विचार

सोमवार, 30 सितंबर 2019

किसान



गर्मी की दोपहरी में

  दूर कहीं धूप में
  जहां आग है बरस रही
  एक आकृति हिलती- डुलती है
  पकड़े हलों की मूठ हाथ में

   जल रहा है पेट की आग से
   उसका खून ही पसीना बन टपक रहा
  तन पर चीथड़े हैं उस पर भी
  सूर्य की तपन का क्रोध
  धरती भी उसी को जलाकर प्रतिशोध ले रही

  तपती लू को झेलते
  इस आस में भर पेट रोटी मिलेगी
  अगले साल किसी पेड़ की छाह में
  इस विशाल नभ के नीचे
  इस हत भाग्य को
  सपनीली दीवारों पर
  मिलती यही अलौकिक छत है।

सर्दी में

   जाड़ों में जब हम घरों में बैठे होते हैं
   हीटर, आग के पास बैठे कांप रहे होते हैं
   पानी को बर्फ समझ छूते हैं
   हाड़ कंपा देने वाली ठंड में

   किसान कुछ चीथड़े पहने
   खेतों में सिंचाई की क्यारियां बनाते
   पानी में ही खड़ा रहता है ठिठुरते कंपकंपाते
   घर से दूर कहीं सेंवार में

   इस समय भी साथ देते हैं उसका
   वही मरते मिटते सुनहरे सपने
   दिन हो या रात में

बरसात में

    जब हम वर्षा की फुहारों का इंतज़ार करते हैं
   किसान भी इंतज़ार करता है आशा भरी बूंदों की
  पर वर्षा की बूंदें खपरैलों छप्परों से टपकती
  वजूद को झकझोर छोड़ जाती है रीता

   बादलों के गर्जन और बिजली की तड़प
  बढ़ाती है किसान की आस और विश्वास को
  लहलहाती फसलों से आह्लादित
  फसलों के पकने का इंतज़ार करता है


  तैयार फसल से निकला अनाज
  तमाम कर्जों और सूदों को चुकाने के बाद
  कुछ दिनों की खुशियां दे पाती हैं
  भूख मिटाने वाला भूखा सोता है
  जीवनदाता भूखों मरता है
  अगले वर्ष फिर शुरू होता है
  वही अंतर्द्वंद्व और अंतर्विरोध।





गुरुवार, 19 सितंबर 2019

किसान का दुख


२००७ से पहले इलाहाबाद में लिखी मेरी कविता जिसमें किसान की सोच को मैंने आज के हालात में समझने की कोशिश की थी, जो अब भी कमोबेश वहीं हैं।
 –-----

     देखो-देखो फूटी विकास की चिंगारी 
    हो गई मेरी छप्पर राख।
    मुझमें से ही किसी से विकास का गुणगान कराया 
  देने लगे मुझे "राख का प्रसाद"।।

 कौन दिखलाये रास्ता, कौन दे हमें सहारा।
 आंखों से छलके आंसू,दिल से निकली आह
एक आंखों की हद में सूखी, दूसरी लौट आई मेरे पास।।
 
   एक मन जलाए, दूजी तन जलाए।
  मेरी छटपटाहट कौन समझे, कौन समझाए।।
  मेरे आंसुओं की है क्या कीमत।
  जब मेरी पीड़ा कुछ को सुख दे अनमोल।।


 फिर कोई क्यों पसीजे, दुनिया चलती अपनी राह ।
है मुझको क्या अधिकार, कथा कहूँ अपनी दुनिया की
जो हुई मेरे देखते तबाह।।


  जमीन पुरखों की थी चली गई। दर-दर रोटी को भटकूँगा। क्या मुझको मिलेगा काम।। न जाने कब इस टीस संग मुझको मिल पाए आनंद "विश्राम"।

रविवार, 15 सितंबर 2019

बाजार के भरोसे हिंदी

   
१४ सितंबर यानी राजभाषा दिवस पर शनिवार को देश भर में एक तरह से कर्मकांड हुए। सरकारी दफ्तरों, स्कूल, कॉलेजों में कविता, कहानी के कार्यक्रम और गोष्ठी होंगी और पखवाड़ा पूरा होने के बाद साल भर तक के लिए छुट्टी, बीच में एक आध आपस में पत्र लिखकर कर्तव्य की इतिश्री। ये ऐसा ही है जैसा हर साल हम पितृ पक्ष में पितरों का बिना किसी समझ, सोच और भावना के पिंडदान और तर्पण कर देते हैं नतीजा वही ढाक के तीन पात होना ही था, इसीलिये हिंदी भाषी राज्यों में भी पूर्ण रूप से ७२ साल बाद भी हिंदी में कामकाज शुरू नहीं हो पाया है और कामकाज पर अंग्रेजी का दबदबा है, जहां अगर गैर हिंदी भाषी राज्य या अफसर या विदेशी प्रतिनिधि से ही बातचीत के लिए दूसरी भाषा की जरूरत है। दरअसल एक दौर में अपने अभिजात्य के प्रदर्शन और बहुसंख्यक से खुद को अलग दिखाने के लिए अफसर और बड़े लोगों में फारसी बातचीत की रिवायत थी, बाद में यह जगह अंग्रेजी ने ले ली। आज के अफसर भी इस सोच से अभी उबर नहीं पाए हैं। 
     अब तो हिंदी का नाम लेते ही बवाल होना आम है। हाल में हिंदी को लेकर गृहमंत्री अमित शाह के बयान,हिंदी ही पूरे देश को एकजुट रख सकती है के बयान पर बवाल इसकी बानगी है जिसमें पश्चिम बंगाल तेलंगाना और तमिलाडु में विपक्ष के नेताओं और कुछ स्वनामधन्य पत्रकारों ने भी हंगामा किया है जिन्हे अनावश्यक ही देश की विविधता को लेकर डर सताता रहता है। जबकि दक्षिण के विद्वानों समेत तमाम लोग ऐसी बात सालों पहले कह चुके हैं। ये जमीन इसलिए इन्हे मिल पाई है क्योंकि सरकारी स्तर पर हिंदी को प्रतिष्ठित करने की जिम्मदारी जिस पर थी वो इसे नहीं कर पाए और अफसर इस तोहमत से तोहमत से बच नहीं सकते। आइए देखते हैं कुछ विद्वानों के विचार –

भाषा के उत्थान में एक भाषा का होना आवश्यक है। इसलिए हिन्दी सबकी साझा भाषा है। 
- पं. कृ. रंगनाथ पिल्लयार

मैं मानती हूं कि हिन्दी प्रचार से राष्ट्र का ऐक्य जितना बढ़ सकता है वैसा बहुत कम चीजों से बढ़ सकेगा। 
- लीलावती मुंशी

हिन्दी का पौधा दक्षिणवालों ने त्याग से सींचा है। 
- शंकरराव कप्पीकेरी

राष्ट्रभाषा हिन्दी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है। 
- अनंत गोपाल शेवड़े 

दक्षिण की हिन्दी विरोधी नीति वास्तव में दक्षिण की नहीं, बल्कि कुछ अंग्रेजी भक्तों की नीति है। 
- के.सी. सारंगमठ

हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। 
- वी. कृष्णस्वामी अय्यर

हिन्दी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है। 
- माखनलाल चतुर्वेदी

हिन्दी भाषा के लिए मेरा प्रेम सब हिन्दी प्रेमी जानते हैं। हिन्दी भाषा का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है। अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता-समझता है। 
- महात्मा गाँधी

हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य को सर्वांगसुंदर बनाना हमारा कर्त्तव्य है। 
- डॉ. राजेंद्रप्रसाद

हिन्दी का काम देश का काम है, समूचे राष्ट्रनिर्माण का प्रश्न है। 
- बाबूराम सक्सेना

     भारत में हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए बने संगठनों का परिणाम आधारित आंकलन करें तो नतीजा इसके उलट शायद ही आये। इसलिए हिंदी की हाय तौबा के बीच हमें इस राजभाषा दिवस पर क्या खोया क्या पाया का मूल्यांकन करने और जिम्मेदारों के काम का आकलन करने की भी जरूरत है। मैं राजभाषा विभाग की वेबसाइट www. rajbhasha.in देख रहा था, जिसमें उन्होंने अपने काम का बखान किया है। यह विभाग १९७८से एक त्रैमासिक पत्रिका प्रकाशित करता है राजभाषा भारती प्रकाशित करता है, दावा किया गया है कि केंद्र सरकार के कार्यालयों में इसे हिंदी के प्रचार के लिए बांटा जाता है खैर मैंने तो तब जाना जब खोजते खोजते वेबसाइट पर पहुंचा। ये और बात है कि सरकारी दफ्तर में पत्रिका बांटने से कितना प्रचार हो सकेगा, गैर हिंदी भाषी आम लोगों के जुड़ाव के लिए क्या किया। आज के बाज़ार से ही सीख लेते हिंदी भाषा पर केबीसी टाईप सीरियल ही चलवा देते तो भी कुछ भला हो जाता। खैर ये हिंदी के प्रसार के लिए सरकारी प्रयास की बानगी भर है,दूसरे प्रयास भी मिलते जुलते ही हैं । इसलिए परिणाम भी हमारे सामने है।
     खैर हर जगह अंधेरा ही नहीं है, उम्मीद अभी भी बाकी है। प्रसिद्ध कवि नाजिम हिकमत की कविता का अंश सबसे खूबसूरत दिन अभी देखा नहीं मैंने और जॉन मिल्सान का कथन हर बादल में आशा की एक किरण होती है यही भरोसा दिलाते हैं। रफ्ता रफ्ता बढ़ रही Hindi इसको पुष्ट भी कर रही है। देश और दुनिया की बड़ी आबादी नौकरी रोजगार और सांस्कृतिक समागम के लिए हिंदी को सीख रही है। यही वजह है कि दक्षिण भारत और अन्य हिस्सों से आन्योत्तर भारत आने वाले लोग आसान हिंदी सीख ही रहे है, हिंदी का सार्वजनिक विरोध के बाद भी गैर हिंदी भाषी राज्यों खासकर तमाम निजी स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जा रही है, जनसंपर्क की एक बड़ी भाषा सीखने का उन्हें लाभ भी मिल रहा है हिंदी भी बढ़ रही है दुनिया के दूसरे देशों के लोग भी ऐसा ही कर रहे हैं नतीजतन आज संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिंदी में अपना ट्विटर हैंडल भी शुरू किया है और इनकी ओर से हिंदी में न्यूज बुलेटिन भी शुरू किया गया है। हिंदी दिवस पर २०१९ में दैनिक भास्कर अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुतबिक़ बीते चार दशक में हिंदी बोलने वाले 19% बढ़े हैं। अकेले10 साल में हिंदी भाषी 10 करोड़ बढ़ गए। जबकि इसी दौरान अन्य 9 भाषाएं बोलने वालों की संख्या घटी है। यह बातें उम्मीद की किरण दिखाती हैं।
    अफसोस की बात है कि उत्तर भारत में अभी बच्चों को एक और भाषा सिखाने की भले ही दक्षिण की ही सही दृष्टि शिक्षण संस्थानों में विकसित नहीं हो पाई है इससे रोजगार के अवसर भी विस्तृत होते देश का एकीकरण भी मजबूत होता पर सुकून यही है कि पांव पांव चलते बाज़ार संस्कृति और संख्या के भरोसे हिंदी बढ़ रही है। हिंदी सिनेमा का इसमें बड़ा योगदान है। आज दक्षिण भारत,पश्चिम भारत,पूर्वोत्तर और अमेरिका यूरोप के लोग तक इस उद्योग से जुड़ रहे हैं और इस बाज़ार से संवाद के लिए हिंदी सीख रहे हैं जो भविष्य को लेकर उम्मीद बांधती है। इसे इनके विचारों से समझा का सकता है।

