विचार

बुधवार, 10 अगस्त 2011

जनाक्रोश की अभिव्यक्ति सिंघम

अन्ना का आंदोलन, सिस्टम और सिंघम में समानताएं

यह सुखद संयोग है कि देश की धड़कन बन चुके 'भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिलÓ के लिए आंदोलन और अजय देवगन अभिनीत सिंघम फिल्म रीलीज हुई। बारीकी से देखने पर फिल्म के कई किरदार आज के हमारे समाज में घूमते-फिरते दिखाई देंगे।
अन्ना के आंदोलन को देश के लगभग हर वर्ग (भ्रष्टाचारी अथवा उनसे किसी भी तरह का कोई सहानुभूति रखने वालों को छोड़कर) का समर्थन मिल रहा है। उसी तरह सिंघम को दर्शकों ने हाथों हाथ लिया है। कई नई फिल्मों की तरह सरकार के कई हथकंडों को जनता ने (आरोपों और धमकियों को) खारिज कर, अण्णा पर भरोसा जताया है। यह फिल्म करीब दस दिन में ही ६५ करोड़ की कमाई कर चुकी है। इस फिल्म को दर्शकों का समर्थन करवट ले रहे देश के जनाक्रोश की ही अभिव्यक्ति ही है।
अजीब संयोग है कि सिंघम में ईमानदार पुलिस अफसर की आत्महत्या के बाद उसकी पत्नी का सिस्टम और सरकार सपोर्ट नहीं करती, बल्कि मंत्री महिला और उसको वहां तक लाने वाले को बुरा-भला कहता है। वैसे ही आज सरकार उसके मददगार अण्णा और उसके सहयोगियों पर अनेक आरोप लगा रहे हैं। तिल-तिल मरती आत्मा की आवाज किसी ने सुनी तो ङ्क्षसघम (जनता) ने और अण्णा के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट हो रही है। यह जनाक्रोश ही है कि सिंघम में विलन को उसी के हथकंडे से मारने के बाद भी फिल्म को हजारों लोग देखने पहुंच रहे हैं। जनता आज भ्रष्टाचार को किसी भी हालत में खत्म होते देखना चाहती है, हथियार चाहे कुछ भी हो। यह अलग बात है कि इनमें से कुछ सिस्टम से नहीं लड़ सकते थे, कभी न चाहते हुए उसका हिस्सा बना दिए गए थे, या बन गए थे। लेकिन ये अपनी ताकत और इच्छा अण्णा को सौंप चुके थे। जैसी की फिल्म में लोगों ने सिंघम को अपना भरोसा अर्पित किया था।

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

तो क्या लब आजाद होते

मजबूत लोकपाल की मांग को लेकर देश दो फाड़ में बंटता जा रहा है। एक पक्ष अपने लिए देश की संसद से कुछ मांग रहा है तो दूसरा पक्ष इससे अपने 'अहम्Ó से जोड़ कर देख रहा है। गुरुवार को समाजसेवी अन्ना हजारे और उनके साथियों ने लोकसभा में प्रस्तुत कठपुतली और बूढ़े लोकपाल विधेयक को प्रस्तुत करने के विरोध में मसौदे की प्रतियां जलाईं। अब तथाकथित जनप्रतिनिधि इसे संसद का अपमान बता रहे हैं। आजादी से पहले ऐसे ही अंग्रेज भी किसी भी विरोध प्रदर्शन पर ब्रिटेन की संसद और कानून का अपमान बताकर जनप्रतिनिधियों को जेल में डाल देते थे और यातना देते थे। इसके बावजूद जनता और जनप्रतिनिधियों ने संघर्ष का रास्ता चुना और अपने मन और विवेक की बात मानी, जिसका नतीजा निकला, कम से कम हम कहने को तो आजाद हो गए। ऐसे ही अंग्रेजों द्वारा बनाया एक कानून (नमक) को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने १९३० में तोड़ा था। यही नहीं राष्ट्रपिता द्वारा चलाए गए सारे आंदोलन किसी न किसी नीति या कानून के विरोध में ही थे, ऐसे में हम यदि उन गलत कानूनों का मानकर हक के लिए न लड़ते तो शायद ये लब भी आजाद न होते। सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन, असहयोग आंदोलन आखिर किसकी रक्षा के लिए हुए, जो आज लोगों को अपनी बात रखने पर संसद का अपमान होने लगा और फिर तथाकथित जनप्रतिनिधि जन की भावना समझते तो क्या आज मसौदे की प्रति जलाने की नौबत आती, जबकि चर्चा का नाटक महीनों चला।