विचार

सोमवार, 30 सितंबर 2019

किसान



गर्मी की दोपहरी में

  दूर कहीं धूप में
  जहां आग है बरस रही
  एक आकृति हिलती- डुलती है
  पकड़े हलों की मूठ हाथ में

   जल रहा है पेट की आग से
   उसका खून ही पसीना बन टपक रहा
  तन पर चीथड़े हैं उस पर भी
  सूर्य की तपन का क्रोध
  धरती भी उसी को जलाकर प्रतिशोध ले रही

  तपती लू को झेलते
  इस आस में भर पेट रोटी मिलेगी
  अगले साल किसी पेड़ की छाह में
  इस विशाल नभ के नीचे
  इस हत भाग्य को
  सपनीली दीवारों पर
  मिलती यही अलौकिक छत है।

सर्दी में

   जाड़ों में जब हम घरों में बैठे होते हैं
   हीटर, आग के पास बैठे कांप रहे होते हैं
   पानी को बर्फ समझ छूते हैं
   हाड़ कंपा देने वाली ठंड में

   किसान कुछ चीथड़े पहने
   खेतों में सिंचाई की क्यारियां बनाते
   पानी में ही खड़ा रहता है ठिठुरते कंपकंपाते
   घर से दूर कहीं सेंवार में

   इस समय भी साथ देते हैं उसका
   वही मरते मिटते सुनहरे सपने
   दिन हो या रात में

बरसात में

    जब हम वर्षा की फुहारों का इंतज़ार करते हैं
   किसान भी इंतज़ार करता है आशा भरी बूंदों की
  पर वर्षा की बूंदें खपरैलों छप्परों से टपकती
  वजूद को झकझोर छोड़ जाती है रीता

   बादलों के गर्जन और बिजली की तड़प
  बढ़ाती है किसान की आस और विश्वास को
  लहलहाती फसलों से आह्लादित
  फसलों के पकने का इंतज़ार करता है


  तैयार फसल से निकला अनाज
  तमाम कर्जों और सूदों को चुकाने के बाद
  कुछ दिनों की खुशियां दे पाती हैं
  भूख मिटाने वाला भूखा सोता है
  जीवनदाता भूखों मरता है
  अगले वर्ष फिर शुरू होता है
  वही अंतर्द्वंद्व और अंतर्विरोध।





गुरुवार, 19 सितंबर 2019

किसान का दुख


२००७ से पहले इलाहाबाद में लिखी मेरी कविता जिसमें किसान की सोच को मैंने आज के हालात में समझने की कोशिश की थी, जो अब भी कमोबेश वहीं हैं।
 –-----

     देखो-देखो फूटी विकास की चिंगारी 
    हो गई मेरी छप्पर राख।
    मुझमें से ही किसी से विकास का गुणगान कराया 
  देने लगे मुझे "राख का प्रसाद"।।

 कौन दिखलाये रास्ता, कौन दे हमें सहारा।
 आंखों से छलके आंसू,दिल से निकली आह
एक आंखों की हद में सूखी, दूसरी लौट आई मेरे पास।।
 
   एक मन जलाए, दूजी तन जलाए।
  मेरी छटपटाहट कौन समझे, कौन समझाए।।
  मेरे आंसुओं की है क्या कीमत।
  जब मेरी पीड़ा कुछ को सुख दे अनमोल।।


 फिर कोई क्यों पसीजे, दुनिया चलती अपनी राह ।
है मुझको क्या अधिकार, कथा कहूँ अपनी दुनिया की
जो हुई मेरे देखते तबाह।।


  जमीन पुरखों की थी चली गई। दर-दर रोटी को भटकूँगा। क्या मुझको मिलेगा काम।। न जाने कब इस टीस संग मुझको मिल पाए आनंद "विश्राम"।