हमारे देश में हिंदी हमारी फिल्मों के चलते ही बची हुई है। मैं न्यूयॉर्क में था। वहां एक अफगानी ने मुझसे हिंदी में बात की। वह इसलिए कि वह हमारी फिल्मों का बहुत बड़ा फैन रहा है। जर्मनी में एक व्यक्ति हिंदी गाना गाते हुए दिखा। हिंदी फिल्मों के कारण हिंदी स्प्रेड हो रही है।
- मानव कौल, अभिनेता

मैं जब इटली से इंडिया आई, तभी जरूरत महसूस हुई कि हिंदी सीख लेनी चाहिए। मेरे खयाल से बॉलीवुड में हिंदी भाषा आना बहुत ही आवश्यक है। मैं आज भी हिंदी के नए शब्दों को सीखती हूं। मुझे हिंदी भाषा समझने और लोगों को अपनी बात समझाने में 5-6 महीने का वक्त लग गया। हिंदी सीखने के लिए किताबें पढ़ने के साथ-साथ लिखना और पढ़ना अपनी टीचर अपर्णा से सीखा।
- जॉर्जिया एंड्रियानी, इटली में जन्मी और वहां पली-बढ़ी

शनिवार, 27 अप्रैल 2019

नारे : मौत के सौदागर से चौकीदार चोर है तक


कोई आंदोलन हो चुनाव , अपने समर्थकों को प्रोत्साहित करने उन्हें एकजूट रखने और प्रतिद्वंद्वयो को पस्त करने व उनके समर्थकों को अपने पक्ष में लाने में अहम भूमिका होती है। आधुनिक दौर की बात करें तो कई नारों का दांव पलट गयया। ऐसा ही चर्चित नारा था मौत का सौदागर गोधरा कांड की छाया में गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों के चलते तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष ने उस समय के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ये कहा था, जिसे उन्होंने गुजराती गर्व पर हमला की बात समझा कर बड़ी जीत हासिल की। यह क्षमता ही नरेंद्र मोदी को आज के राजनीतिज्ञों से आगे लाकर खड़ा कर देती है। इसके लिए उन्होंने विश्वसनीयता अर्जित की है। एक वक्त राजग की ओर से दिया गया इंडिया शाइनिंदग का नारा भी लोगों की समझ में नहीं आया था और नैरा देने वाले दल को हार का सामना करना पड़ा। इस लोकसभा चुनाव में भी एक नारे की परीक्षा होनी है 【चौकीदार चोर है】। कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पर हमले के लिए खास तौर पर इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। इसकी काट के लिए बीजेपी की ओर से मैं भी चौकीदार हूँ नारे से जवाब दिया जा रहा है इसमें एक पेशे की कांग्रेस की ओर से तौहीन किये जाने के तौर पर दिखाया जा रहा है। इसमे कोशिश है कि चौकीदारी करने वाले लोंगो को अपने पक्ष में उनके गर्व को भुनाना है। इससे पहले चौकीदार चोर का नारा मोदी के चौकीदार बताकर ईमानदारई दिखाने की कोशिश थी, जिसका एक सिरा पिछली यूपीए सरकार तक जाता है जो भ्रष्टाचार को लेकर बदनाम हो गई थी, इसी की काट के लिए कांग्रेस की ओर से नारा दिया गया था। अब देखना है कि किसकी बात लोगो को समझ मे आती है। इस पर संभव है शोध हो कौन सा नैरा असफल हुआ और क्यों।

आधे देश में मोदी के इर्द गिर्द लड़ा जा रहा है चुनाव


देश नई लोकसभा का गठन करने की ओर धीरे धीरे आगे बढ़ रहा है। तीन चरण का मतदान हो चुका है चौथे चरण में लोग २९ अप्रैल को अपने सांसद के लिए वोट करेंगे पर माफ कीजिएगा इस चुनाव में ऐसा होता नहीं दिख रहा है। देखने में यह आ रहा है पूर चुनाव एक व्यक्ति के इर्द गिर्द लड़ा जा रहा है मोदी। पूर्व से पश्चिम और उत्तर के राज्यो में यही हाल है। या तो लोग मोदी के पक्ष में हैं या विरोध में। मैं इसे राजनीतिक ध्रुवीकरण कहूँगा, जब से होश संभाला है पहले कभी नहीं देखा। 2014 में भी इतना जबरदस्त बिभाजन समाज में नहीं था। हालांकि इसमें भी उम्मीद कि किरण यह है कि इसमें भी जाति और धर्म की दीवारें दरकी हैं यहां तक कि घरों में भी और पीढ़ीगत बिभाजन सामने आया है हाल यह है एक ही परिवार के वोट अगर दो तरह से मोदी के पक्ष और विरोध में पड़ जाय तो आश्चर्य नही होना चाहिए । पश्चिम यूपी में ऐसा नज़र आया है कि एक ही परिवार में बुजुर्गों ने गठबंधन का साथ दिया पर बच्चों ने गुरिल्ला पद्धति से कमल खिला दिया। बिभिन्न जातीय और धार्मिक समूहों ने भी ऐसा किया कुल मिलाकर जाति के नाम पर वोटिंग का रोग भी कमजोर हुआ है। भविष्य में हो सकता है संचार के विद्वान या कोई और इस पर शोध करे कि भारत जैसे विविधता वाले देश में ये कैसे संभव हुआ पर फिलहाल ऐसा है और दोनों तरह के लोगों की तादाद अच्छी खासी है और मुकाबला दिलचस्प। इसको एक रेखीय अध्यक्षात्मक प्रणाली अपनाने जैसा है। एक रेखीय इसलिये कह रहा हूँ कि भारत में संसदीय शासन प्रणाली है जहां हैम सांसद चुनते है और वो प्रधानमंत्री और अध्यक्षात्मक प्रणाली में लोग सीधे प्रधानमंत्री राष्ट्रपति चुनते हैं बाकी चीजें ये चुनते हैं । भारत मे अनौपचारिक रूप से लोग के प्रधानमंत्री चुनने का पैटर्न दिखा रहे हैं मोदी के पक्ष वाले, विरोधियों में चूंकि ऐसा नहीं है मोदी विरोधी दल और सांसद प्रत्याशी भी देख रहे हैं इसलिए मैंने एक रेखीय कहा।हाल यह है कि मोदी के पक्ष वालों को जो भाजपा को वोट देकर आये हैं या देनेवाले हैं अपने उम्मीदवार का नाम न बताएं तो ताज्जुब नही होना चाहिए। कुल मिलाकर यहां पार्टी और संगठन भी गौण नज़र आ रहे हैं। इसे लहर नहीं कहें तो और क्या कहें। हालांकि मोदी को शिकस्त देने के इच्छुक लोग भी उतने ही एकजुट हैं। इस तरह कुर्सी का फैसला अब संख्या पर निर्भर करेगी और दूसरे हितग्राही समूहों पर हालांकि इनकी भी संख्या एक, दस पचास सौ नही हजारो और लाखों में हैं जिनके अपने अपने हित है और उसी के हिसाब की सरकार लाने की कोशिश करेंगे। इसमें उस वर्ग को नुकसान हो सकता है जो मतदान के दिन आंकलन में जुट रहे और बूथ पर मतदान से दूर रहे। ये हाल मीडिया जैसे पेशे में भी मिल जाएंगे कुछ तो इतने विरोधी हैं कि केंद्र सरकार कोई भी काम कर दे वो मोदी की कोई। नकोई कमी निकाल लेंगे कुछ इतने बड़े समर्थक बन गए हैं कि वो कल्पना नहीं कर सकते कि मोदी या उनके नेतृत्व वाली सरकार कुछ ग़लत कर सकती है चुनाव में ये दोनों ही पक्ष मुखर हैं और उन्होंने फिक्स कर लिया है अब दल प्रचार भी न करें तो ये वोट ऐसे ही पड़ने हैं। अब इसमें सबसे बड़ी फजीहत सर्वे वालों कि है अगर किस्मत sahi nahi रही और सैम्पल लेते वक्त निरपेक्ष वोटर नही मिले तो सारा आंकलन गड़बड़ा देंगे। २०१४ में एक तरह की सत्ता विरोधी लहर थी और एक प्रदेश के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री बनने के लिए उसके दिखाए सपनों पर लोग प्रधानमंत्री बनाने को तैयार थे पर मीडिया इसके लिए तैयार न था कोई भी मीडिया भाजपा नीत एंडी ए की सर्वे में पूर्ण बहुमत देने को तैयार न था हालांकि नतीजे के बाद मोदी लहर कहीं गई। अब बात करें इधर कुछ दिनों के हाल की तो राजनीतिक दलों ने जैसे मोदी के पक्ष और विरोध को स्वीकृति दे दी है। अख़बार का कोई भी पन्ना उठा लीजिए किसी विरोधी दल का नेता ये नही कहता दिखाई देता की हमारी ये नीति है जो अच्छी आपके लिए हितकारी है इसलिए चुनो या उनकी ये नीति खराब है इसलिए मत चुनो। मोदी के विरोध वाले उनकी पार्टी से ज्यादा नाम मोदी का लेते हैं और मोदी को हटाने के लिए वोट मांग रहे हैं और पक्ष वाले मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए। परसों एक चाय की दुकान पर नोएडा में एक अधेड़ को देखा बड़बोले से लगे तो कुरेद दिया। चुनाव का क्या हाल है तो भरे बैठे थे कहने लगे इस उम्र में काम करना पड़ रहा है मोदी के कारण उसे वोट नहीं दूंगा। ये कपड़े लट्टे से निम्न आय वर्ग के लगते थे। वैसे एक टैक्सी चालक से टकरा गया अकेले मैं ही था तो पूछ बैठा कहाँ रहते हो तो बताया नोएडा। अगला सवाल किया चुनाव का क्या रहा तो उन्होंने बताया कि मोदी को वोट दिया जबकि उनके यहां से भाजपा प्रत्याशी डॉक्टर महेश गिरी थे और मंत्री भी थे। अगले दिन पिथौरागढ़ के टैक्सी चालक से मिला वो दिल्ली में ही काम करते हैं काफी परेशान भी थे फिर भी चुनाव का पूछ बैठा तो उन्होंने अपने वोट के साथ प्रदेश की 5 सीट मोदी को देने का दावा कर दिया। इसी तरह शुक्रवार को ई रिक्शा एक जगह जा रहा था तो चालक को छेड़ दिया वो दिल्ली में रहते हैं। बस उसने मोदी के पक्ष में राय जाहिर कर दी मैंने और कुरेदा तो उन्होंने मोदी की अच्छी बात बताने के लिए काम से कम एक घंटे की मांग रख दी। हालांकि स्टेट चुनाव में आप को वोट देने की भी बात कही। मैंने कहा मैं तो आज समय दे सकता हूँ कुछ चीज़ें उन्होंने बताई भी पर हमारे चर्चा से एक अधेड़ बिफर पड़े वो शायद कर्मचारी थे। वो मोदी से नाराजगी जताने लगे और आप की बात रखी,मेट्रो तक वो मुझे मुतमईन करने की कोशिश करते दिखे और मोदी से नाराजगी का इज़हार। इतना जबरदस्त मोदी के प्रति गंभीर गुस्सा सामान्य बातचीत में विरोधी पक्ष के नेता को लेकर मैंने देखा नहीं था अब तक। कुल मिलाकर दक्षिण को छोड़ दें तो हर सीट पर मोदी ही लड़ रहे हैं चाहे पक्ष हो या विपक्ष।

