विचार

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

विपक्षी गठबंधन : ज्यादा जोगी मठ उजाड़


हस्तिनापुर(तकरीबन वर्तमान दिल्ली) के लिये समर की तैयारियां तेज हो गईं हैं। दोनों ही पक्ष , सत्ता पक्ष और विपक्ष अपने तीर कमान दुरुस्त करने में जुटा है। दोस्त भी जुटाए जा रहे हैं। इस पर दोनों पक्षों से अलग तमाम लोग नज़र भी रख रहे हैं। इस बीच मुझे एक बार फिर लगता है कि जीत तो उसी की होगी जिस तरफ कृष्ण(जनता) होंगे। भले ही उनकी अक्षौहिणी सेना(तमाम राजनीतिक दलों को समझ सकते हैं) किसी दूसरी तरफ से लड़े, एक बार फिर यह मानने में कोई दो राय नहीं होगी कि किसी भी प्रकार से घटनाक्रम ऐसा घटित होगा कि कृष्ण सही और उचित की ओर से लड़ेंगे यानी जीत तो सच की होनी चाहिए। खैर इस दृष्टांत के जरिये मैं आने वाले लोकसभा चुनाव को समझने का प्रयास कर रहा हूँ। इससे पहले हमारे यहां मशहूर दो कहावतों पर नज़रसनी चाहता हूँ। एक ज्यादा जोगी मठ उजाड़ और दूसरा नौ कनौजिया नब्बे चूल्हा मोटामोटी अर्थ यह समझिए कि इतने अधिक विभिन्नता वाले लोगों में मतैक्य की गुंजाइश कम समझिए। अब चलते हैं आज के राजनीतिक परिदृश्य पर। कोलकाता से हैदराबाद तक में कम से कम चार गठबंधन मोर्चे पर हैं जगह-जगह जोरआजमाइश हो रही है।

सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

पश्चिम बंगाल: मोर्चा भले ही पोलिस आयुक्त के आसपास है लड़ाई का मैदान लोकसभा चुनाव है


