विचार

शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

राफेल विमान विवाद : कितनी हकीक़त कितना अफसाना

देश के अभिजात्य के पलकों के साये में पले बढ़े राहुल गांधी 2004 में अमेठी से चुनाव जीतने के बाद महज 15 साल में देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष पद तक पहुंच गए। ऐसी किस्मत कांग्रेस के किसी दूसरे कार्यकर्ता की कब होगी पता नहीं पर राहुल पहली बार किसी जिम्मेदारी को उठाने के लिये शायद मजबूर किये गए हैं। इससे पहले तक एक अनिच्छुक राजकुमार के रूप में उनके पास बेशुमार ताकते थीं मगर जिम्मेदारी कुछ भी नहीं। अब मीठा मीठा गप्प कड़वा कड़वा थू से काम नहीं चलेगा, अब पार्टी के सफलता का श्रेय राहुल को दिया जाएगा तो असफलता भी स्वीकार करनी होगी।
 राहुल के पार्टी अध्यक्ष दिसंबर 2017 बनने के बाद अब बड़े राज्यों में मध्यप्रदेश और राजस्थान में चुनाव प्रक्रिया चल रही है। इससे पहले पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में फरवरी में हुए चुनाव में उनकी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। मगर इन चुनावों के परिणाम से उनका वास्तविक मूल्यांकन जरूर होगा। फिलहाल उनकी अगुवाई में कांग्रेस ने एंटनी समिति की उस सिफारिश पर अमल करना शुरू किया है जिसमें समिति ने 2014 के चुनावों में हार की प्रमुख वजह मुस्लिम समुदाय की ओर पार्टी के अधिक झुकाव की चर्चा को वजह बताई गई थी। इससे अब कांग्रेस अध्यक्ष मंदिर मंदिर घूम रहे हैं, इससे पहले यह क्षेत्र मुख्य रूप से बीजेपी नेताओं का समझा जाता था। इससे पहले तक पार्टी महज इफ्तार पार्टी ही मानते देखी जाती थी। मगर संकेत की इस राजनीति से उनकी पार्टी और मतदाता को क्या मिलेगा और यह सिर्फ चुनावी हार का दबाव है तो आमलोग इसे कितना स्वीकार करेंगे यह समय ही बताएगा। और यह भी की जिस वजह से एक समुदाय विशेष इस पार्टी से नजदीकी महसूस करता था अब उसका कांग्रेस से कैसा रिश्ता रहेगा।
 फिलहाल राहुल नीत कांग्रेस में सत्ता की अकुलाहट नजर आ रही है। इसको लेकर कांग्रेस तमाम उन रास्तों पर बढ़ रही है जिसके लिए वह बीजेपी की आलोचना करती थी। अब धर्म और जाति का खुलेआम प्रदर्शन शर्म का बायस नहीं बन रही है। मध्य प्रदेश शिवभक्त राहुल और राहुल की जाति ब्राह्मण जैसे पोस्टर से पट रहा है, हालांकि देश का बौद्धिक गिरोह चुप्पी साधे है। हालांकि देश की एक राष्ट्रीय पार्टी की ओर से इस तरह का व्यवहार समझ से परे है फिर सपा, बसपा, डीएमके में क्या फर्क होगा।
राफेल सौदा: फिलहाल राहुल देश के लिये फ्रांस से खरीदे जाने वाले राफेल विमान को लेकर खासे आक्रामक हैं। वो इसमें अनियमितता का आरोप लगा रहे हैं। हालांकि फ्रांस की सरकार और देश की केंद्र सरकार ने इसको खारिज किया है। उनकी एक आपत्ति खरीद के तहत विमान की बिक्री से मिलने वाली रकम के एक हिस्से का मेक इन इंडिया के तहत भारत की किसी कंपनी के साथ मिलकर निवेश करने के मामले का है। इसके लिए फ्रांसीसी देसा ने रिलायंस को पार्टनर चुना है। राहुल इसी को लेकर घेर रहे हैं हालांकि इसमें देसा-रिलायंस की हिस्सेदारी 51-49 की रहेगी। अगर ऐसा है तो यह कंपनी रिलायंस लीड नहीं करेगी मोटे तौर पर।