मंगलवार, 19 मार्च 2019

मोदी के जल रूट पर प्रियंका वाड्रा का सफर


असम्भव की संभाव्यता का खेल है राजनीति। कम से कम भारत की राजनीति देखकर तो यही लगता है। जो जल रूट मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक है, उस रूट पर उनकी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वियों में से एक प्रियंका वाड्रा सफर कर रहीं हैं। वह भी मोदी से पहले, इस कड़ी में आज वह मिर्ज़ापुर जिले में पहुंच रही हैं यहां वह गंगा किनारे रहने वाले लोगों खास कर मल्लाह आदि जातियों को रिझाने की कोशिश करेंगी। मिर्ज़ापुर के लोगों को खुश होना चाहिए कि कम से कम वोट के लिए ही सही जनाब ए आलिया ने कदम तो रखा वो भी उन ही प्रतीकों को अपनाते हुए जिससे हमेशा दूरी बनाए रखना ही इन्हें उचित लगा। भला हो लोकसभा चुनाव 2014 का जिसने इस परिवार को लोकतंत्र और मिर्ज़ापुर की याद दिलाई पर यह देखना होगा कि इसका हासिल क्या होता है। अब देखना होगा कि जिस गंगा को केवट के माध्यम से पार कर राम अपनी मंजिल तक पहुंचे थे क्या प्रियंका भाई को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में सफल हो पाएंगी। या खुद प्रियंका राम जैसी निश्छल हो सकती है या लोग उनके मन के भीतर झांक लेंगे। प्रियंका के इस सफर में कमलापति त्रिपाठी की विरासत को संभाल रहे उनकी चौथी पीढ़ी के नेता ललितेश त्रिपाठी और प्रतापगढ़ के रहने वाले राज्यसभा सदस्य योजनाकार हैं। वही मिर्ज़ापुर संसदीय सीट से कांग्रेस के लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी हैं पर उनको टिकट देने का मकसद ब्राह्मण वोट को बस रिझाना है क्योंकि त्रिपाठी परिवार का बनारस विंध्याचल मंडल के ब्राह्मणों और अन्य समुदायों पर अच्छा खासा असर है। कांग्रेस के सबसे बुरे दिन में भी इस परिवार ने कांग्रेस की मौजूदगी यहां गाहे बा गहे बचाए रखा, उन्होंने हमेशा पार्टी का साथ दिया पार्टी का साथ मिला होता तो पूर्वांचल में कांग्रेस को एक अच्छा नेता मिल सकता था। इतने सालों में कांग्रेस की ओर से पार्टी में भी कोई प्रमुख जिम्मेदारी नहीं दी गई। क्या ब्राह्मण इसको भूल पाएंगे। अब चुनाव के समय एक टिकट, पार्टी के मन परिवर्तन का कोई सबूत नहीं है क्योंकि खुद कांग्रेस पार्टी के पास त्रिपाठी परिवार से अच्छा मिर्ज़ापुर में उम्मीदवार नहीं है, ऐसे में लालितेश को टिकट का छिपा एजेंडा ही है। वैसे लगता नहीं कि अगर जातीय गोलबंदी हुई तो ब्राह्मण किसी झांसे में आ जाएंगे और एक बार मायावती, बाद में बीजेपी को सत्ता के शिखर पर पहुंचाने में मदद कर ब्राह्मण अपनी ताकत समझ चुके हैं। किसी भी सीट पर जीत के लिए अ़फसोजनक रूप से जातीय गोलबंदी ही काम आएगी और कोई भी जाति अकेले किसी भी प्रत्याशी को लोकसभा नहीं पहुंचा पाएगी। ऐसे में जातीय गठबंधन की जरूरत होगी। इसके लिए कवायद शुरू हो गई है। सपा ने बसपा से गठबंधन किया है पर एक सवाल यह है कि ऊपर के नेतृत्व में हुआ गठबंधन आमलोगों का मनबंधन कर सकेगा क्योंकि अपेक्षाकृत दबंग समझे जाने वाले यादव समुदाय के लोगों का जातीय अस्मिता के शीर्ष पर उड़ान भर रहे लोगों में मेल कैसे होगा जबकि पिछली सपा सरकार के जाने का एक प्रमुख कारण यही माना जाता है। नेताओं की मजबूरी का गठबंधन पर क्या आम लोग भी मजबूर हैं यह तो समय ही बताएगा। वहीं कांग्रेस भी मुस्लिम, दलित ब्राह्मण आदि जातियों में से छोटी छोटी हिस्सेदारी पाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में खेल किसका बिगड़ेगा यह तो 23 Mai ko पता चलेगा पर nda की बात करें तो उसका पलड़ा थोड़ा मजबूत नजर आता है, अपना दल की भागीदारी और मोदी सरकार के विकास कार्य और दूसरी पार्टियों से नाराज़गी की खुराक काम आयी और गर्मी में लोग वोट देने निकले तो तय मानिए सही जगह पर सही व्यक्ति का पलड़ा भारी रहेगा।

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

विपक्षी गठबंधन : ज्यादा जोगी मठ उजाड़


हस्तिनापुर(तकरीबन वर्तमान दिल्ली) के लिये समर की तैयारियां तेज हो गईं हैं। दोनों ही पक्ष , सत्ता पक्ष और विपक्ष अपने तीर कमान दुरुस्त करने में जुटा है। दोस्त भी जुटाए जा रहे हैं। इस पर दोनों पक्षों से अलग तमाम लोग नज़र भी रख रहे हैं। इस बीच मुझे एक बार फिर लगता है कि जीत तो उसी की होगी जिस तरफ कृष्ण(जनता) होंगे। भले ही उनकी अक्षौहिणी सेना(तमाम राजनीतिक दलों को समझ सकते हैं) किसी दूसरी तरफ से लड़े, एक बार फिर यह मानने में कोई दो राय नहीं होगी कि किसी भी प्रकार से घटनाक्रम ऐसा घटित होगा कि कृष्ण सही और उचित की ओर से लड़ेंगे यानी जीत तो सच की होनी चाहिए। खैर इस दृष्टांत के जरिये मैं आने वाले लोकसभा चुनाव को समझने का प्रयास कर रहा हूँ। इससे पहले हमारे यहां मशहूर दो कहावतों पर नज़रसनी चाहता हूँ। एक ज्यादा जोगी मठ उजाड़ और दूसरा नौ कनौजिया नब्बे चूल्हा मोटामोटी अर्थ यह समझिए कि इतने अधिक विभिन्नता वाले लोगों में मतैक्य की गुंजाइश कम समझिए। अब चलते हैं आज के राजनीतिक परिदृश्य पर। कोलकाता से हैदराबाद तक में कम से कम चार गठबंधन मोर्चे पर हैं जगह-जगह जोरआजमाइश हो रही है।

सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

पश्चिम बंगाल: मोर्चा भले ही पोलिस आयुक्त के आसपास है लड़ाई का मैदान लोकसभा चुनाव है


देश में व्यक्तित्व की विचित्रता वाले नेताओं के उभार से लोग दिग्भ्रमित हो रहे हैं, ये नेता ऐसे हैं कि कभी कुछ गलत कर ही नहीं सकते के अहंकार भाव से ग्रस्त हैं। इसकी शुरुआत यूपीए २ में अपनी ही सरकार के अध्यादेश को मीडिया के सामने फाड़कर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहसिंह को शर्मिंदा करने वाले वर्तमान पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने की। तब से यह रोग बढ़ता ही जा रहा है।
 दिल्ली से कोलकाता तक ऐसे मंजर आम है। इससे अराजकता का माहौल बन रहा है और देश के संघीय ढांचे को नुक़सान पहुंच रहा है। अफसोसनाक बात है सियासी मजबूरियों के कारण इसके लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। एक सवाल है कि क्या केंद्र सरकार के विरोध में होने भर से देश की पूरी व्यवस्था को ध्वस्त करने की आजादी दे दी जानी चाहिए। ताज़ा मामला पश्चिम बंगाल का है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर शारदा चिट फंड मामले की जांच कर रही सीबीआई टीम को रविवार को कोलकाता में हिरासत में ले लिया गया। केंद्रीय जांच एजेंसी की यह टीम कभी इसी मामले की जांच कर रही sit के अफसर और वर्तमान कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ करने पहुंची थी। इस दौरान सीबीआई की टीम को घंटों थाने में बैठाया जाना राज्य सरकार और पुलिस की सोच पर सवाल उठाता है। बाद में टीम को छोड़ दिया गया और मुख्यमंत्री धरने पर बैठ गईं और आरोप लगाया कि राजनीतिक विरोधियों को परेशान किया जा रहा है।
 सवाल यह है कि कोलकाता पुलिस आयुक्त क्या राजनीतिक पार्टी के सदस्य हैं और पूछताछ से पहले किसी मुख्यमंत्री को किसी अफसर को क्यों क्लीनचिट देना चाहिए था या इसके लिए कोर्ट का रास्ता नहीं था पर जो रास्ता अपनाया गया अभूतपूर्व था और अब इसने सुबहे को जरूर जन्म दे दिया। सबको पता है कि पुलिस और प्रशासन का मुखिया सरकार का पसंदीदा अफसर ही होता है ऐसे में मुख्यमंत्री का राजीव कुमार के पक्ष में उतरना और जिस घोटाले में बनर्जी सरकार से जुड़े मंत्री और लोग आरोपित हों उस जांच टीम के मुखिया को अहम जिम्मेदारी दिया जाना सवाल तो उठाएगा। इससे राजीव कुमार की व्यक्तिगत छवि को भी धक्का पहुंचेगा। शारदा घोटाले की जांच सीबीआई supreme Court ki निगरानी में कर रही है ऐसे में केंद्रीय एजेंसी को पूछताछ से रोककर क्या माननीय न्यायालय का सम्मान किया गया या संघीय ढांचे की फिक्र की गई या यह बातें विभिन्न दलों के लिए बस जुमले हैं।
या सवाल उठता है कि इससे सीबीआई और पोलिस को सांस्थानिक रूप से कोई मजबूती मिली या उसकी छवि और व्यवस्था को ही नुकसान पहुंचा और क्या सिर्फ केंद्रीय सरकार के विरोध के कारण ही सभी संस्थाओं को दांव पर लगा देने की छूट है जबकि सबको पता है कि इन संस्थाओं के जरिये ही शांसन व्यवस्था कायम होती है। दरअसल लड़ाई में मोहरा कोई भी बने इसकी बिसात आगामी लोकसभा चुनाव है और दांव पर है प्रधानमंत्री की कुर्सी। पिछले चुनाव में उत्तर प्रदेश समेत हिंदी पट्टी के राज्यों ने वर्तमान सरकार के प्रतिनिधियों पर खूब प्यार लुटाया था पर दक्षिण पश्चिम बंगाल आदि में अपेक्षित सफलता नही मिल सकी थी। हिंदी पट्टी में सर्वाधिक उभार के बाद ही भाजपा ने समझ लिया था कि अगले लोकसभा चुनाव में उसे शायद उतनी सफलता न मिले, इसलिए यहां होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए उसने दूसरे राज्यों में प्रयास शुरू कर दिया था। इसमें उसे सबसे ज्यादा उम्मीद 42 सीट वाले पश्चिम बंगाल और 21 सीट वाले उड़ीशा से है जहाँ पिछले चुनाव में भाजपा को ओडिशा में 1 सीट और बंगाल में 2 सीट ही जीत पाई है।
इधर दोनों ही राज्यों में भाजपा मजबूत विपक्ष बनकर उभरी है और यहां पहले से स्थापित पार्टीयों को पीछे धकेल कर नंबर 2 की पोजिशन ले ली है और पार्टी के पास करिश्माई चेहरा नरेंद्र मोदी का होने से डरे दल इसे रोकने के लिए ये सारी कवायद करते नज़र आ रहे हैं। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनाव में टीएमसी ने सभी 19 जिलों की 2467 पंचायत सीटों पर कब्जा जमाया और बीजेपी 386 सीट जीतकर दूसरे स्थान पर रही जबकि टीएमसी से पहले कई दशक तक शांसन करने वाली माकपा को 94 सीट ही नसीब हुई। इससे पहले हुए नगरीय निकाय चुनाव में सभी 7 पर कब्जा जमाया था और 148 में से 140 वार्ड में जीत दर्ज की थी पर अधिकतर पर बीजेपी दूसरे स्थान पर थी। इससे राज्य में तृणमूल के लिए खतरे की घंटी बज गई है क्योंकि राज्य में उसकी प्रतिद्वंद्वी बीजेपी बन चुकी है और दुसरे राज्यों मेंक्षेत्रीय दलों की तरह हाशिये पर जाने से बचने के लिए तृणमूल को उसे रोकना होगा। ऐसे में यह सारी कवायद खुद को प्रधानमंत्री मोदी के सामने मजबूत दिखाने की कवायद का हिस्सा नज़र आ रहा है क्योंकि यूपीए2 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कमजोर होने और मोदी के फैसले लेने में मजबूत होने की छवि का भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलने में अहम योगदान रहा था। इ
विपक्षी दलों की ओर से प्लान बी पर भी काम किया जा रहा है जिसमें न भाजपानीत एनडीए की सरकार बने न कांग्रेसनीत यूपीए की, बल्कि इनसे अलग बाकी दलों की गठबंधन सरकार बने ऐसे में पूर्व में हुए इन्द्र कुमार गुजराल और hd देवगौड़ा वाले प्रयोग के मुताबिक कइयो को अपने लिए संभावना दिखती है। ऐसे में अंदरखाने सब अपने समीकरण दुरुस्त करने में जुटे हैं। बंगाल में ममता खुद को मोदी से टक्कर लेते दिखना चाहती हैं तो महाराष्ट में पवार और उत्तर प्रदेश में माया की हसरत किसी से छिपी नहीं है। वहीं दक्षिण में केसीआर और चंद्र बाबू नायडू अपनी गोटियां बिछा रहे हैं। दिल्ली के केजरीवाल तो मोदी के खिलाफ चुनाव तक लड़ चुके हैं। इसमे जांच एजेंसियों से लेकर चुनाव आयोग तक को निशाना बनाये जाने से कोई झिझक नही रहा है। इसमें किसी को चिंता नहीं है कि संस्थानों पर से आम जनता का विश्वास उठ गया तो इनकी लगाई आग बुझाए न बुझेगी। फिर कुर्सी पर कोई भी क्यों न हो।

