहां उसका काम निजी संस्थाएं कर रहीं हैं। 

भारत में एक संप्रदाय की धार्मिक निजी अदालतें भी समय-समय पर सुर्खियों में आती रहीं हैं, क्या संविधान और आजादी की आड़ में असंवैधानिक चीजों को बढ़ावा तो नहीं दिया जा रहा है। क्योंकि संविधान में धार्मिक अदालतों की व्यवस्था तो नहीं है और अब हलाल सर्टिफिकेशन एक नया कदम है।

दूसरा सवाल यह है कि एक बहुलवादी देश में क्या यह उचित है यदि सभी फैसले धार्मिक लिहाज से और गैरकानूनी तरीकों से होंगे तो नियम आधारित समाज का क्या होगा। सभी चीजों पर अन्य संप्रदायों की भी बातें मान लें तो इतने धार्मिक ठप्पे हो जाएंगे कि जानने योग्य बातों के लिए जगह कहां बचेगी। फिर दुष्प्रभाव किसे भुगतना पड़ेगा।


यह कदम सुरक्षा के लिए भी सवाल है, क्योंकि हलाल सर्टिफिकेशन करने वाली संस्थाएं कंपनियों से उनके उत्पादों के लिए मोटी रकम वसूल रहीं हैं, लेकिन वे इस पैसे का क्या कर रहीं हैं, लोगों की चुनी हुई सरकार को ही कुछ पता नहीं है। हालांकि इस्लामी देशों में निर्यात की जाने वाली सामग्री के लिए कंपनियों को हलाल सर्टिफिकेट लेना पड़ता था लेकिन अब घरेलू काम के लिए भी इस तरह की चीजें किसी नई आफत को बुलावा दे सकती हैं। 

सबसे बड़ी बात की प्रमाणन का काम निजी संस्थाओं को कैसे दिया जा सकता है, इस्लामी देशों में भी इस तरह का काम निजी संस्थाएं नहीं करतीं, बल्कि वहां भी सरकारी एजेंसियां ही इस तरह का काम करती हैं। इस आजादी को संवैधानिक दायरे में क्यों नहीं लाया जाना चाहिए।

मंगलवार, 31 अक्तूबर 2023

कांग्रेस की सरेंडर नीति

 


सत्ता की छटपटाहट नेताओं के विवेक को किस तरह नुकसान पहुंचा सकती है. इसका नमूना अक्सर हम देखते हैं. यह लालसा नित नई गहराइयां नापती है. अब देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी की सबसे बड़ी नेता का द हिंदू अखबार में लिखा लेख भी इसी का नमूना है.

वैसे ही सत्ता की अकुलाहट में यह पार्टी पुराने उन सभी अलिखित नियमों को रौंद चुकी है कि विदेश मामलों में सत्ता और प्रतिपक्ष एक पेज पर रहेंगे. पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक के बाद अब फिलीस्तीन इजराइल युद्ध मामले में ग्रैंड ओल्ड पार्टी का रूख उसी कड़ी को आगे बढ़ाता है, जिसमें कांग्रेस की सरेंडर नीति की झलक दिखती है. जिसकी कड़ी आगामी कुछ महीनों में ही आने वाले लोकसभा चुनाव में मुस्लिम वोटों का लालच और विगत में शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने की घटना और इससे पीछे तक जुड़ती है.

देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी गुस्से में है, और इनकी नेता सोनिया गांधी ने द हिंदू में आलेख लिखकर भारत सरकार के उस फैसले की आलोचना और निंदा की है, जिसमें भारत सरकार ने इजराइल और हमास के बीच संयुक्त राष्ट्र में लाए गए युद्ध विराम के प्रस्ताव में वोटिंग नहीं की. इसमें उन्होंने लिखा है कि कांग्रेस वोटिंग के दौरान भारत के गैर हाजिर रहने का कड़ा विरोध करती है, इजरायल फिलीस्तीन के उन लोगों से उस हमले के लिए बदला ले रहा है, जिससे उनका कोई मतलब नहीं है. उसने गाजा पट्टी को डेढ़ दशक से खुला जेल बना दिया है. यह ऐसा समय है जब मानवता की परीक्षा हो रही है.

अब सवाल यह उठता है मानवता की परीक्षा अभी ही क्यों हो रही है, जब इजरायल हमास आतंकियों पर कार्रवाई कर रहा है, हमास से ये लोग शस्त्र छोड़कर बातचीत से मुद्दे सुलझाने की अपील क्यों नहीं कर पाए, आतंकियों को आप क्यों नहीं समझा पाते कि किसी इंसान की हत्या ठीक नहीं है. क्या किसी कौम पर पांच हजार रॉकेट मानवता की रक्षा के लिए दागे गए थे, किसी देश की सीमा में घुसकर वहां के नागरिकों को बंधक बना ले जाना और मानव शील्ड की तरह इस्तेमाल मानवता की रक्षा के लिए किया जा रहा था या हजारों इजरायलियों की हत्या आपके हिसाब से पवित्र कर्म था?

दरअसल, यह कांग्रेस की सरेंडर नीति का ही परिणाम है, कि जब देश की संसद पर आतंकी हमला हुआ, मुंबई में आतंकी हमला हुआ तब भी कांग्रेसनीत केंद्र सरकारें आत्मरक्षा के लिए कोई कदम नहीं उठा सकीं और बातचीत का गाना गाती रहीं. फिर आतंकियों के हौसले ऐसे बढ़े कि वो बनारस में संकट मोचन मंदिर तक विस्फोट से बाज नहीं आए. यह वही सरेंडर नीति है कि जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया तो हम जीत रहे युद्धों के बीच युद्ध विराम कर अपनी जमीन पर एलओसी बनाते रहे हैं.

 दरअसल, यह मानवता इसलिए जगी जान पड़ती है क्योंकि कुछ महीनों बाद लोकसभा चुनाव है और ग्रैंड ओल्ड पार्टी को पता है कि दुर्भाग्यपूर्ण रूप से देश की सेकेंड लार्जेस्ट रीलिजियस पॉपुलेशन का बड़ा चंक धार्मिक आधार पर वोटिंग करता है, अच्छा बुरा तय करता है और इस तरह की चीजों से खुश होता है, भले ही इन बातों का भारत की कम्युनिटी से लेनादेन हो या न हो. देश की सत्ता में आने के लिए कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों को हराकर इसके बड़े हिस्से की जरूरत है. इसी कारण इस कम्युनिटी को बस खुश करने के लिए यह आलेख आया है. क्योंकि कांग्रेस नेता ने देखा होगा कि इजरायल हमास युद्ध के बीच इस कट्टरपंथी वर्ग ने अलीगढ़ से केरल तक विरोध प्रदर्शन किया है. इससे पार्टी को तुष्टिकरण के लिए कदम उठाने की प्रेरणा मिली.

 कांग्रेस नेता का पर्दे की ओट से हमास पर कार्रवाई का विरोध का कदम उसी की अगली श्रृंखला है जब कांग्रेसनीत सरकार मुस्लिम महिलाओं की दशा सुधारने के सुप्रीमकोर्ट के क्रांतिकारी फैसले को मौलवियों की तुष्टिकरण करते हुए उनके पक्ष में संसद से पलट दिया था. 

 

आलेख में कांग्रेस नेता लिखती हैं कि इजरायल उस आबादी से बदला लेने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है जो काफी हद तक असहाय हैं और निर्दोष भी, जैसे कि उनको जंग के मैदान के हालात की संपूर्ण जानकारी हो. हम तो कई दशक से आतंक का दंश झेल रहे हैं, और हमेशा निशाने पर रहते हैं, हमारे साथ भी यही होता है कि आतंकी पहले हमारे लोगों का खून बहाते हैं और फिर उनके संरक्षक यही कहते हैं कि बात करो नहीं तो खून बहेगा. अगर पर्दे की ओट से हम आतंकियों पर कार्रवाई पर सवाल उठाएंगे तो हमारे साथ कौन खड़ा होगा.

भारत सरकार ने वैसे ही अपने पुराने स्टैंड के अनुसार स्वतंत्र फिलीस्तीन राज्य का समर्थन किया है, जो कि उचित है. लेकिन ग्रैंड ओल्ड पार्टी सिर्फ भारत में एक कट्टर तबके को प्रसन्न करने के लिए पुलिसिया कार्रवाई को रोकने जैसा काम करने की कोशिश कर रही है. वरना लेख की जगह उसे सरकार से बात करनी चाहिए थी. आत्मरक्षा का हक तो कानून भी देता है. 