 फिलहाल दूसरा विवाद कीमत को लेकर है इसकी आधिकारिक कीमत अभी सामने नहीं आयी है और यही विवाद की भी वजह बन रही है। सब का अलग कैलकुलेशन है कांग्रेस कह रही है यह हमारी ओर से किये करार से महंगा है तो एनडीए सरकार उनके करार के विमानों में कुछ और छेजेलचीजें जुड़वाने के लिहाज से सस्ता बता रही है। बहरहाल जब तक कैग की रिपोर्ट नहीं आ जाती तब तक हर खिलाड़ी को अपने तरह से खेलने से कोई रोक नहीं सकता। बता दें कि यूपीए 2 के कार्यकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को हार में उनके कुशासन के साथ टू जी, कामनवेल्थ, आदर्श सोसायटी और रक्षा कंपनी के भ्रष्टाचार आदि को वजह बताया जाता है। अब फिर चुनाव है तो कुछ उसी तरह की चौसर सजाने की कोशिश हो रही है।
फिलहाल राफेल की खरीद प्रक्रिया की शुरुआत में चलते हैं अगस्त में इंडिया टूडे में एक रपट छपी है इसमें वरिष्ठ पत्रकार लिखते हैं कि मोदी सरकार के 36 विमानों की खरीद और यूपीए की 126 विमानों की खरीद की चर्चा की तुलना नहीं कि जा सकती। क्योंकि समझौते पर वास्तविक दस्तखत nda ने किए हैं, upa ने समझौता किया ही नहीं था। हालांकि दोनों ने ने ही सही लागत का ब्योरा जाहिर नहीं किया है।
इसी रिपोर्ट में रक्षा विश्लेषक नितिन गोखले की किताब सिक्यॉरिंग इंडिया द मोदी वे के हवाले से उल्लेख है कि 2011 में रक्षा मंत्रालय ने 2011 में इस खरीद के लिये 163403 करोड़ रुपये यानी करीब 23 अरब यूरो का बेंच मार्क तय किया था। इस आंकड़े के मुताबिक प्रति विमान लागत 1296 करोड़ बैठती। पर विमानों की अधिग्रहण की लागत जैसा कि किताब में जिक्र है 126mmrca के लिए अनुबंधित कुल लागत से अलग थी, जिसके लिये रक्षा मंत्रालय ने 69454 करोड़ का बेंच मार्क तय किया था। इसमें ऑफसेट लोडिंग की लागत शामिल नहीं थी जिसकी अनुमानित लागत 2530 करोड़ से 5060 करोड़ के बीच रखी गई है। इससे ऐसा लगता है कि विमानों की कीमत 1296 करोड़ से भी ज्यादा बैठती। यह हाल टैब था जब कीमत के पेंच और अन्य मामलों को लेकर समझौता नहीं हो पा रहा था।
वहीं रपट में ही बताया गया है कि 2016 में 36 राफेल के तुरंत बाद रक्षा मंत्रालय ने एक ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफ़िंग में संकेत दिया था कि 36 राफेल के लिए 7.8 अरब यूरो का करार हुआ है। इसमें 5 अरब जहाजों के लिए और 2.85अरब इसमें लगने वाले हथियारों और भारत की विशिष्ट जरूरतों के मुताबिक कुछ विशिष्ट संवर्धन के एवज में दिए जाने थे। इन लड़ाकू विमानों को 70 करोड़ यूरो की लागत से  हवा से हवा में मार करने वाली मेंटॉर मिसाइल और हवा से सतह पर मार करने वाली स्कैल्प क्रूज मिसाइलों से लैस करने की बात भी जोड़ी गई। इसका उद्देश्य कम संख्या में मिलने वाले राफेल विमानों का अधिकतम उपयोग करके अपनी सामरिक जरूरतों की पूर्ति करना था। अगर ऐसा है तो अब का सौदा यूपीए की चर्चा से महंगा तो नहीं है। इधर रिपोर्ट में बताया गया है कि 12 मार्च को रक्षा राज्य मंत्री सुभाष भामरे ने बताया कि मोटे तौर पर एक राफेल की कीमत 670 करोड़ पड़ेगी। जिसमें संबंधित उपकरणों, हथियार आदि के खर्चे शामिल नहीं हैं। 