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2019

सदन में मोदी मोदी और राहुल जागो - राहुल जागो के लगे नारे


चुनावी साल में नई सरकार के गठन से पहले के लिए बहुप्रतीक्षित देश का अंतरिम बजट पेश हो गया। अभी कई दिन तक विद्वान इसकी मीमांसा करते रहेंगे। पर जैसा की समझा जा रहा था की बीमारी के इलाज के लिए कड़वी गोली देने पर भरोसा करने वाले "डॉक्टर" मोदी की टीम ने इस बार कड़वी गोली से परहेंज किया और खूब मीठी गोली खिलाई। इसी के साथ वोटों की खेती के लिए चुनावी जमीन पर भरपूर पैदावार वाले बीज भी बो दिया। इसी का नक्तीजा है कि भले ही पक्ष बजट का हमेशा समर्थन और विपक्ष विरोध करता रहेगा पर वोट देने वाले हर वर्ग के लिए बजट में कुछ। न कुछ है। इसी कारण वित्त मंत्री के बजट भाषण के दौरान लगातार एक मिनट से ज्यादा तालियां बजती रहीं। यही कारण है कि सदन में मोदी मोदी के नारे गूंजते रहे तो राहुल जागो राहुल जागो की गूंज भी सुनाई दी। इसी के साथ विपक्ष के नेताओं के चेहरों की हंसी भी गायब थी। कुल मिलाकर यह बजट सवर्ण आरक्षण, आयुष्मान भारत कई और योजनाओं की अगली कड़ी में चुनाव के लिए मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक साबित हो सकती है। राहुल जागो राहुल जागो का नारा सत्ता पक्ष का खुद पर भरोसा दिखाता है तो तब तक विपक्ष का विरोध न करना उनके हैरान होने की ओर इशारा करता है। अभी बजट की मीमांसा विद्वान और राजनीतिक दल अपने हिसाब से और अपने लाभ हानि के हिसाब से लोगों के सामने रखेंगे पर आम तौर पर बजट भाषण सुनकर और कुछ विशेषज्ञों को सुनकर राय बनाने वाले वर्ग की बांछे खिल गई है। अब तक विपक्ष जिन मुद्दों को लेकर सरकार को घेरने की कोशिश कर रहा था सरकार ने उन्हीं पर इलाज और मरहम की शायद कोशिश की है। बजट में दो एकड़ तक वाले किसानों के लिए सालाना ६००० तीन किश्तों में देने की बात कही गई है यह सहायता ऊंट के मुंह में जीरा है पर जैसा हमारे यहां कि संस्कृति बन गई है कि लोग महज कुछ रुपयों के प्रत्यक्ष फायदे को ही फायदा मानते हैं। उनको यह खुश करेगी। खास बात यह है शायद पहली बार ऐसा हो रहा है कि कोई योजना बैक डेट से लागू की जा रही है। इस योजना को संभवतः पिछले दिसंबर २०१८ से लागू की रही है। मतलब चुनाव से पहले एक किश्त नियमो में आने वाले किसानों के खाते में पहुंच जाएगी। इससे बड़ी संख्या में किसानों को लाभ होगा, दूसरी और योजनाओं का भी धीरे धीरे पता चलेगा। इधर दूसरी अन्य कल्याणकारी योजनाएं चलती रहेंगी। और बहुत सारी मई के बाद आने वाले पूर्ण बजट में और इससे पहले चुनावी घोषणा पत्र में सामने आएंगी। कुल मिलाकर वोटों की खेती की खूब कोशिश की गई है बशर्ते यूपी चुनाव के दौरान अखिलेश सरकार की लैपटॉप योजना सा हश्र एन हो। सरकार ने मध्यम वर्ग, मझोले व्यापारियों नौकरी पेशा लोगों को भी रिझाने की कोशिश की है, जो संख्या और वोट के हिसाब से काफी बड़ा हिस्सा है। इस तरह वोट का यह बड़ा कोकतेल बनाता है खास तौर से सरकारों के खिलाफ माहौल बनाने में इस वर्ग का बड़ा हाथ होता है क्योंकि बड़े सामाजिक वर्ग में इसकी पहुंच और इसका असर होता है। सरकार ने आयकर स्लैब बढ़ा दिया है अब ५ लाख तक आमदनी वाले व्यक्ति को कोई कर नहीं देना होगा। साथ कुछ निवेश कर साढ़े सात लाख तक की आमदनी वाले लोग भी आयकर देने से बच जाएंगे। इसके इससे ऊपर की आमदनी वाले स्लैब से छेड़छाड़ न कर बड़े लोगों की हतैशी होने के आरोप से भी बचने की कोशिश की गई है। साथ ही क्यों का त्यों रखकर उसे नाराज भी नहीं किया गया है। Gst council ki agli baithak men भी कमी का संकेत है। इसके अलावा राजकोषीय घाटा आदि कम करने के ऐलानों से उद्योग जगत भी हर्षित है । आम और मध्यम वर्ग के लोगों ने तो इसका स्वागत किया ही है। बजट के दौरान हर सेगमेंट के जिक्र के साथ इन विकास कार्यों से युवाओं को रोजगार मिलेगा और मिल रहा है बताकर वित्त मंत्री ने युवाओं में भरोसा जगाने की कोशिश की है। उन्होंने बजट भाषण में ५ से अधिक बार युवाओं को रोज़गार का जिक्र कर बताने की कोशिश की है कि युवा उसके केंद्र में हैं। साथ ही यह विपक्ष के आरोपों पर सफाई भी थी नजर आ रहा था कि सरकार इस मोर्चे पर दबाव में है। फिलहाल केंद्र सरकार ने अपनी बैटिंग कर डी है देखना है कि उसे कितने ran मिलते हैं पर समय के अभाव में बजट और चुनाव पर फिलहाल इतनी ही बातें और बाकी बातें बाद में।