देश में व्यक्तित्व की विचित्रता वाले नेताओं के उभार से लोग दिग्भ्रमित हो रहे हैं, ये नेता ऐसे हैं कि कभी कुछ गलत कर ही नहीं सकते के अहंकार भाव से ग्रस्त हैं। इसकी शुरुआत यूपीए २ में अपनी ही सरकार के अध्यादेश को मीडिया के सामने फाड़कर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहसिंह को शर्मिंदा करने वाले वर्तमान पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने की। तब से यह रोग बढ़ता ही जा रहा है।
 दिल्ली से कोलकाता तक ऐसे मंजर आम है। इससे अराजकता का माहौल बन रहा है और देश के संघीय ढांचे को नुक़सान पहुंच रहा है। अफसोसनाक बात है सियासी मजबूरियों के कारण इसके लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। एक सवाल है कि क्या केंद्र सरकार के विरोध में होने भर से देश की पूरी व्यवस्था को ध्वस्त करने की आजादी दे दी जानी चाहिए। ताज़ा मामला पश्चिम बंगाल का है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर शारदा चिट फंड मामले की जांच कर रही सीबीआई टीम को रविवार को कोलकाता में हिरासत में ले लिया गया। केंद्रीय जांच एजेंसी की यह टीम कभी इसी मामले की जांच कर रही sit के अफसर और वर्तमान कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ करने पहुंची थी। इस दौरान सीबीआई की टीम को घंटों थाने में बैठाया जाना राज्य सरकार और पुलिस की सोच पर सवाल उठाता है। बाद में टीम को छोड़ दिया गया और मुख्यमंत्री धरने पर बैठ गईं और आरोप लगाया कि राजनीतिक विरोधियों को परेशान किया जा रहा है।
 सवाल यह है कि कोलकाता पुलिस आयुक्त क्या राजनीतिक पार्टी के सदस्य हैं और पूछताछ से पहले किसी मुख्यमंत्री को किसी अफसर को क्यों क्लीनचिट देना चाहिए था या इसके लिए कोर्ट का रास्ता नहीं था पर जो रास्ता अपनाया गया अभूतपूर्व था और अब इसने सुबहे को जरूर जन्म दे दिया। सबको पता है कि पुलिस और प्रशासन का मुखिया सरकार का पसंदीदा अफसर ही होता है ऐसे में मुख्यमंत्री का राजीव कुमार के पक्ष में उतरना और जिस घोटाले में बनर्जी सरकार से जुड़े मंत्री और लोग आरोपित हों उस जांच टीम के मुखिया को अहम जिम्मेदारी दिया जाना सवाल तो उठाएगा। इससे राजीव कुमार की व्यक्तिगत छवि को भी धक्का पहुंचेगा। शारदा घोटाले की जांच सीबीआई supreme Court ki निगरानी में कर रही है ऐसे में केंद्रीय एजेंसी को पूछताछ से रोककर क्या माननीय न्यायालय का सम्मान किया गया या संघीय ढांचे की फिक्र की गई या यह बातें विभिन्न दलों के लिए बस जुमले हैं।
या सवाल उठता है कि इससे सीबीआई और पोलिस को सांस्थानिक रूप से कोई मजबूती मिली या उसकी छवि और व्यवस्था को ही नुकसान पहुंचा और क्या सिर्फ केंद्रीय सरकार के विरोध के कारण ही सभी संस्थाओं को दांव पर लगा देने की छूट है जबकि सबको पता है कि इन संस्थाओं के जरिये ही शांसन व्यवस्था कायम होती है। दरअसल लड़ाई में मोहरा कोई भी बने इसकी बिसात आगामी लोकसभा चुनाव है और दांव पर है प्रधानमंत्री की कुर्सी। पिछले चुनाव में