हालांकि इससे सभी सहमत होंगे कि शव किसी पक्ष का हो दुखद हो और ऐसा दुखद दिन न देखना पड़े, और इसके लिए इजरायल को अतिरिक्त सावधानी रखनी चाहिए कि फिलीस्तीन के आम लोगों को नुकसान न पहुंचे. लेकिन कार्रवाई ही रोककर गुनहगारों को बचने का रास्ता देना तो फिर खुद पर आक्रमण का न्योता देना ही है.

बुधवार, 8 मार्च 2023

तब के जयचंद अब के जयचंद


एक जयचंद मध्यकाल में हुआ जिसने पृथ्वीराज के खिलाफ विदेशी आक्रांता से मदद मांगी, दिल्ली पर हमले का न्योता दिया था...उसके बालमन को  ऐसा लगा था की आक्रांता दिल्ली जीतकर उसकी झोली में डाल देगा लेकिन हुआ उल्टा, होना भी यही था...


आक्रांता के एंगल से सोचें तो उसका दोष नहीं लगता उसने तो वही करना था... न तबकी दिल्ली रही न जयचंद... खैर फिर दिल्ली सम्भली...जनता ने अत्याचार सहे उसने सबक सीख लिया जयचंद का कोई नामलेवा नहीं है.. लेकिन जयचंद की सोच खत्म नहीं हुई..कोई नहीं चाहता उसके बीच जयचंद रहे... लेकिन जयचंद की सोच भी नहीं मरती... जैसे नहीं मरी राणा प्रताप और पृथ्वीराज की..


अब भी जयचंद की सोच अंगड़ाई लेती रहती है... हारती है उठकर खड़ी होती है फिर... लेकिन तब तक संघर्ष चलता ही रहेगा जब तक जनता ही इस सोच के खिलाफ न उठ खड़ी हो...


अब समय समय पर ऐसी सोच दिखेगी.. अब राजतन्त्र नहीं है जनता मालिक है.. आज का अभिजात्य कहता भी है लेकिन इसको जीवन में उतारना नहीं चाहता.. अगर जनता मालिक है और जनता ही अपना मुकद्दर या प्रतिनिधि चुन सकती है तो यह मांग जनता से ही होनी चाहिए उसे अपने पक्ष में कंविन्स करना चाहिए न की किसी और ताकत से...


 अगर लगता है की जनता ने जिसे चुना उससे बेहतर आप डिलीवर कर सकते हैं तो आपको यह बात भारत की जनता से कहनी चाहिए अन्यथा यह जनता का अपमान है और वह ऐसे बातों को बौद्धिक समझना छोड़ भी दी है जितनी जल्दी समझ जाएं उतना अच्छा .. न कि यह मांग आप किसी और ताकत से करें और ऐसा आप कर रहे हैं तो दो चीज पक्का कर रहे हैं.. एक आप अयोग्य हैं जनता को कंविन्स नहीं कर पा रहे हैं दूसरा आप को न जनता पर भरोसा है और न लोकतंत्र पर, जनता को लेकर आप छिपी सोच रखते हैं और खुद को कुछ और समझते हैं आप रिगिंग पर भरोसा रखते हैं मानते हैं कि आप के अलावा कोई शासन नहीं कर सकता और न चुन सकता है तभी तो यह मसला भारत से बाहर उठाया जा रहा है.. पुराना जयचंद भी तो यही कह रहा था.. इसीलिए तो विदेशी को न्योता दिया था कि वो आए पृथ्वीराज को हराए ताकि दिल्ली उसे मिल जाय


अब फिर यह सोच सिर उठा रही है...इससे पहले जनता का और पूर्वजों का अपमान (क्योंकि भारत में पढ़े और बिना पढ़े लोगों की सोच को बराबर मानकर ही मतदान चुनाव का अधिकार दिया गया था ) कांग्रेस नेता मणि शंकर अय्यर ने तब किया था जब उन्होंने पाकिस्तान के दुनिया टीवी से कहा था कि पाकिस्तान को भारत से बायलेटरल टॉक करनी है तो उसे पहले नरेन्द्र मोदी सरकार को हटाना होगा और हमें (कांग्रेस )   को लाना होगा. मोदी को हटाए बिना पाकिस्तान से बायलेटरल टॉक मुमकिन नहीं.


अब इसी तरह की बात कांग्रेस के सबसे बड़े नेता ने कैम्बरीज यूनिवर्सिटी में कही है और सबको चाहिए दिल्ली लेकिन जनता नहीं बाहरी ताकत से...