गुरुवार, 24 जनवरी 2019

प्रियंका वाड्रा की एंट्री : क्या कांग्रेस ने हार मान ली या कोई रणनीति


अपनी स्थापना के बाद से अब तक की सबसे बड़ी चुनौती से जूझ रही देश में सबसे अधिक शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस ने संभवतः आखिरी चाल चाल दी। पार्टी ने प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी का महासचिव नियुक्त कर राजनीतिक खेल में उतार दिया। साथ सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र का प्रभारी नियुक्त कर दिया। इससे पहले प्रियंका खुद को भाई और मा के चुनाव क्षेत्र तक सीमित रखती थीं। कुछ लोगों को उनमें इंदिरा का अक्स दिखता है। ऐसे में राहुल की मौजूदगी के बाद भी कांग्रेस की जब जब दुर्दशा बढ़ी और राहुल कि स्वीकार्यता पर सवाल उठे तो प्रियंका वाड्रा को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी देने की मांग उठी। पिछले लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में भी इस तरह की मांग उठी पर उनकी पार्टी में मौजूदगी से राहुल के लिए असमंजस की आशंका में हर बार पार्टी और प्रियंका ने इससे दूरी बनाना ही उचित समझा। कर्नाटक में सरकार बनाने, मध्य प्रदेश, राजस्थान , छत्तीसगढ़ की चुनावी सफलता से पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के हाथ में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं थी। ऐसे में तब पार्टी और खुद यूपीए चेरपर्सन को आशंका थी कि उनके पार्टी में सक्रिय होने से राहुल की पोजिशन कमजोर होगी पर अब हालात बदले हैं इन जीत के बाद उनका बचाव किया जाने का आधार मिल गया है। इस दौरान राजनीतिक अखाड़े में उन्हें तुरुप का पत्ता समझा जाता रहा । राज्यों में जीत के बाद एक बारगी कांग्रेस पार्टी और यूपी चेयरपर्सन को लग रहा था राहुल अब चल निकले हैं। चूंकि अधिक राज्यों में कांग्रेस का जनाधार है, इसलिए दूसरे दल इनको स्वाभाविक नेता भाजपा के खिलाफ मान लेंगे। कुछ दलों ने कुछ दिनों तक हा में हा भी मिलाई पर चूंकि क्षेत्रीय नेताओं की महत्वाकांक्षा उनके कद और जनाधार से भी बड़ी हैं तो ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली होनी थी। इनको समय समय पर राजनीतिक गुलाटियां खानी थी। इधर राज्यों के चुनावों में जीत के बाद बदली फिजा अधिक दिन तक कांग्रेस के लिए उत्साह जनक नहीं रही। कहां वह विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने की फिराक में थी और तमाम राज्यों से उसकी जमीन भाजपा कब्जा रही थी, इधर गठबंधन की उसकी कोशिशों को क्षेत्रीय दल सिरे चढ़ने नहीं दे रहे थे। यूपी में अखिलेश, माया ने बिना कांग्रेस को भाव दिए खुद गठबंधन कर लिए। दूसरे दूसरे, तीसरे मोर्चे बनाने में जुटे दल।राहुल के नेतृत्व पर राजी होते नहीं दिखे रहे थे। सबसे बड़ा झटका कांग्रेस को कर्नाटक से लगा जब अभी कुछ दिनों पहले राज्य में इनके सहयोगी और मुख्यमंत्री कुमार स्वामी ने प्रधानमंत्री पद के लिए और भाजपा विरोधी गठबंधन के लिए ममता का समर्थन कर दिया। राहुल के नेतृत्व में एक के बाद एक शर्मनाक स्थितियों से दो चार कांग्रेस को इसलिए संभवतः अपनी आखिरी चाल चलनी पड़ी। जब उन्होंने आखिरी पत्ता भी खोल दिया तो सवाल उठता है कहीं कांग्रेस ने राहुल के नेतृत्व में आम चुनाव जीतने की उम्मीद से हार तो नहीं मान ली या यह उनकी पूर्व नियोजित सोची समझी रणनीति है। वैसे कांग्रेस ऐसी किसी रणनीति पर काम कर रही थी कभी लगा नहीं क्योंकि उसका पूरा जोर राहुल को स्थापित करना ही था। इससे यह मजबूरी में उठाया गया कदम ही लगता है। इन परिस्थितियों के कारण प्रियंका को पार्टी में लाना पड़ा: उत्तर प्रदेश विधनसभा सभा चुनाव में कांग्रेस का सपा से गठबंधन लोगों को रास नहीं आया था। नतीजतन नोटबंदी और जिएस्टी के कड़े फैसले के बाद भी लोगों ने भाजपा को समर्थन दिया। इसका परिणाम यह रहा इन फैसलों की आलोचना कर रहे इस gathbandhan की बड़ी जमीन इनके पैरों तले से खिसक गई। इधर एक के बाद एक चुनाव हार रही पार्टी को गुजरात विधान सभा चुनाव में मेवानी और हार्दिक के दम पर भाजपा को टक्कर देने से कुछ विश्वास आया फिर कर्नाटक में चुनाव बाद गठबंधन ने संजीवनी दी। इससे राहुल के नेतृत्व में विपक्ष की अगुवाई के अरमान कांग्रेस की हिलोरे मारने लगे। पर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छततीसगढ़ गढ़ विधानसभा चुनाव में इनका गठबंधन नहीं बन सका। हालांकि बाद में सपा, बसपा ने भाजपा को सत्ता से दूर रखने के नाम पर समर्थन दे दिया। अभी कांग्रेस इन झटकों से उबर भी नहीं पाई थी कि लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में सपा बसपा से गठबंधन की उसकी योजना खटाई में पड़ गई। दोनों दलों ने कांग्रेस को किनारे रख आपस में गठबंधन कर लिया। इसने कांग्रेस के लिए शर्मनाक स्थिति पैदा कर दी क्योंकि कांग्रेस नेता खुलेआम भाजपा के खिलाफ गठबंधन की इच्छा जता चुके थे पर बसपा की दो समस्या है एक तो उनके मन में भी प्रधानमंत्री पद की इच्छा दबी है, दूसरे उनका आधार वोट बैंक दलितों का है और बसपा से पहले कांग्रेस, दलित, सवर्ण, मुस्लिम समीकरण से दशकों राज करती रही है और वह अपना वोट बैंक कांग्रेस को लौटाना नहीं चाहेंगी। और अखिलेश अभी सिर्फ यूपी की जमीन पाने की कोशिश में हैं और कांग्रेस से ज्यादा माया उनके लिए जरूरी हैं। इधर दक्षिण में केसिआर जगनमोहन रेड्डी के साथ तीसरा मोर्चा बनाकर अच्छी संख्या में सीट जीतकर किंग मेकर के रास्ते देव गौड़ा और गुजराल का केस दोहराने की फिराक में हैं। बंगाल की ममता अलग से प्रधानमंत्री का ख्वाब संजोए हुए हैं, उन्होंने अभी एक रैली में विपक्ष के बड़े नेताओं को जुटाकर शक्ति प्रदर्शन भी किया। मतलब साफ है इतने दल राहुल के नेतृत्व और कांग्रेस की अगुवाई में काम के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे में राहुल को सिर्फ राजद, ncp, नेकां जद एस का ही समर्थन है, वैसे इनमें से शरद पवार और अन्य नेता गच्चा देने में माहिर हैं। सोनिया के प्रधानमंत्री पद की राह में कांटे पवार ने है बिछाएं थे। इधर केंद्र सरकार ने गरीब सवर्ण को आरक्षण देकर सवर्ण मतदाताओं को साधने की कोशिश की तो अब कांग्रेस को मजबूरी में अपने तुरुप के पत्ते को चलना पड़ा क्योंकि सिर्फ भाजपा को सत्ता से बाहर करने की वजह के आधार पर इतनी सारी महत्वकांक्षा वाले नेताओं को साधना राहुल के लिए मुश्किल हो रहा था और कांग्रेस अपनी जमीन गंवाती रही थी कहीं भाजपा के हाथ कहीं क्षेत्रीय दलों के हाथ। अब तुलना भी होगी: अब जब एक ही परिवार के दो लोग पार्टी में रहेंगे और एक को स्वीकारोक्ति नहीं मिल रही है और दूसरा अभी अभी मैदान में आया है तो तुलना तय है। ऐसे में बाद की परिस्थितियों को कांग्रेस को संभालना होगा। हालत इस तरह बदले हैं कि आखिर कांग्रेस को अपना तुरुप का पत्ता चलना पड़ा। इसी के साथ पार्टी का एक और पद परिवार में सुरक्षित हो गया। इसी के साथ कांग्रेस में उच्च पद पर no vacancy for out Sider or no vacancy for out of family का बोर्ड लग गया समझिये। प्रियंका को भी देने होंगे सवालों के जवाब: ये तो वक्त बताएगा कि लोग कांग्रेस के इस तुरुप के पत्ते को कितना स्वीकार करते हैं पर यह तय है कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह बढ़ेगा। फिलहाल अभी तक प्रियंका वाड्रा गांधी राजनीति में नहीं थी तो उन पर कम राजनीतिक हमले होते थे। कभी कभार कोई मामला सामने आया होगा पर अब बिपक्षी शायद ही छूट दें वो भी तब जब पति रॉबर्ट उनकी कमजोर कड़ी हों। उन्हें हरियाणा और राजस्थान में उन जमीन घोटालों का जवाब तलाशना होगा कि कैसे महज लाख की कंपनिया यूपीए के कार्यकाल में कुछ साल में ही करोंङों की हो गई। वहीं बीकानेर जमीन घोटाले की जांच में राबर्ट वाड्रा को राजस्थान हाईकोर्ट ने ईडी के सामने पेश होने का आदेश दिया है। अब 12 फरवरी को राबर्ट वाड्रा और उनकी मां समेत स्काईलाइट हास्पीटैलिटी प्राइवेट लिमिटेड के सभी साझीदारों को ईडी में पूछताछ के लिए हाजिर होना पड़ेगा। राहत की बात सिर्फ इतनी है कि ईडी वाड्रा को गिरफ्तार नहीं कर सकता है। इडी को शक है कि वाड्रा कि मुखौटा कंपनी के जरिये इसमे विस्थापितों के लिए निर्धारित जमीन को खुर्द बुर्द की गई। इसके अलावा भी राजस्थान और हरियाणा के कई अन्य जमीन घोटाला और आर्थिक अपराध के मामले में अक्सर इनका नाम भी मीडिया की जीनत बनती रही हैं, उनका भी जवाब तलाशना होगा। कैसे औने पौने दाम पर सरकारी जमीन इन तक पहुंची और करोड़ों की हो गई। कैसे बिल्डर इन पर मेहरबान रहे क्यों सरकारी प्रोजेक्ट इन्हीं की जमीनों के आसपास पास हुए। ऐसे बेशुमार सवालों के जवाब वाड्रा को ढूंढने होंगे। तब कांग्रेस बचाव में यह दलील नहीं दे पाएगी कि प्रियंका राजनीति में नहीं हैं।