रविवार, 15 सितंबर 2019

बाजार के भरोसे हिंदी

   
१४ सितंबर यानी राजभाषा दिवस पर शनिवार को देश भर में एक तरह से कर्मकांड हुए। सरकारी दफ्तरों, स्कूल, कॉलेजों में कविता, कहानी के कार्यक्रम और गोष्ठी होंगी और पखवाड़ा पूरा होने के बाद साल भर तक के लिए छुट्टी, बीच में एक आध आपस में पत्र लिखकर कर्तव्य की इतिश्री। ये ऐसा ही है जैसा हर साल हम पितृ पक्ष में पितरों का बिना किसी समझ, सोच और भावना के पिंडदान और तर्पण कर देते हैं नतीजा वही ढाक के तीन पात होना ही था, इसीलिये हिंदी भाषी राज्यों में भी पूर्ण रूप से ७२ साल बाद भी हिंदी में कामकाज शुरू नहीं हो पाया है और कामकाज पर अंग्रेजी का दबदबा है, जहां अगर गैर हिंदी भाषी राज्य या अफसर या विदेशी प्रतिनिधि से ही बातचीत के लिए दूसरी भाषा की जरूरत है। दरअसल एक दौर में अपने अभिजात्य के प्रदर्शन और बहुसंख्यक से खुद को अलग दिखाने के लिए अफसर और बड़े लोगों में फारसी बातचीत की रिवायत थी, बाद में यह जगह अंग्रेजी ने ले ली। आज के अफसर भी इस सोच से अभी उबर नहीं पाए हैं। 
     अब तो हिंदी का नाम लेते ही बवाल होना आम है। हाल में हिंदी को लेकर गृहमंत्री अमित शाह के बयान,हिंदी ही पूरे देश को एकजुट रख सकती है के बयान पर बवाल इसकी बानगी है जिसमें पश्चिम बंगाल तेलंगाना और तमिलाडु में विपक्ष के नेताओं और कुछ स्वनामधन्य पत्रकारों ने भी हंगामा किया है जिन्हे अनावश्यक ही देश की विविधता को लेकर डर सताता रहता है। जबकि दक्षिण के विद्वानों समेत तमाम लोग ऐसी बात सालों पहले कह चुके हैं। ये जमीन इसलिए इन्हे मिल पाई है क्योंकि सरकारी स्तर पर हिंदी को प्रतिष्ठित करने की जिम्मदारी जिस पर थी वो इसे नहीं कर पाए और अफसर इस तोहमत से तोहमत से बच नहीं सकते। आइए देखते हैं कुछ विद्वानों के विचार –

भाषा के उत्थान में एक भाषा का होना आवश्यक है। इसलिए हिन्दी सबकी साझा भाषा है। 
- पं. कृ. रंगनाथ पिल्लयार

मैं मानती हूं कि हिन्दी प्रचार से राष्ट्र का ऐक्य जितना बढ़ सकता है वैसा बहुत कम चीजों से बढ़ सकेगा। 
- लीलावती मुंशी

हिन्दी का पौधा दक्षिणवालों ने त्याग से सींचा है। 
- शंकरराव कप्पीकेरी

राष्ट्रभाषा हिन्दी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है। 
- अनंत गोपाल शेवड़े 

दक्षिण की हिन्दी विरोधी नीति वास्तव में दक्षिण की नहीं, बल्कि कुछ अंग्रेजी भक्तों की नीति है। 
- के.सी. सारंगमठ

हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। 
- वी. कृष्णस्वामी अय्यर

हिन्दी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है। 
- माखनलाल चतुर्वेदी

हिन्दी भाषा के लिए मेरा प्रेम सब हिन्दी प्रेमी जानते हैं। हिन्दी भाषा का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है। अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता-समझता है। 
- महात्मा गाँधी

हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य को सर्वांगसुंदर बनाना हमारा कर्त्तव्य है। 
- डॉ. राजेंद्रप्रसाद

हिन्दी का काम देश का काम है, समूचे राष्ट्रनिर्माण का प्रश्न है। 
- बाबूराम सक्सेना