अब कांग्रेस नेता ने भारत में यूएस यूरोप से दखल की मांग की. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने लंदन में इंडियन जर्नालिस्ट एसोसिएशन के कार्यक्रम में कहा कि भारत में लोकतंत्र समाप्त हो रहा है. यूरोप और अमेरिका लोकतंत्र के चैंपियन बनते हैं और भारत में लोकतंत्र खत्म हो रहा है और ये चुपचाप बैठे हैं... माध्यकाल के जयचंद की भी तो ऐसी ही मासूम चाह थी अब देखना है बाहरी ताकतें जनता की सुनती हैं या एक राजवंश के राजकुमार या जनता के ठुकराए सेनापति की और जनता कैसी प्रतिक्रिया देगी.






बुधवार, 1 मार्च 2023

भारत में गहरे तक लोगों में धंसी है सामंती सोच

देश को आज़ाद हुए अरसा हो गया. हमने काफ़ी बुराइयों के खिलाफ प्रगति भी की है लेकिन सामंती सोच को बदलने के लिए न  कोई प्रयास किया गया और न ही ध्यान दिया गया. हाल यह है कि यह समाज में गहरी धंसी हुई है और लोगों को मालूम भी नहीं चलता और स्वीकृति भी दे बैठे हैं. राजा के दैवीय सिद्धांत और विशेष अधिकारों को प्रोत्साहित करता नज़र आता है. यह कहती है कि कुछ लोगों को नियमों से इतर लाभ मिले. हालांकि यहां राजा की जगह देश के अभिजात्य ने ले लिया है. खैर यह पुराने रूप में देखेंगे तो नहीं मिलेगा. यह हाल में एक के बाद एक घटनाओं से देखा जा रहा है.



अभी हाल में अभद्र टिप्पणी के मामले में कांग्रेस नेता पवन खेड़ा मामले में ऐसा ही मुज़ाहिरा हुआ. इनके खिलाफ पीएम मोदी पर अभद्र टिप्पणी मामले में असम में केस दर्ज हुआ है, ये रायपुर अधिवेशन में जा रहे थे तभी दिल्ली पुलिस ने इन्हें असम पुलिस के आग्रह पर रोक लिया इस पर खूब बखेड़ा हुआ, इन्हें कुछ घंटों में सीधे सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल गई, kya एक आम आदमी के इसी तरह के मामले को बिना निचली कोर्ट जाए सुप्रीम कोर्ट आनन फ़ानन में सुन लेता. हालांकि ये मानते हैं कोर्ट को कंविन्स करने के लिए गंभीर मानवीय मूल्य पर खतरा जैसा पेश किया गया होगा.. फिर भी.. फिर तो न्याय की देवी को आंख पर बंधी पट्टी खोल देना चाहिए.


और भी ऐसे मामले हैं जैसे कुछ मीडिया संस्थानों के दफ़्तर में हाल में आईटी सर्वे पर खूब बखेड़ा हुआ, इसे मीडिया पर हमला कहा जाने लगा. इससे पहले कांग्रेस लीडर सोनिया गांधी और राहुल गांधी से ईडी पूछताछ मामले में भी यह दिखा था तब इस घटना के खिलाफ खूब प्रदर्शन हुए थे. ऐसे अनगिनत मामले हैं.यह उसी सोच का नतीजा है कि राजा तो कोई गलती कर ही नहीं सकता या उस पर कोई सवाल ही नहीं हो सकता.


समाज में भी ये आम है कि अमुक ने मुझे ऐसे कैसे कहा, ये तो उसका काम है, वीआईपी कल्चर और लोगों का उसे स्वीकृति देना सब अलग अलग रूप में सामंती सोच का ही परिणाम है.


अक्सर इस पर ये दलील दी जाती है कि छापा उन पर क्यों मारा या जांच के बाद तो कुछ नहीं मिला तो ये नहीं समझ में आता कि जांच ही नहीं की जाएगी तो ये कैसे पता चलेगा कि सब ठीक है. और आपने एजेंसी किसी जांच के लिए बनाई है और वह जांच कर रही है तो उसके लिए उसे अप्रैसिएट किया जाना चाहिए न कि उसकी लानत मलानत करनी चाहिए कि शुक्र है कि उसने अपना काम तो किया. वार्ना उसके मनोबल पर असर पड़ेगा और विशेष लोगों की जांच होनी नहीं चाहिए तो फिर तो एजेंसी ही नहीं बनानी चाहिए. हां ये मांग तो की जानी चाहिए कि एजेंसी के लिए जो प्रोटोकॉल है वह उसे फॉलो करे और आंख पर पट्टी बांधकर सबके लिए एक समान क्या आम क्या खास.. इसमें टाइमिंग का सवाल भी समझ में नहीं आता क्योंकि क्या एजेंसी से भी मुहूर्त देखकर कुछ काम करवाना है क्योंकि तब तो उसे खास समय का इंतजार कराना होगा.




बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

कहानी टीपू की

 


एक समय था गुण के हिसाब से नाम रखे जाते थे. धीरे धीरे लोगों में यह गलतफहमी हुई कि बच्चे का नाम गुणवान व्यक्ति के नाम पर रख दिया जाय तो बच्चा उस जैसा हो जाएगा लेकिन जैसे इस विचार का कोई आधार नहीं था परिणाम भी अनुमान के मुताबिक क्यों होता तभी तो नाम बडेरा दर्शन थोड़ा की विपरीत अर्थ वाली कहावत भी बनी. क्योंकि अच्छे नाम वाले खराब काम करते रहे. या गुणी नाम रखने के बाद भी बच्चे में या तो गुण नहीं विकसित हुए या उसने अवगुण अपना लिए..


ऐसी ही कहानी यूपी के टीपू की है, टीपू को लोगों ने दिलों का सुल्तान बनाना चाहा लेकिन वह क्या से क्या रह गया वह अब भी रसायन और फॉर्मूले की तलाश में है और यूपी इससे आगे बढ़ गया है , टीपू को एक बार यूपी के लोगों ने सुल्तान बना दिया. लेकिन पांच साल तक सुल्तान रहने के बाद भी इंजीनियर लोगों के सपनों को हकीकत नहीं बना सका.. और न टीपू यह समझ सका कि यूपी की सोच बदल रही है..



टीपू को सुल्तान जाति धर्म से परे सोचकर सभी लोगों ने समर्थन दिया था लोगों ने टीपू के साथ सपना देखा था .. लेकिन सुल्तान बने टीपू ने इसे अपनी इंजिनियरिंग का परिणाम समझ लिया और सल्तनत पर अनुवाआंशिक अधिकार..इंजीनियर तब से पहले के अपने पिता के जाति धर्म फॉर्मूले पर चलता रहा, घर की व्यवस्था बिगड़ने लगी और घर तपकने लगा तो जिम्मेदारी आसपास के लोगों पर डालने लगा जबकि जनता कुछ और सोच रही थी .. खैर जनता तो जनता है.. वह इससे ऊब गई.. और बाद में सुल्तान बदल दिया...


अब समय था कि टीपू बदले हुए मिजाज को समझे और खुद को काबिल बनाये...लेकिन टीपू फॉर्मूले के सहारे सल्तनत पाने की कोशिश करने लगा और शिकास्ट के बाद नया फार्मूला...अभी टीपू जिस सोशल इंजिनियरिंग को कर रहा है.. इससे पहले की परीक्षा में इसके उलट भी कर चुका है... मतलब दृढ़ता की कमी 


अब जब सल्तनत की नई परीक्षा नजदीक आ रही है.. क्या टीपू नये फॉर्मूले पर है... सोशल इंजिनियरिंग के इस फॉर्मूले में समाज में विभाजन और एक वर्ग को विलन बताना रसायन है, टीपू के लिए तो सोचना मुश्किल है लेकिन लोगों को देखना होगा कि यदि टीपू की बात मान भी ली जाय तो उनके लिए क्या बदलेगा क्योंकि टीपू तो हारा खिलाडी है और उसकी हर थियारी में पेच है ...



तभी तो वो बातें उठ रही हैं जो समाज में भी उस तरह नहीं हैं.. जैसा टीपू बता रहा है.. और समाज जिसे भूलाना चाहता है और ऐसा करने वाले उसके मोहरे को उसका संरक्षण है..क्या टीपू जिसे विलन बताना चाह रहा है उसका सही मूल्यांकन कर पायेगा और उनके बराक्स अपने को कहीं खड़ा पाएगा... क्योंकि जब टीपू को मौका मिला तो उसने क्या किया...


शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

क्या राहुल गांधी चाहते हैं सवालों के जवाब

आजकल हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और अडानी ग्रुप के शेयर में गिरावट के बाद देश के सियासी हलके में हंगामा बरपा है. ये और बात है जब मैं कुछ लिख रहा हूं तब कंपनी झटकों से संभालने भी लगी थी.