शनिवार, 19 जनवरी 2019

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कितने हिंदू


देश में इन दिनों चुनाव नहीं हो रहे हैं इसलिए धर्म का कहीं शोर भी नहीं है। पर जल्द ही यह स्थिति बदलने वाली है देश का आम चुनाव नजदीक है और संभवतः मार्च में अधिसूचना भी जारी हो जाय। इससे पहले धुरंधर अपने किले दुरुस्त कर रहे हैं। अफ़सोस है कि चुनाव किस लिए होना है और चर्चा क्या होगी पर जब ये अभियान पर धर्म की राग पर भी तराने गाएंगे,ऐसे में हम आप बच नहीं सकेंगे,इसलिए पहले से ही धोखाधड़ी परखने के लिए तैयार हो जाइए।यह इसलिए कि परीक्षक आप ही हैं। ऐसा नहीं धर्म की बांसुरी केवल स्वनाम धन्य लोग ही बजायेंगे वो भी तान छेड़ेंगे, जिसे पता भी नहीं है। कुछ लोग ऐसा भी कहेंगे कि हम तो धर्म निरपेक्ष हैं और आंख दबाते हुए किसी एक तरफ की मान्यता वालों की तरफ होने का संदेश भी दे रहे होंगे। सबसे ग़हरी लड़ाई देश के बहुसंख्यक के लिए होना है क्योंकि चुनावी राजनीति में वोट मायने रखता है , और ऐसे में बहुसंख्यकों का बड़ा हिस्सा पाने के लिए ठगी के हर दांव आज़माए जाएंगे।पहले जाति का दाना डाला जाएगा फिर सैद्धान्तिक समेत कई टुकड़े किये जाएंगे। फिलहाल इस सीन के लिए कुछ समय इन तज़ार करिये। हालांकि मेरा खुद का मानना है कि किसी धर्म को मानना न मानना न मानना व्यक्तिगत मामला है और सभी धर्मों का सम्मान किया जाना चाहिए इसीलिये हिंदू धर्म मे इतने उपवर्ग को मान्यता मिली। धर्म व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्थान के लिए है, इसलिए इसे जबरिया नहीं थोपा जा सकता। इसीलिए दुनिया के सम्भवत: एक मात्र धर्मावलंबियों हिन्दू ने इसके प्रचार के लिए अभियान नहीं चलाया, जो स्वयं प्रकाश है वो तो खुद ही दिखेगा उसका प्रचार कैसा। तमाम लोग इसे सनातन धर्म भी कहते हैं कुछ राजनीतिक (अभी कुछ दिनों पहले हुए विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाने के बाद आज तक टीवी चैनल पर उसी दल के बड़े नेता ने यही बात कही)लोगों को धोखा देने के लिए दोनों को अलग बताते हैं उनको या तो पता नहीं या कम जानकार लोगों को वोट के लिए गुमराह कर रहे हैं ताकि यह वर्ग टुकड़ो में बंटा रहे। उनको पता नहीं कोई भी हिन्दू जब मांगलिक कार्यक्रम करता है तो आरती के बाद कुछ कामनाएं करता है जो इसतरह हैं प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो सनातन धर्म की जय हो। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि धार्यते इति धर्म: जो धारण करने योग्य है वही धर्म है मतलब साफ है इसके बुनियाद में नैतिकता और इंसान महत्वपूर्ण है और खुद के साक्षात्कार की ओर इशारा है मतलब यह व्यैक्तिक है पर अगर किसी मकसद से सार्वजनिक रूप से इसकी चर्चा की जाय तो यह व्यक्तिक नहीं रह जाता और यह व्यापार हो जाता है और नीयत में खोट का इशारा करता है। इसलिये चर्चा भी की जानी चाहिए खासतौर से जो खुद को धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते हैं उनके लिए तो अशोभनीय हैं। पिछले दिनों गुजरात से लेकर मध्य प्रदेश विधानसभाओं के लिए चुनाव हुए। इस दौरान कांग्रेस अध्यक्ष तमाम मंदिर जाते हुए दिखाए गए। इसमें कोई बुराई नहीं है हिन्दू मजार, चर्च, दरगाह सब जगह जाते हैं। कांग्रेस पार्टी की ओर से उनको शिव भक्त प्रचारित किया गया, इसके पोस्टर लगे, उनका गोत्र बताया गया। पर सवाल यह है कि आखिर कांग्रेस पार्टी की लोक सभा चुनाव में शिकस्त के बाद पार्टी की एंटनी कमेटी की सिफारिश के बाद ही यह व्यवहार क्यों किया जा रहा है साफ है कि यह व्यापार महज वोट के लिए और बहुसंख्यक समुदाय को ठगने के लिए दिखावा भर है। कांग्रेस अध्यक्ष 45 साल से अधिक उम्र के होंगे पर शिवभक्ति उनको पिछले कुछ चुनाव से चुनाव तक ही याद आई है। इससे पहले के उनके ऐसे फ़ोटो कांग्रेस पार्टी के पास भी शायद ही हों, साफ है कि धोखाधडी का उपक्रम भर है। अब चलते हैं धर्म के निर्धारण के लिए, चूंकि धरती पर आने वाला कोई भी बच्चा खुद धर्म का निर्धारण नहीं कर सकता। इसलिए इसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए और न ही उसके अवसर काम किये जाने चाहिए। भारत का संविधान भी इसी का हिमायती है। कांग्रेस अध्यक्ष के लिए भी यह सत्य है , एक राजनीतिक दल के अध्यक्ष और देशवासी होने के नाते देश के सबसे ताकतवर पद को पाने की लालसा बुरी नहीं है पर उन्हें भी चाहिए कि इस पद को देने की अधिकारी जनता को स्वार्थ के लिए अंधेरे में न रखें। अब आते हैं कि दुनिया भर में किसी बच्चे के धर्म निर्धारण की पद्धतियों के बारे में। दुनिया भर में दो तरह के समाज हैं मातृ सत्तात्मक (जिसमें बच्चे और अगली पीढ़ी के सभी विषयों का निर्धारण माता के अनुसार हो) और पितृ सत्तात्मक(जिसमें बच्चे और अगली पीढ़ी के सभी विषयों का निर्धारण पिता के अनुसार हो)। भारत में कुछ जनजातियों को छोड़ दिया जाय तो बाकी समाज पितृ सत्तात्मक समाज का हिस्सा है और पीढ़ी दर पीढ़ी यह व्यवस्था दूसरे को हस्तांतरित होती है। मा न लिया जाय एक ही जाति की दो उपजातियों और गोत्र के स्त्री पुरूष का विवाह होता है तो बच्चे का गोत्र और जाति पिता की होगी क्योंकि यह पितृ सत्तात्मक व्यवस्था का हिस्सा है। इस तरह राहुल गांधी का मिलान करें तो पिता राजीव गांधी जिन्हें जाति और गोत्र अपने पिता फिरोज गांधी से मिलेगा जो पारसी थे(पारसी समाज में क्या व्यवस्था है मुझे नहीं पता।)। इसके बाद राहुल को भी उसी का हिस्सा होना चाहिए। फ़िरोजगान्धी देश के महान सपूत थे, उनके धर्म के बारे में पिछले साल कई वेबसाइट ने आलेख भी लिखे थे। विकीपीडिया पर भी मौजूद है मैंने कई जगह पढ़ा है इन सब को लेकर एक गांधी जिसे भुला दिया गया पोस्ट मैंने पहले ही लिखा था। और राहुल मातृ सत्तात्मक व्यवस्था में विश्वास रखते हैं तो उन्हें धर्म और बाकी चीजें सोनिया गांधी जी से विरासत में मिलेंगी क्योंकि वो सोनिया ji उनकी माँ हैं। काफी कुछ इंटरनेट पर खंगालने पर भी सोनिया जी के धर्म के बारे में कुछ स्पष्ट नहीं हो सका, विकिपीडिया पर भी इस बारे में नहीं मिला पर सोनिया जी इटली की रहने वाली हैं वहां बहुसंख्यक रोमन कैथोलिक ईसाई हैं। Wikipedia के मुताबिक सोनिया जी का जन्म तो रोमन कैथोलिक परिवार में ही हुआ था। एक अन्य वेबसाइट पर उन्हें रोमन कैथोलिक बताया गया है, हालांकि bbc के एक आलेख के मुताबिक कुछ साल पहले कैथोलिक की एसोसिएसन ने खारिज भी कर दिया है कि सोनिया कैथोलिक हैं। वहीं सोनिया हिंदू मंदिर और संतों के यहां भी जाती रही हैं और सार्वजनिक तौर पर हिंदू प्रथाओं का पालन करती रही हैं पर हिंदू हैं या नहीं इस पर आज तक कुछ नहीं कहा और न ही ईसाई हैं या नहीं इस पर कुछ कहा। हालांकि उनके सरकारी दस्तावेज से पता चल सकता है पर किसी के लिए उसको पाना आसान नहीं है। और हिंदू मंदिर और संतों के यहां आना जाना राजनीतिक स्टंट हो यह खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि देश की बड़ी आबादी हिंदू धर्मावलंबी है और उस पोका समर्थन पाने के लिए गलत होते हुए भी एक हटकंडा तो है सत्ता के लिए। और सिर्फ सत्ता के लिए ऐसा किया जा रहा है तो यह धोखाधड़ी का रिश्ता है, जिस रिश्ते की बुनियाद में ही धोखाधड़ी है कितना लंबा चलेगा। और यदि दूसरे धर्म से संबंधित व्यक्ति सिर्फ इसलिए दूसरा धर्म अपना रहा है कि उसके धर्म के लोगों की संख्या कम है और सत्ता पाने में कम सहायक हैं तो वह दूसरे का भी नहीं होगा। प्रधानमंत्री बनने का सपना देखना बुरा नहीं है और। नधर्म के नाम पर रोक है और न होना चाहिए पर संबंधित व्यक्ति को ऐसी कार्य योजना सामने रखनी चाहिए जिससे सभी का समर्थन जुटाया जा सके चाहे वह किसी धर्म का हो। राजनीति का धर्म होना चाहिए(मतलब एक सिद्धांत जिस पर लोगों का समर्थन जुटाया जा सके धर्म का रंग डाले बगैर, लोगों का कल्याण मकसद हो, नैतिकता हो) धर्म की राजनीति नहीं होनी चाहिए(धर्म के नाम पर लोगों को लड़कर धर्म के नाम पर एन केन प्रकरेन सत्ता पाना)। भारत में उसकी कोई जरूरत नहीं नेहरूजी धर्म के कारण प्रधानमंत्री नहीं बनाए गए, शास्त्री जी, इंदिरा जी और मनमोहन सिंह जी से उनका धर्म तो कोई नहीं पूछता। तो अब क्यों जहर घोल रहे हो, देश के बहुत से राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश मुस्लिम धर्म के रहे हैं और लोगों ने स्वीकार किया है और प्यार लुटाया है। यदि सत्ता के लिए दूसरे धर्म का होने का दिखावा कर रहे हैं तो यह ही साम्प्रदायिकता है। यह गांधी जी का भी अपमान है, जिस धर्म में पैदा हुए हो उसका भी अपमान है। क्योंकि उन्ही के नाम पर गांधी परिवार को लोगों का बड़ा समर्थन अब तक मिला है। तमाम खामियों के बाद भी उन्होंने तो अपना धर्म बदलने की बात कभी नहीं कही। अगर सभी धर्म को समान मानते हो तो अपने धर्म पर भी गर्व करने की जरूरत है, सुविधा के मुताबिक चीजें अपनाना राजनीतिक ठगी है। अभी सोशल मीडिया में एक वीडियो खूब वायरल हो रहा था जिसमें राहुल की ओर से भारतीय संस्कृति में अहिंसा का आना इस्लाम से बताया कहा जा रहा था, लल्लन टॉप वेबसाइट ने इसकी पड़ताल की तो फेक पाया इसमें उन्होंने, इस्लाम ईसाई आदि का उल्लेख करते हुए सभी धर्मो से आने की बात कही। हालांकि शिवभक्त हिंदू धर्म का उल्लेख करना भूल गए। अभी काफी ट्रेंनिग की जरूरत है।

रविवार, 13 जनवरी 2019

प्रयाग में माघ महीने में गंगा किनारे रहकर इन्द्रियों को वश में कर स्नान - ध्यान कर ईश्वर की आराधना करना ही कल्पवास है

संयम का अभ्यास और पवित्रता को पाने की कोशिश कल्पवास की बुनियादी शर्त है। यह पौष माह के ११ वें दिन से माघ माह के १२ वें दिन तक लगता है। धैर्य और भक्ति के लिए जाना जाता है। इस अवधि में एक दिन में एक बार ही भोजन किया जाता है।

   भारत  कोष के मुताबिक हजारों साल पहले जब प्रयाग शहर बसा भी नहीं था गंगा और यमुना के किनारे आसपास जंगल था। यहां ऋषि मुनि तपस्या करते थे उन्होंने गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान रखा। इस दौरान यहां आने वालों को शिक्षा दीक्षा दी जाती थी। इस दौरान उन्हें पर्णं कुटी में रहना पड़ता था। अब पत्ते की कुटी की जगह तंबुओं ने के ली है। कल्पवास के दौरान गृहस्थों के तीन कार्य होते थे। तप, होम और दान। कल्पवासियों की दिनचर्या सुबह गंगा-स्नान से शुरू होती है और डर रात तक भजन प्रवचन आदि जैसे कार्यों के साथ समाप्त होती है।http://m.bharatdiscovery.org/indiahttps://brahmaastra.https://kumbh.gov.in/hi/attractionsblogspot.com/2019/01/blog-post.html?m=1https://brahmaastra.blogspot.com/2018/12/blog-post_26.html?m=1https://brahmaastra.blogspot.com/2019/01/blog-post_6.html?m=1



पद्म पुराण में कल्पवास को इस तरह परिभाषित किया गया है।


प्रयागे माघ पर्यन्त त्रिवेणी संगमे शुभे। निवासः पुण्यशीलानां कल्पवासो हि कश्यते॥

पुराण के मुताबिक  तीर्थराज प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर माघ मासभर निवास करने से (साधना कर कल्पवास करने)पुण्य फल प्राप्त होता है। संगम तट पर कल्पवास करने के संदर्भ में माना गया है कि कल्पवासी को इच्छित फल तो मिलता ही है, उसे जन्म जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति मिल जाती है।

महाभारत में कहा गया है कि एक सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने का जो फल मिलता है, माघ मास में कल्पवास करने भर से प्राप्त हो जाता है। जगह जगह यह वर्णन मिलता है कि भगवान शिव ने त्रिपुर राक्षस के वध की क्षमता कल्पवास से ही प्राप्त की थी। ब्रह्मा के मानस पुत्र सनकादि ऋषियों को कल्पवास करने से आत्मदर्शन का लाभ हुआ।