 अगर यही मामला है तो इस तरह मोठे तौर पर यूपीए के  1296 करोड़ और एनडीए के 670 करोड़ में कौन सस्ता है ज्यादा समझने में दिक्कत नहीं है फिर विवाद की वजह tit for tat जैसे को तैसा का लगता है। जैसा 2 जी घोटाले में फिलहाल तमाम अरोपी बरी हो गए मगर यूपीए की छवि को धक्का लगा और लोग सत्ता से बाहर होने को इसे बड़ी वजह मान रहे हैं।
मगर फिर दोनों दलों में फर्क क्या, वो मामला तो कैग की रिपोर्ट के बाद बवाल की वजह बना था मगर इसके लिए तो कैग की रिपोर्ट की भी जरूरत नहीं समझी जा रही है। ये तो असहिष्णुता है कांग्रेस जिसका आरोप बीजेपी नेताओं पर लगाती है। सबसे चिंता जनक है राजनीति रक्षा के मामले में हो रही है और उनकी चिंता नहीं कि जा रही है जिन्होंने देश को आजाद कराने के लिए बिना कुछ सोचे जान की बाजी लगा दी और कहा हम रहे न रहें यह देश रहे, और न ही ब्राह्मण और शिवभक्त का पोस्टर लगवाने वाले कांग्रेस अध्यक्ष उस ब्राह्मण चाणक्य की कही बात को याद कर रहे हैं जिसने कहा चंद्रगुप्त देश के लिये तुम राजा बने हो और जरूरत पड़ी तो तुम्हे सत्ता छोड़नी पड़ेगी(चाणक्य नाम की बुक से)। और यहाँ सिर्फ सत्ता के लिए क्या हो रहा है।
 इधर सत्ता की अकुलाहट इतनी बढ़ रही है कि 20 जुलाई को मानसून सत्र में लोकसभा में कांग्रेस अध्यक्ष के बयान से देश को शर्मशार होना पड़ा। दरअसल गांधी ने आरोप लगाया कि राफेल में सरकारी गोपनीयता के मामले में रक्षा मंत्री ने प्रधानमंत्री के कहने पर झूठ बोला था। इसमें उन्होंने कहा था कि फ्रांस के राष्ट्रपति ने उन्हें बताया था कि फ्रांस के साथ ऐसा कोई गोपनीयता समझौता नहीं हुआ था। कुछ घंटे बाद ही फ्रांस की सरकार ने राहुल की बात का खंडन कर दिया और गोपनीयता के मामले पर जोर दिया। इस मामले में वायु सेना अध्यक्ष को राफेल का पक्ष लेने पर राजनीतिक मामलों से दूर रहने की सलाह भी कांग्रेस की ओर से धमकाने जैसा ही था जो उचित नहीं है।
इधर राहुल की ओर से रिलायंस को देसा का पार्टनर बनाने के दबाव के आरोप से भी देसा और फ़्रांस की सरकार ने पल्ला झाड़ लिया है। इस तरह तो दूसरों की छवि पर बिना उचित सबूत दिए प्रहार से राहुल की छवि भी कितनी अच्छी बनेगी यह सवाल है। अभी कुछ दिनों पहले ट्रोलर्स की ओर से विदेश मंत्री को भला बुरा कहे जाने पर कुछ वेबसाइट के लेखों में कहा गया था ये भाजपा के पाले हु ट्रोलर्स हैं और भस्मासुर बन गए । इस नज़र से देखें तो राहुल की कवायद राजनीति के और पतन व झूठ के व्यापार के एक और नींव रखती नज़र आ रही है।