जनता के हाथों अपनी सत्ता गँवाने के बाद 2014 से ही कारोबारी घराने अडानी और अंबानी पर खफा कांग्रेस पार्टी और उसके अघोषित नायक को तो मन मांगी मुराद मिल गई. उसके हमले प्रेस और संसद के भाषणों में होने लगे.

 हालांकि  अडानी ग्रुप ने हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को ख़ारिज किया है और उस के खिलाफ कोर्ट जाने की भी तैयारी है, लेकिन कारोबारी घराने की कौन सुनता हमारे समाज  में आरोप लगा नहीं कि आप गुनहगार हुए का रवैया है, वो भी चुनिंदा केस में ये फार्मूला लागू करने के लिए न्याय के झंडाबरदार ही खड़े रहते हैं (तब तो जरूर जब आरोप तथाकथित दुश्मन जैसे अडानी पर लगा हो ). वही हाल यहां भी है, चाहे इसका साइड इफ़ेक्ट जो भी हो.



खैर अडानी ग्रुप का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया है, सुप्रीम कोर्ट ने जाँच कराने और शेयरधारकों का हित सुरक्षित रखे. कोर्ट ने याचिका भी स्वीकार कर ली है. जिसकी जाँच फैसले आदि का इंतजार करना होगा. बैंको, सेबी, आरबीआई ने भी हालात की समीक्षा की है और मामले पर नज़र रखे हुए हैं. खैर मामला साफ रहे तो अच्छा है.


लेकिन संसद, भाषण और मीडिया में अडानी छाए हैं. कांग्रेस के नायक इसके लिए बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान हमलावर रहे. सरकार पर गंभीर आरोप लगाए, सदन में नारेबाजी भी की, और ऐसा दिखाने की कोशिश की कि  भारतीय उद्योगपति देश का दोस्त नहीं हो सकता है. 


यह कहते वक़्त हम इसको नज़रअंदाज़ करते रहे कि यह कहकर हम भारत के निर्माण के उन स्वप्न दृष्टाओं का अपमान करते रहे जिनकी वजह से आज हम यहां है, वो है भारत का हर नागरिक भारतीय.. और जिनको ढाल बनाकर हम सत्ता भी पाना चाहते हैं... जिसको हम आज के भारतीयों से भारत के लिए ज्यादा समर्पित ज्यादा योग्य और भारत व भारतीयों के प्रति ईमानदार लोगों ने भी उद्योगों और उद्योगपतियों को दुश्मन नहीं माना था तभी हमने सम्यवाद के गुजरे ज़माने में भी जो इसके चमकने का समय था तब भी मिश्रित अर्थव्यवस्था प्रणाली को चुना, वहीं स्वतंत्रता संग्राम को मदद देने में उद्योगपतियों व्यापारियों साहूकारों के योगदान को कृतघ्न और स्वार्थी बेईमान ही भुला सकते हैं जिस तरह का समाज बनने के लिए हम उत्सुक दिख रहे हैं.


खैर हम लौटते हैं मूल बात पर, जिसमें कांग्रेस के नायक ये आरोप लगा रहे हैं कि सरकार उनके सवाल का जवाब नहीं दे रही है, लेकिन यहां एक सवाल ये है कि क्या वाकई वे अपने सवालों का जवाब चाहते भी हैं या सिर्फ माहौल बनाने के लिए आँखों का एक धोखा बस क्रिएट करना चाहते. क्योंकि जवाब के लिए सही जगह और मंच चुनना भी जरूरी है.


सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर करने के उपाय कम नहीं है बशर्ते जवाब चाहने का मकसद हो. जैसे  इस सवाल का जवाब मीडिया से पूछने बताने की जगह संसद को चुनना चाहिए. मौका राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव की जगह प्रश्नकाल को चुनना चाहिए जिसमें मौखिक की जगह तरंकित लिखित सवाल भी पूछ सकते हैं, माध्यम तो कोर्ट भी हो सकता है जिसके जरिये सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर किया जा सकता है ताकि  दुष्यंत के शब्दों में हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं बस कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए सोच  का पता चले.


लेकिन यहीं कांग्रेस नायक और कांग्रेस पार्टी पर सवाल खड़े हो रहे हैं कि क्या वे इन सवालों का जवाब चाहते भी हैं या नहीं. क्योंकि इतने ऑप्शन के बाद भी इनको अपनाने की जगह शोर मचाया जा रहा है.