 कल्पवास की अवधि : कल्पवास की न्यूनतम अवधि एक रात्रि की है। बहुत से श्रद्धालु जीवनभर माघ मास गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम को समर्पित कर देते हैं। विधान के अनुसार एक रात्रि, तीन रात्रि, तीन महीना, छह महीना, छह वर्ष, 12 वर्ष या जीवनभर कल्पवास किया जा सकता है।  इसकी महत्ता को देखते हुए  पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि इसी कारण आकाश तथा स्वर्ग में जो देवता हैं, वे भूमि पर जन्म लेने की इच्छा रखते हैं। वे चाहते हैं कि दुर्लभ मनुष्य का जन्म पाकर प्रयाग क्षेत्र में कल्पवास करें।


 महाभारत के एक प्रसंग में मार्कंडेय धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि राजन्‌! प्रयाग तीर्थ सब पापों को नाश करने वाला है। जो भी व्यक्ति प्रयाग में एक महीना इंद्रियों को वश में करके स्नान- ध्यान और कल्पवास करता है, उसके लिए स्वर्ग का स्थान सुरक्षित हो जाता है।


 कल्पवास का विधान : प्रयाग क्षेत्र में निवास से पहले दिन में एक बार भोजन का अभ्यास कर लेना चाहिए। प्रयाग के लिए चलने से पहले गणेश पूजा अनिवार्य है। मार्ग में भी व्यसनों से बचे रहें। त्रिवेणी तट पर पहुंच कर यह संकल्प लें कि कल्पवास की अवधि में बुरी संगत और गलत वााणी निकालने की बुराई का  त्याग करेंगे, यहां कहा जाता है कि महीनेभर संयम का पालन करने से व्यक्ति की इच्छाशक्ति दृढ़ होती है और वह आगे का जीवन सदाचार से व्यतीत करता है।


 कल्पवासी को चाहिए कि निम्नलिखित मंत्र पढ़कर अपने ऊपर गंगा जल छिड़के।


 मंत्र : ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा। यः स्मरेत पुण्डरीकांक्ष से बाह्याभ्यंतरः शुचि । इस मंत्र से आचमन करें- ॐ केशवाय नमः ॐ माधवाय नमः ॐ नाराणाय नमः का जाप करें ।


 हाथ में नारियल, पुष्प व द्रव्य लेकर यह मंत्र पढ़ें। इसके बाद आचमन करते हुए गणेश, गंगा, यमुना, सरस्वती, त्रिवेणी, माधव, वेणीमाधव और अक्षयवट की स्तुति करें।

मंगलवार, 8 जनवरी 2019

गरीब सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण: मोदी ने खींच ली कांग्रेस के पैरों तले से जमीन


लोकसभा चुनाव की आहट के बीच एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों और सियासी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों को चौंका दिया। सोमवार को नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाले मंत्री परिषद ने देश के गरीब सवर्णों के लिए १० फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव पास कर दिया। यह प्रधानमंत्री का ऐसा कदम है जिसकी राजनीतिक दलों को क्या मीडिया को भी भनक नहीं थी। यह ऐसी सियासी चाल है कि कांग्रेस के पैरों तले जमीन खिसक गई है। इससे पहले सत्ता के लिए कांग्रेस पार्टी सवर्ण वोट का समर्थन पाने के लिए जद्दोजहद कर रही थी। yahi कारण है कि विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष मंदिर मंदिर घूमते नजर आ रहे थे। कांग्रेस प्रवक्ताओं की ओर से उनका गोत्र बताया जा रहा था तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता की ओर से राजस्थान में ब्राह्मण के नाम पर वोट मांगा जा रहा था और प्रधानमंत्री पर आक्षेप भी किया जा रहा था। इसके साथ ही भाजपा को सवर्णों की नजर में विलेन बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही थी। इसका शुरुआती मौका उसे मिला सुप्रीम कोर्ट में पिछले दिनों आए एक निर्णय से। दरअसल, कोर्ट में एस सी एस टी का केस चल रहा था, जिसमें इस तरह के मामलों में जांच के बाद गिरफ्तारी की मांग की गई थी। जैसा की देश में तमाम कानूनों का दुरुपयोग होता है, यह अलग नहीं है। तमाम मामले ऐसे होते हैं कि दो पक्षों में विवाद में एस सी एस टी समुदाय के व्यक्ति को मोहरा बनाकर एक पक्ष को फंसा दिया जाता है, कोर्ट ने इसमें सवर्ण समुदाय के पक्ष में फैसला सुना दिया और कहा कि इन मामलों में जांच के बाद गिरफ्तारी की जाय जैसा की कोर्ट ने दहेज के मामलों में भी कुछ दिनों पहले रूलिंग दी थी। इसके बाद तो कांग्रेस और बिपक्षी दलों ने घेर लिया। इस फैसले केनलिए सरकार को दोष देने लगे। टीवी पर कांग्रेस के प्रवक्ताओं की ओर से कोर्ट के फैसले को सरकार की ओर से कानून को कमजोर करने की कोशिश karaar दिया और दलित संगठनों कोंभड़काया। नतीजतन पूरे देश में दलित संगठन सड़क पर उतर आए । उन्होंने कानून हाथ में लेकर तोडफ़ोड़ भी की। इन प्रदर्शनों को जमीनी स्तर पर कांग्रेस नेताओं का समर्थन था। इससे पसोपेश में पड़ी सरकार को दलितों के गुस्से को शांत करने के लिए अध्यादेश लाना पड़ा। अब कांग्रेस ने पाला बदल दिया। उसने इसके विरोध में प्रदर्शन की योजना बना रहे सवर्णों के संगठनों को भड़काना शुरू कर दिया। इनकी ओर से निकाले गए मार्च और प्रदर्शन को भी कांग्रेस कार्यकर्ताओं का समर्थन था और उसने केंद्र को विलेन बनाने की पूरी कोशिश की। इस बीच मध्य प्रदेश समेत ५ राज्यों में चुनाव की तैयारी थी और दलितोंके गुस्से को थामने के लिए मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिराजसिंह के इस बयान ने " कौन है माई का लाल जो एस सी एस टी कानून को कमजोर करे" के बयान से कांग्रेस ने भाजपा को अपने जाल में फांस लिया। एस सी एस टी कानून और आरक्षण दो ऐसे शब्द है जिसको लेकर दलित समुदाय अतिरिक्त सतर्क हो जाता है और पूरी बात सुने बिना ही प्रतिक्रिया देने लगता है। इससे इस वर्ग को बरगलाना आसान हो जाता है और दलित समुदाय इसको लेकर हमेशा भाजपा को शक की निगाह से देखता है। यह खिचड़ी एक बार कांग्रेस समेत विपक्षी डाल पका चुके थे, जब संघ प्रमुख के एक इंटरव्यू को तोड़ मरोड़कर पेश किए जाने के बाद भाजपा को बिहार में करारी हार का सामना करना पड़ा था। इधर अब दूसरे वर्ग को भी इसी मसाले के साथ बरगलाने मेंसफल रही। इस बीच तक सवर्ण भी किसी बात पर एकमत होने लगे हैं। वो भी वोट बैंक बनने के करीब है,हालांकि यह सोच में गरावत है अभी यहीं हांडी पक रही है। उन्होंने यूपी में सतीश मिश्रा की अगुवाई में मायावती को मुख्यमंत्री बनाने में भूमिका निभा कर अपनी ताकत पहचान ली थी। इससे शिवराज के बयान और अध्यादेश की जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। सवर्ण संगठनों ने जवाब में हम हैं माई के लाल का नारा दिया। इधर सभीराज्यों में सवर्णों के बड़े तबके ने दोनों तबके को भड़काने वाले दल को ही वोट दे डाला । नतीजतन ३ राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी। कांग्रेस सवर्ण वोट बैंक पाने का खुमार उतार भी नहीं पाई होगी की केंद्रीय सरकार ने बड़ा दांव चल दिया है। गरीब सवर्ण को आरक्षण का मामला जल्द ही लोक सभा में आ सकता है। यहां इसके होने में ज्यादा दिक्कत नहीं आएगी। राज्यसभा में भाजपा सरकार का बहुमत नहीं है पर इतनी बड़ी आबादी की नाराज़गी मोल लेकर इस फैसले का विरोध करने की हिम्मत जुटाना कांग्रेस समेत अन्य दलों के लिए आसान नहीं होगा। इससे वोट का समीकरण भी फिर बदलने की उम्मीद है। हालांकि इसे विपक्षी दल पहले स्थाई समिति को भेजने का दबाव डालकर मामले को चुनाव तक लटकाने का प्रयास का सकते हैं या वे सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ जा सकते हैं। जिससे इसका श्रेय भाजपा के खाते में न जाय।पर खुलकर पर फैसला लेना आसान नहीं होगा। बहरहाल इससे सबसे बड़ा धर्म संकट कांग्रेस के सामने पैदा गया , जिस वोट बैंक सहारे वो सत्ता में आने ख्वाब देखने लगे थे पर मोदी को डोरा डालते देख नींद तो जरूर उड़ गई होगी। इससे पहले भी जाड़े में प्रधानमंत्री ने लोगों को चौंकाया था।