उत्तर प्रदेश समेत हिंदी पट्टी के राज्यों ने वर्तमान सरकार के प्रतिनिधियों पर खूब प्यार लुटाया था पर दक्षिण पश्चिम बंगाल आदि में अपेक्षित सफलता नही मिल सकी थी। हिंदी पट्टी में सर्वाधिक उभार के बाद ही भाजपा ने समझ लिया था कि अगले लोकसभा चुनाव में उसे शायद उतनी सफलता न मिले, इसलिए यहां होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए उसने दूसरे राज्यों में प्रयास शुरू कर दिया था। इसमें उसे सबसे ज्यादा उम्मीद 42 सीट वाले पश्चिम बंगाल और 21 सीट वाले उड़ीशा से है जहाँ पिछले चुनाव में भाजपा को ओडिशा में 1 सीट और बंगाल में 2 सीट ही जीत पाई है।
इधर दोनों ही राज्यों में भाजपा मजबूत विपक्ष बनकर उभरी है और यहां पहले से स्थापित पार्टीयों को पीछे धकेल कर नंबर 2 की पोजिशन ले ली है और पार्टी के पास करिश्माई चेहरा नरेंद्र मोदी का होने से डरे दल इसे रोकने के लिए ये सारी कवायद करते नज़र आ रहे हैं। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनाव में टीएमसी ने सभी 19 जिलों की 2467 पंचायत सीटों पर कब्जा जमाया और बीजेपी 386 सीट जीतकर दूसरे स्थान पर रही जबकि टीएमसी से पहले कई दशक तक शांसन करने वाली माकपा को 94 सीट ही नसीब हुई। इससे पहले हुए नगरीय निकाय चुनाव में सभी 7 पर कब्जा जमाया था और 148 में से 140 वार्ड में जीत दर्ज की थी पर अधिकतर पर बीजेपी दूसरे स्थान पर थी। इससे राज्य में तृणमूल के लिए खतरे की घंटी बज गई है क्योंकि राज्य में उसकी प्रतिद्वंद्वी बीजेपी बन चुकी है और दुसरे राज्यों मेंक्षेत्रीय दलों की तरह हाशिये पर जाने से बचने के लिए तृणमूल को उसे रोकना होगा। ऐसे में यह सारी कवायद खुद को प्रधानमंत्री मोदी के सामने मजबूत दिखाने की कवायद का हिस्सा नज़र आ रहा है क्योंकि यूपीए2 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कमजोर होने और मोदी के फैसले लेने में मजबूत होने की छवि का भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलने में अहम योगदान रहा था। इ
विपक्षी दलों की ओर से प्लान बी पर भी काम किया जा रहा है जिसमें न भाजपानीत एनडीए की सरकार बने न कांग्रेसनीत यूपीए की, बल्कि इनसे अलग बाकी दलों की गठबंधन सरकार बने ऐसे में पूर्व में हुए इन्द्र कुमार गुजराल और hd देवगौड़ा वाले प्रयोग के मुताबिक कइयो को अपने लिए संभावना दिखती है। ऐसे में अंदरखाने सब अपने समीकरण दुरुस्त करने में जुटे हैं। बंगाल में ममता खुद को मोदी से टक्कर लेते दिखना चाहती हैं तो महाराष्ट में पवार और उत्तर प्रदेश में माया की हसरत किसी से छिपी नहीं है। वहीं दक्षिण में केसीआर और चंद्र बाबू नायडू अपनी गोटियां बिछा रहे हैं। दिल्ली के केजरीवाल तो मोदी के खिलाफ चुनाव तक लड़ चुके हैं। इसमे जांच एजेंसियों से लेकर चुनाव आयोग तक को निशाना बनाये जाने से कोई झिझक नही रहा है। इसमें किसी को चिंता नहीं है कि संस्थानों पर से आम जनता का विश्वास उठ गया तो इनकी लगाई आग बुझाए न बुझेगी। फिर कुर्सी पर कोई भी क्यों न हो।