     भारत में हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए बने संगठनों का परिणाम आधारित आंकलन करें तो नतीजा इसके उलट शायद ही आये। इसलिए हिंदी की हाय तौबा के बीच हमें इस राजभाषा दिवस पर क्या खोया क्या पाया का मूल्यांकन करने और जिम्मेदारों के काम का आकलन करने की भी जरूरत है। मैं राजभाषा विभाग की वेबसाइट www. rajbhasha.in देख रहा था, जिसमें उन्होंने अपने काम का बखान किया है। यह विभाग १९७८से एक त्रैमासिक पत्रिका प्रकाशित करता है राजभाषा भारती प्रकाशित करता है, दावा किया गया है कि केंद्र सरकार के कार्यालयों में इसे हिंदी के प्रचार के लिए बांटा जाता है खैर मैंने तो तब जाना जब खोजते खोजते वेबसाइट पर पहुंचा। ये और बात है कि सरकारी दफ्तर में पत्रिका बांटने से कितना प्रचार हो सकेगा, गैर हिंदी भाषी आम लोगों के जुड़ाव के लिए क्या किया। आज के बाज़ार से ही सीख लेते हिंदी भाषा पर केबीसी टाईप सीरियल ही चलवा देते तो भी कुछ भला हो जाता। खैर ये हिंदी के प्रसार के लिए सरकारी प्रयास की बानगी भर है,दूसरे प्रयास भी मिलते जुलते ही हैं । इसलिए परिणाम भी हमारे सामने है।
     खैर हर जगह अंधेरा ही नहीं है, उम्मीद अभी भी बाकी है। प्रसिद्ध कवि नाजिम हिकमत की कविता का अंश सबसे खूबसूरत दिन अभी देखा नहीं मैंने और जॉन मिल्सान का कथन हर बादल में आशा की एक किरण होती है यही भरोसा दिलाते हैं। रफ्ता रफ्ता बढ़ रही Hindi इसको पुष्ट भी कर रही है। देश और दुनिया की बड़ी आबादी नौकरी रोजगार और सांस्कृतिक समागम के लिए हिंदी को सीख रही है। यही वजह है कि दक्षिण भारत और अन्य हिस्सों से आन्योत्तर भारत आने वाले लोग आसान हिंदी सीख ही रहे है, हिंदी का सार्वजनिक विरोध के बाद भी गैर हिंदी भाषी राज्यों खासकर तमाम निजी स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जा रही है, जनसंपर्क की एक बड़ी भाषा सीखने का उन्हें लाभ भी मिल रहा है हिंदी भी बढ़ रही है दुनिया के दूसरे देशों के लोग भी ऐसा ही कर रहे हैं नतीजतन आज संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिंदी में अपना ट्विटर हैंडल भी शुरू किया है और इनकी ओर से हिंदी में न्यूज बुलेटिन भी शुरू किया गया है। हिंदी दिवस पर २०१९ में दैनिक भास्कर अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुतबिक़ बीते चार दशक में हिंदी बोलने वाले 19% बढ़े हैं। अकेले10 साल में हिंदी भाषी 10 करोड़ बढ़ गए। जबकि इसी दौरान अन्य 9 भाषाएं बोलने वालों की संख्या घटी है। यह बातें उम्मीद की किरण दिखाती हैं।
    अफसोस की बात है कि उत्तर भारत में अभी बच्चों को एक और भाषा सिखाने की भले ही दक्षिण की ही सही दृष्टि शिक्षण संस्थानों में विकसित नहीं हो पाई है इससे रोजगार के अवसर भी विस्तृत होते देश का एकीकरण भी मजबूत होता पर सुकून यही है कि पांव पांव चलते बाज़ार संस्कृति और संख्या के भरोसे हिंदी बढ़ रही है। हिंदी सिनेमा का इसमें बड़ा योगदान है। आज दक्षिण भारत,पश्चिम भारत,पूर्वोत्तर और अमेरिका यूरोप के लोग तक इस उद्योग से जुड़ रहे हैं और इस बाज़ार से संवाद के लिए हिंदी सीख रहे हैं जो भविष्य को लेकर उम्मीद बांधती है। इसे इनके विचारों से समझा का सकता है।

हमारे देश में हिंदी हमारी फिल्मों के चलते ही बची हुई है। मैं न्यूयॉर्क में था। वहां एक अफगानी ने मुझसे हिंदी में बात की। वह इसलिए कि वह हमारी फिल्मों का बहुत बड़ा फैन रहा है। जर्मनी में एक व्यक्ति हिंदी गाना गाते हुए दिखा। हिंदी फिल्मों के कारण हिंदी स्प्रेड हो रही है।
- मानव कौल, अभिनेता

मैं जब इटली से इंडिया आई, तभी जरूरत महसूस हुई कि हिंदी सीख लेनी चाहिए। मेरे खयाल से बॉलीवुड में हिंदी भाषा आना बहुत ही आवश्यक है। मैं आज भी हिंदी के नए शब्दों को सीखती हूं। मुझे हिंदी भाषा समझने और लोगों को अपनी बात समझाने में 5-6 महीने का वक्त लग गया। हिंदी सीखने के लिए किताबें पढ़ने के साथ-साथ लिखना और पढ़ना अपनी टीचर अपर्णा से सीखा।
- जॉर्जिया एंड्रियानी, इटली में जन्मी और वहां पली-बढ़ी