रविवार, 6 जनवरी 2019

प्रयाग में और आसपास क्या है खास


भारतीय राजनीति का हमेशा ही केंद्र बिंदु रहने वाला प्रयागराज (इलाहाबाद) भारतीय संस्कृति की मूल भावना समावेशीकरण का भी केंद्र बिंदु है। यहां सहिष्णुता है, सद्भाव है सामाजिक एकता भी है। यह पौराणिक के साथ ऐतिहासिक शहर भी है आइए समझते हैं प्रयागराज और आसपास की खास बातें। भारतीय ग्रंथों में मनीषियों (विद्वानों) ने हजारों वर्षों पहले से ही का रखा है आनो भद्रंक्रतावो यांतू विश्वता:(सभी दिशाओं से सद्विचार आने दें) मतलब साफ है वो दुनिया में किसी को बुरा नहीं समझते थे और जिसके पास भी कुछ अच्छी चीजें हैं उससे सीखने की प्रेरणा देते हैं।
 यह वही परंपरा है कि भीषण युद्ध के बाद भी विजेता राम पराजित रावण के पास राजनीति की शिक्षा लेने भाई लक्ष्मण को भेजते हैं और उसके सम्मान में पैर के पास खड़े होने की सलाह देते हैं और जिसके हाथों पूरे कुल का नाश हुआ उन मर्यादा पुरुषोत्तम के भाई को रावण भी शिक्षा देता है। खैर चलते हैं इलाहाबाद । भले ही किसी वजह से हो आजादी के पहले अंग्रेजों ने इलाहाबाद और देश को कई चीजें दी है। उनकी भी विरासत प्रयागराज अपने में समेटे हुए है। 
प्र याग में अब भी कई मोहल्ले उनके नाम पर मिल जाएंगे, मसलन कीडगंज, जॉनसन गंज, जार्ज ताउन आदि। इसके अलावा दिल्ली से कोलकाता के लिए बिछाई गई रेल लाइन के लिए यमुना पर बना ब्रिज अंग्रेजों की ही देन है, सैकड़ों साल पुराना यह ब्रिज अब भी मुस्तैदी के साथ हमारा जीवन आसान बना रहा है।
इसके अलावा इलाहाबाद विश्व विद्यालय की स्थापना म्योर कालेज के रूप में १८८७ में अंग्रेजों ने ही की थी, जो बाद में डिग्री प्रदान करने वाला विश्व विद्यालय बना। यह हिंदुस्तान के शुरुआती चार विश्व विद्यालयों में है जिसका वास्तु दर्शनीय है। मिंटो पार्क: अब इसका नाम मदन मोहन मालवीय पार्क हो गया है पर आम लोग मिंटो पार्क के नाम को भी बता देंगे। यह ऐतिहासिक पार्क है। इलाहाबाद में स्थित सफेद पत्थर के इस मैमोरियल पार्क में सरस्वती घाट के निकट सबसे ऊंचे शिखर पर चार सिंहों के निशान हैं। लार्ड मिन्टो ने इन्हें 1910 में स्थापित किया था।
1 नवम्बर 1858 में लार्ड कैनिंग ने यहीं रानी विक्टोरिया का लोकप्रिय घोषणापत्र पढा था। इससे पूर्व ब्रिटेन की संसद में 2 अगस्त 1858 को लार्ड स्टेनले ने भारतीय अधिनियम को संसद के समक्ष रखा। इस बिल के तहत भारत मे सत्ता का हस्तांतरण ईस्ट इंडिया कंपनी सेे ब्रिटेन की महारानी को किया गया । कंपनी गार्डन अल्फ्रेड पार्क या चंद्रशेखर आजाद पार्क: भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी और सपूत चंद्रशेखर आजाद की यह शहादत स्थली है। १९३१ में पार्क में आजाद अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह दुखद घटना २७ फ़रवरी १९३१ के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी। संग्रहालय: आजाद पार्क में ही एक संग्रहालय भी है जिसमें पुरातात्विक और आधुनिक इतिहास की प्रचुर सामग्री संजोई हुई है।
 आंनद भवन : यह स्थान इलाहाबाद विश्व विद्यालय के पास ही स्थित है।।यह देश के पहले प्रधानमंत्री का आवास है ,जिसमें अब संग्रहालय (नेहरू जी से जुड़ी सामग्री है यहां)और तारामंडल खोल दिया गया है। इलाहाबादी अमरूद: सर्दी के मौसम में इलाहाबाद गए और इलाहाबादी अमरूद न खाया तो क्या खाया। यह अपने आकर्षक रंग और स्वाद के लिए मशहूर है। इस पर लाल रंग की चित्ती (प्राकृतिक दानों वाली छाप)काफी आकर्षक लगती है। दूर से कई बार सेब का भ्रम होने लगता है। यह काटने पर इसका गूदा भी लाल रंग का होता है।
 किला: इलाहाबाद में यमुना नदी के किनारे अकबर का किला भी है पर यह आम लोगों के लिए बंद है। उत्तर प्रदेश का उच्च न्या यालय भी यहीं है। इसके अलावा भी प्रयागराज में बहुत कुछ देखने और समझने के लिए है जिसे उत्तर प्रदेश सूचना विभाग ने एक बुकलेट के रूप में प्रकाशित किया है। इसलिए उसके फोटो अटैच कर दे रहा हूं। सूचना विभाग की वेबसाइट से भी जानकारी ले सकते हैं। कुंभ की भी सरकार ने एक वेबसाइट बनवाई है,जिससे जरूरी जानकारी मिल सकती है। यातायात: प्रयागराज दिल्ली और देश के सभी प्रमुख शहरों से रेल से जुड़ा है। यहा एयर पोर्ट भी है, साथ ही दिल्ली से बस से भी आ सकते हैं।
 आ स पास के प्रमुख शहर और दर्शनीय स्थल: इलाहाबाद से ९० किलोमीटर की दूरी पर मिर्जापुर है। यह विंध्याचल, अष्टभुजा और काली खोह मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। मिर्जापुर नगरपालिका कार्यालय की नक्काशी काफी खूबसूरत है। गंगा किनारे बसे शहर के घाट बहुत खूब सूरत हैं। शहर से ८ किलोमीटर दूर विंधम फाल, टांडा फाल अपनी खूबसूरती के लिए चर्चित रहते हैं।
खजूरी डैम का नज़ारा बेहद खू बसूरत है। इसके अलावा भी आसपास कई खूबसूरत स्थान है। यहां से ३० किलोमीटर दूर चुनार गढ़ किला (नीरजा गुलेरी के चंद्रकांता धारावाहिक वाला यहीं हैं) इसके अलावा पास में ही शक्तेशगढ आश्रम आदि हैं। अधिक जानकारी www.mirzapur.nic.in से प्राप्त की जा सकती है। Chunar यह मीरजापुर की ही तहसील है और प्लास्टर of पेरिस के बर्तनों के लिए देश भर में प्रसिद्ध है। इसके अलावा मिर्जापुर जिला कालीन निर्माण और पीतल के बर्तनों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है। इलाहाबाद से 120 kilomeetar दूर स्थित वाराणसी हिन्दू और बौद्ध धर्मावलंबियों की आस्था का प्रमुख केंद्र है।
 विश्वनाथ टेंपल,bhu, सारनाथ समेत अनेक स्थल यहां आसपास दर्शनीय है। मिर्ज़ापुर और बनारस दोनों ही बस और रेल मार्ग से अच्छे से जुड़े हुए हैं। बनारस से अंतर राष्ट्रीय उड़ान भी संचालित होती है।

बुधवार, 2 जनवरी 2019

तस्वीरों में देखिए कुंभ की तैयारी और प्रयागराज की भव्यता


अभी देश की colourfull city का नाम लेते ही आपके जेहन में गुलाबी नगरी यानी pink city जयपुर का खयाल आता होगा। पर नए साल पर आप इलाहाबाद आएं और रंगीन मकानों, सरकारी संपत्तियों और हर्ष से भरे मस्त लोगों को देखें तो हैरान मत होइएगा। दरअसल यह आपका प्रयागराज ही है, जिसे अर्ध कुंभ २०१९ में आपके स्वागत और आध्यात्मिक खुशियां देने के लिए संवारा गया है। आखिर हो भी क्यों न , अंदर और बाहर की चुनौतियों से जूझ रहे हिंदू समाज के लिए हर्ष प्रकट करने का सबसे बड़ा आध्यात्मिक उत्सव है कुंभ।


  कुंभ मेला है क्या: कुंभ पर्व हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ के दौरान स्नान करते हैं । यह मेला देश में चार स्थानों पर हर बारहवें वर्ष हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में बारी बारी से लगता है। इसके अलावा प्रयाग में हर छठे वर्ष अर्ध कुंभ लगता है। प्रयाग में पिछला कुंभ २०१३ में लगा था। इस तरह २०१९ में प्रयाग में लग रहा यह मेला अर्धकुंभ है, जिसे सरकार कुंभ की तरह आयोजित कर रही है । खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को "कुम्भ स्नान-योग" कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। 


इतिहास : भारत में नदी मेलों का इतिहास हजारों साल पुराना है विकिपीडिया के मुताबिक इतिहासकार एस बी रॉय ने भारत में अनुष्ठानिक नदी स्नान को १०,००० ईसापूर्व (ईपू) बताया है। इसके अलावा बौद्ध लेखों में ६०० ईपू नदी मेलों की उपस्थिति बताई है। वहीं सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में आए एक यूनानी दूत ने देश में ४०० ईपू एक नदी मेले का जिक्र किया है। क्या होता है कुंभ मेला: वैसे तो हर साल प्रयाग में गंगा नदी के किनारे मकर संक्रांति से मेला लगता है। यहां देश के कोने कोने से हिंदू श्रद्धालु आते हैं और डेढ़ महीने यहीं रहकर गंगा स्नान और धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। कुंभ में आयोजन बड़ा हो जाता है।। चूंकि माइथोलॉजी पुनर्जन्म की धारणा पर चलती है और अच्छे फल या जीवन के लिए पुण्य करने पर जोर देती है, जिसके लिए अच्छे सामाजिक और धार्मिक कार्य करने होते हैं जिससे पुण्य अर्जित हो। जिसका लाभ अभी और अगला जन्म लेने पर मिलता है। इसके लिए सामान्य हिंदू से लेकर तमाम धर्मगुरु तक एक सतह पर बराबरी के साथ एक ही प्रक्रिया में भाग लेते हैं, चूंकि गंगा को हिंदू माइथोलॉजी में पाप नाशिनी और सभी नदियों में श्रेष्ठ माना जाता है और प्रयाग (माइथोलॉजी के मुताबिक संसार की रचना का कार्य करने वाले देवता ब्रह्मा ने इंसान के कल्याण के लिए यहां प्रकृष्ट्याग यज्ञ किया था जिसका असर इसके बाद भी रहना था इस वजह से शहर का नाम प्रयाग पड़ा)गंगा नदी किनारे पड़ता है इसीलिए यहां लगने वाले मेले का महत्व बढ़ जाता है। इसके अलावा कुंभ मेला लगने की वजह बताने वाली प्रचलित कहानियों के विषय में मैंने एक पोस्ट में जिक्र किया है। फिलहाल यहां इन डेढ़ महीनों में लोग पुण्य अर्जित करते हैं। इसके लिए यहां दिन भर धार्मिक कार्य, भजन कीर्तन, अनुष्ठान, सत्संग, प्रवचन, राम और कृष्ण की लीला,भंडारे चलते रहते हैं जहां कोई भी प्रसाद ग्रहण कर सकता है। मतलब साफ है कि डेढ़ महीने कम से कम इस क्षेत्र में भूखे पेट किसी को सोने की मजबूरी नहीं है। तमाम लोग रक्तदान शिविर, दान और अपने मत का प्रचार भी करते हैं मतलब सबकी बुनियाद में परमार्थ है। इस मेले में हिंदू धर्म के विभिन्न मतों शैव, शाक्त और तमाम अन्य शामिल होते हैं इसके लिए गंगा किनारे दोनों ओर तंबुओं का अस्थाई शहर बसता है जिसके लिए हर बुनियादी जरूरत सड़क बिजली पानी बैंक पोस्ट ऑफिस पुलिस सरकारी राशन की दुकान आदि कुल मिलाकर जितनी व्यवस्थाएं शहरों में मुहैया कराती है सब यहां होती है। इसके लिए साल भर काम चलता रहता है। सरकार खुद की योजना के प्रचार प्रसार के लिए प्रदर्शनी भी लगाती है। व्यापारिक प्रदर्शनी और दुकान भी लगती है। झूले और मनोरंजन के इंतजाम भी होते हैं।


https://kumbh.gov.in/hi/attractionshttps://brahmaastra.blogspot.com/2019/01/blog-post_12.html?m=1https://brahmaastra.blogspot.com/2019/01/blog-post_6.html?m=1https://brahmaastra.blogspot.com/2018/12/blog-post_26.html?m=1 मेले की बड़ा होने से इसके प्रबंधन पर अध्ययन करने विदेशी भी आते हैं। इस बार इसे और भव्य बनाया जा रहा है। इस बार मेला अरैल घाट से शुरू होकर लोगों से मिली जानकारी परा कोके मुताबिक फाफामऊ के पास तक पहुंच गया है अंदाजन यह गंगा के विशाल पाट में तकरीबन 20 किलोमीटर क्षेत्र में फ़ैल गया है। आइए तस्वीरों में देखते हैं कुंभ की तैयारी: यह फोटो मेरे एक मित्र ने सोशल वेसाइट पर अपलोड की थी जिसे उसके किसी मित्र से मिली थी, अच्छी वस्तु का प्रसार हो इसलिए मैं ने सोचा इसे यहां भी साझा करनी चाहिए। आइए तस्वीरों में निहारते हैं प्रयाग कुंभ का सौन्दर्य।