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2019

सदन में मोदी मोदी और राहुल जागो - राहुल जागो के लगे नारे


चुनावी साल में नई सरकार के गठन से पहले के लिए बहुप्रतीक्षित देश का अंतरिम बजट पेश हो गया। अभी कई दिन तक विद्वान इसकी मीमांसा करते रहेंगे। पर जैसा की समझा जा रहा था की बीमारी के इलाज के लिए कड़वी गोली देने पर भरोसा करने वाले "डॉक्टर" मोदी की टीम ने इस बार कड़वी गोली से परहेंज किया और खूब मीठी गोली खिलाई। इसी के साथ वोटों की खेती के लिए चुनावी जमीन पर भरपूर पैदावार वाले बीज भी बो दिया। इसी का नक्तीजा है कि भले ही पक्ष बजट का हमेशा समर्थन और विपक्ष विरोध करता रहेगा पर वोट देने वाले हर वर्ग के लिए बजट में कुछ। न कुछ है। इसी कारण वित्त मंत्री के बजट भाषण के दौरान लगातार एक मिनट से ज्यादा तालियां बजती रहीं। यही कारण है कि सदन में मोदी मोदी के नारे गूंजते रहे तो राहुल जागो राहुल जागो की गूंज भी सुनाई दी। इसी के साथ विपक्ष के नेताओं के चेहरों की हंसी भी गायब थी। कुल मिलाकर यह बजट सवर्ण आरक्षण, आयुष्मान भारत कई और योजनाओं की अगली कड़ी में चुनाव के लिए मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक साबित हो सकती है। राहुल जागो राहुल जागो का नारा सत्ता पक्ष का खुद पर भरोसा दिखाता है तो तब तक विपक्ष का विरोध न करना उनके हैरान होने की ओर इशारा करता है। अभी बजट की मीमांसा विद्वान और राजनीतिक दल अपने हिसाब से और अपने लाभ हानि के हिसाब से लोगों के सामने रखेंगे पर आम तौर पर बजट भाषण सुनकर और कुछ विशेषज्ञों को सुनकर राय बनाने वाले वर्ग की बांछे खिल गई है। अब तक विपक्ष जिन मुद्दों को लेकर सरकार को घेरने की कोशिश कर रहा था सरकार ने उन्हीं पर इलाज और मरहम की शायद कोशिश की है। बजट में दो एकड़ तक वाले किसानों के लिए सालाना ६००० तीन किश्तों में देने की बात कही गई है यह सहायता ऊंट के मुंह में जीरा है पर जैसा हमारे यहां कि संस्कृति बन गई है कि लोग महज कुछ रुपयों के प्रत्यक्ष फायदे को ही फायदा मानते हैं। उनको यह खुश करेगी। खास बात यह है शायद पहली बार ऐसा हो रहा है कि कोई योजना बैक डेट से लागू की जा रही है। इस योजना को संभवतः पिछले दिसंबर २०१८ से लागू की रही है। मतलब चुनाव से पहले एक किश्त नियमो में आने वाले किसानों के खाते में पहुंच जाएगी। इससे बड़ी संख्या में किसानों को लाभ होगा, दूसरी और योजनाओं का भी धीरे धीरे पता चलेगा। इधर दूसरी अन्य कल्याणकारी योजनाएं चलती रहेंगी। और बहुत सारी मई के बाद आने वाले पूर्ण बजट में और इससे पहले चुनावी घोषणा पत्र में सामने आएंगी। कुल मिलाकर वोटों की खेती की खूब कोशिश की गई है बशर्ते यूपी चुनाव के दौरान अखिलेश सरकार की लैपटॉप योजना सा हश्र एन हो। सरकार ने मध्यम वर्ग, मझोले व्यापारियों नौकरी पेशा लोगों को भी रिझाने की कोशिश की है, जो संख्या और वोट के हिसाब से काफी बड़ा हिस्सा है। इस तरह वोट का यह बड़ा कोकतेल बनाता है खास तौर से सरकारों के खिलाफ माहौल बनाने में इस वर्ग का बड़ा हाथ होता है क्योंकि बड़े सामाजिक वर्ग में इसकी पहुंच और इसका असर होता है। सरकार ने आयकर स्लैब बढ़ा दिया है अब ५ लाख तक आमदनी वाले व्यक्ति को कोई कर नहीं देना होगा। साथ कुछ निवेश कर साढ़े सात लाख तक की आमदनी वाले लोग भी आयकर देने से बच जाएंगे। इसके इससे ऊपर की आमदनी वाले स्लैब से छेड़छाड़ न कर बड़े लोगों की हतैशी होने के आरोप से भी बचने की कोशिश की गई है। साथ ही क्यों का त्यों रखकर उसे नाराज भी नहीं किया गया है। Gst council ki agli baithak men भी कमी का संकेत है। इसके अलावा राजकोषीय घाटा आदि कम करने के ऐलानों से उद्योग जगत भी हर्षित है । आम और मध्यम वर्ग के लोगों ने तो इसका स्वागत किया ही है। बजट के दौरान हर सेगमेंट के जिक्र के साथ इन विकास कार्यों से युवाओं को रोजगार मिलेगा और मिल रहा है बताकर वित्त मंत्री ने युवाओं में भरोसा जगाने की कोशिश की है। उन्होंने बजट भाषण में ५ से अधिक बार युवाओं को रोज़गार का जिक्र कर बताने की कोशिश की है कि युवा उसके केंद्र में हैं। साथ ही यह विपक्ष के आरोपों पर सफाई भी थी नजर आ रहा था कि सरकार इस मोर्चे पर दबाव में है। फिलहाल केंद्र सरकार ने अपनी बैटिंग कर डी है देखना है कि उसे कितने ran मिलते हैं पर समय के अभाव में बजट और चुनाव पर फिलहाल इतनी ही बातें और बाकी बातें बाद में।