विचार

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

अजब दुनिया

ऐ दुनिया भी क्या खूब है..कब क्या हो जाय कहा नही जा सकता .गंजे लोग अपने बाल उगाने के लिए क्या-क्या जातां नही करते और कही न कहीं उन्हें सर पर बाल न होने का अफ़सोस होता था,लेकिन अब बाज़ी पलट गई है.न्यू जीलैंड की एक एयर लिनस कंपनी गंजो के सर पर अपना विज्ञापन देने जा रही है,जिसके उन्हें १००० डॉलर मिलेंगे ...मतलब शुद्ध मुनाफा न बालो को सवारने में कोई खर्च औरअब उसका व्यावसायिक उपयोग अब तो बल वालो को भी इनसे रश्क होगा क्योंकि महगाई बढती जा रही है.

बुधवार, 10 सितंबर 2008

कोसी के बहाने

बिहार प्रान्त में कोसी नदी में आई बाढ़ ने करीब ३५ लाख लोगो को प्रभावित किया है इस बाढ़ ने अरबों रूपये की संपत्ति को भी तहस नहस कर दिया है.सरकार सेना नागरिक और अन्य संगठन इससे निपटने की कोशिश कर रहे हैं.और व्यवस्था को पटरी पर लाने में लगे हैं ?किंतु इस बाढ़ ने हमारे सामने कुछ प्रश्न खड़े कर दिये हैं.जिनके जवाब ढूढना बेहद जरूरी है।

पहली ऐसी विपत्तियों के आ ही जाने के बाद इससे निपटने के लिए हम कितने तैयार हैं?क्योंकि बाढ़ के आने ने बाद लोग कई दिनों तक बाढ़ में फंसे रहे उन्हें बचाव और राहत सामग्री के लिए कई दिनों तक इंतजार करना पड़ा..और भोजन के पैकेट गिराए गए तो भीड़ के बीच जरूरत से कम पैकेट गिराए गए.जिससे छीना झपटी और आराजकता की घटनाएं घटी.अराजकता से निपटने की योजना हमारे पास है ?और ऐसी स्थिति में होने वाले अपराधों से निपटने में क्या हम सक्षम है? समाचारों में ऐसी खबरें भी आई हैं की जान बचाने के लिए नाविकों ने पर व्यक्ति हजारों रूपये चार्ज किए .क्या ऐसी स्थितियों में भी हम अपना स्वार्थ त्याग नही सकते लोलुपता की यह कैसी सामाजिक व्यवस्था है? ये घटनाएँ तब घाट रही हैं जब हमने आपदा प्रबंधन के लिए बाकायदा बोर्ड बना रखे हैं.
एक खामी यह दिखायी दी की नौकर शाही और अन्य संगठनो में समन्वय का अभाव है.ख़बर यह आई है की सेना को बचाव कार्य के लिए नौकरशाही से कई दिनों तक आदेश का इंतज़ार करना पडा.क्या कोई भी देश एक ही व्यक्ति और संगठन चला पायेगा?.और तब जब इसी देश में समन्वय की यह कल्पना की गई हो और उसकी शक्ति का बखान किया गया हो-


विकल व्यस्त विखरे पड़े हैं,शक्ति के विद्युत् कण निरूपाय

समन्वित करें जो इनको,विजयिनी मानवता हो जाय ।

- जयशंकर प्रसाद


पानी कम होने के बाद बिमारियों के फैलाने की भी खबरें आई थी.
एक दूसरा सवाल ऐसी आपदाओं को आने से रोकने से सम्बंधित है.कोशी के लिए गठित हाई लेवल कमिटी ने जब जून से पहले बाँध को रिपेयर कर लेने का आदेश दिया था तो इस पर काम क्यों नही हुआ इसका जवाब आना बाकी है.क्या हम इस तरह की दुर्घटना को रोकने का प्रयास कर रहे हैं.की मौत का नंगा नाच देखना हमारी आदत में शुमार हो गया है।

तीसरा सवाल द्र्घतना के बाद नेपाल के बयान से संबधित है.हमारी विदेशनीति किस ओर बढ़ रही है की हमारे पड़ोसी केवल हमें संदेह की दृष्टि से ही देख रहे हैं.प्रचंड पिछली संधियों की समीक्षा की बात कह रहे हैं और यह की भारत ने नेपाल से जो संधि की है वह तर्क सांगत नही है.क्या यह चीन का प्रभाव है और है तो क्यों?
एक सवाल यह भी की पर्वत पहाड़ नदी घाटी में अनावश्यक गतिविधिया बढ़ने का दंड प्रकृति ने तो नही दिया है और इसके बाद क्या? .शायद प्रकृति हमें सावधान भी कर रही थी की सावधान छेड़-छड़ न करो नही तो हम तुम्हे सबक भी सिखा सकते हैं. अंत में दुष्यंत कुमार की पंक्तियों से मैं अपनी बात समाप्त करूंगा।

बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं,

और नदियों के किनारे घर बने हैं ।

चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर

,इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं ।