विचार

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

#talktoamuslim: मुस्लिम समाज को खुद से भी बात करने की जरूरत

इन दिनों सोशल मीडिया पर हैश टैग टॉक टू अ मुस्लिम ने एक नई बहस छेड़ दी है। इसके पक्ष में भी और विपक्ष में भी तमाम लोग अपनी राय रख रहे हैं। इससे एक संदेश निकल रहा है कि मुस्लिम समुदाय के लोगों को देश के दूसरे लोग नहीं समझते, खैर इस पर वाद प्रतिवाद जारी है। और इसमें कुछ हो या न हो देश की छवि धूमिल करने की कोशिश करने वालों  का मकसद कामयाब तो होता ही है। साथ ही हैशटैग शुरू करने वाली सेलेब्रिटी कुछ दिन चर्चा में भी रहेगी।
यह वैसा ही है जैसा पिछले दिनों रॉयटर्स फाउंडेशन नामक एक निजी संगठन ने भारत को स्त्रियों के लिए सबसे असुरक्षित देश महज चंद लोगों से बातचीत के आधार पर घोषित किया था। यह कैसा मजाक था कि ऐसे देश खास तौर पर सीरिया जैसे जहां आतंकी महिलाओं को बंधक बनाकर दुष्कर्म करते हैं और उन्हें बेचकर जन्नत का टिकट कटाते हैं उस पर निगाह नहीं डाली गई और भी हमारे पड़ोस में भी तमाम देश हैं जहां के कारनामे दुनिया भर में सुर्खियां बटोरते हैं उनके बारे में भी नहीं सोचा। खैर भारत में भी अपराध काफी हो रहे हैं जो हमारे लिये शर्म का वायस हैं मैं उनका बचाव नहीं कर रहा हूं मगर सर्वाधिक पर आपत्ति तो है।
   खैर बात करते हैं हैशटैग वाले विषय पर तो मुझे लगता है आज का जो दौर है जिसमें मुस्लिम धार्मिक कट्टरता, क्रूरता और हिंसा बढ़ती जा रही है, उसमें मुस्लिम समाज को खुद से भी बात करनी चाहिए कि क्या वजह है जिन भी देशों हिंसा हो रही है वो इसी समुदाय के बाशिंदों की ज्यादा आबादी वाला  है और प्रशासन भी इन्ही का है सीरिया की बात करें, अफगानिस्तान की बात करें या नाइजीरिया की बात करें या किसी और की। अफगानिस्तान में तो बाकायदा शरई शाषन लागू करने की जंग ही है। पैगम्बर ने किसी की हत्या के लिये तो नहीं कहा है जहां तक मैं जानता हूँ। ऐसे में मुस्लिम समाज इसे रोकने के लिए क्या कर रहा है। कुल मिलाकर बुनियादी गड़बड़ी कुछ तो है जिसे मुस्लिम समाज को ही सोचना होगा।
कुछ लोग कहेंगे हिंसा हिन्दू समुदाय के लोग भी करते हैं मगर भारत में भी नक्सलवाद है और इसकी आतंकवाद से तुलना नहीं कर सकते, इसमें आम जनता इस कदर प्रभावित नहीं होती।इस समुदाय के अमन पसंद लोगों को सोचना चाहिए कि जो भी हिंसा करने वाले हैं ज्यादातर इसी समुदाय से क्यों हैं ओसामा से फजलुल्लाह तक। यहां तक भारत जैसे देश से भी आतंकी निकला तो उसका नाम दाउद, अबू सलेम निकला । इसके अलावा भी भारत के तमाम दबंगों के नाम इस तरह के होंगे, अभी बागपत जेल में एक मुन्ना बजरंगी नाम का बदमाश मारा गया उसके भी मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति के लिए काम करने की खबरें छप चुकी हैं।
 मैं ये नहीं कहता कि दूसरे समुदायों में अपराधी नहीं हैं कट्टर नहीं  हैं औऱ उन्हें किसी तरह छूट मिलनी चाहिए मगर सामूहिक हिंसा की ऐसी प्रवृत्ति दूसरे समुदाय से आने वाले व्यक्ति में कम देखने को मिलती है। इन सब में सबसे खतरनाक है इसको सामाजिक स्वीकृति इस पर मुस्लिम समाज में चर्चा सुनाई नहीं देती। br /> अभी कुछ समय पहले  बॉलीवुड की एक फ़िल्म आई थी रईस, इसकी पंच लाइन थी बनिये का दिमाग और मियां भाई की डेयरिंग और नायक हिंसक गतिविधियों में शामिल होता है। जब किसी नकारात्मक विषय पर फ़िल्म बनने लगे और उस पर आपत्ति भी न हो तो समझ लेना चाहिए कि उस समाज में नकारात्मक बातों को किस हद तक स्वीकृति मिल चुकी है, इस तरह की डेयर उपलब्धि नहीं मानी जा सकती। मुस्लिम समाज में दीन को लेकर हर कुछ महीने में कॉन्फ्रेंस होते मिल जाएंगे मगर सामाजिक मसलों पर चर्चा आप शायद ही सुने जबकि धर्म समाज के लिये ही है।पिछले साल सम्भल में इस तरह की कुछ पंचायतें अपवाद ही हैं और इस समाज का कोई अगुआ भी नहीं बोलता। इसलिए दूसरे समाज के लोग और नेता भी चुप ही रहते हैं। बल्कि समाज को अच्छे सामाजिक पहल वाले मसलों पर चुप्प रहने नेताओं को अपना हितैषी तो नहीं मानना चाहिए। अपराधी भी बचने में जोखिम उठा लेते हैं तो क्या उन्हें साहसी कहा जाएगा।
  खैर आते हैं टॉक टू मुस्लिम वाले विषय पर संभवत: ये दूसरे समुदाय से खौफ को एड्रेस करने की कोशिश हो सकती है तो मैं कहना चाहूंगा आदमी हिंसा से डरता है और हिंसा ज्यादा कहाँ है खुद सोचें। इस मसले पर इसी समाज को सोचना पड़ेगा। रही बात भारत की तो इस विषय पर अभियान छेड़ने की जरूरत बहुसंख्यक समुदाय के साथ ज्यादती है। क्योंकि देश की 20% आबादी को कोई दरकिनार कर सके संभव नहीं है। भारतीय मुस्लिमों से बात न किया जाना यह गॉसिप ही है , अभियान शुरू करने वाली गौहर खान जी खुद भी सोचें, उनके कितने हिन्दू परिचित होंगे। फिर गुमराह किसे कर रही हैं। कोई भी आंख बंद कर एक पल के लिए सोचे तो हर हिन्दू के दो चार मुस्लिम दोस्त जरूर होंगे या परिचय होगा या उनसे राब्ता होगा।  संबंध भी ठीक होंगे।
जहां तक मेरे मुस्लिम समाज को खुद से बात करने के लिए कहने की बात है तो उसकी वजह है पिछडापन मगर क्या उसके लिये सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार है मगर गहराई में देखेंगे तो काफी हद तक इसके लिये इस समाज की इलीट  जिम्मेदार है जो खुद आगे बढ़ने के बाद समाज के वंचितों को फालतू की बातों में उलझाए हुए है। इनकी उन्नति के लिये कुछ किया भी नहीं, न विश्व विद्यालय खोले न अस्पताल। ऐसा भी नहीं कि इस समाज में सब गरीब ही हैं, मदन मोहन मालवीय ने तो चंदे से बीएचयू बनवा दिया। रामपुर में जरुर एक विश्वविद्यालय खोला गया मगर इसमें आसपास के गांवों की जमीन कब्जा ली गई और फायदा तत्कालीन मंत्री को पहुंचा। अंदाजा लगाया जा सकता है कि विश्वविद्यालय का मकसद समाज था या व्यक्ति, खैर इसकी जांच चल रही है।
 फिलहाल मुस्लिम समुदाय में आधुनिक शिक्षा को लेकर दिलचस्पी अभी तक जग नहीं पाई है, जबकि हिन्दू समुदाय में दलितों की हालत कभी बहुत खराब थी। आज उनमें उल्लेखनीय प्रगति दिखाई देती है। आज गरीब दलित अगर रिक्शा चला रहा होगा तो भी अपने बच्चे को पढ़ाने की कोशिश करता मिलेगा। ये हाल तब है जब उनके साथ भेदभाव समाज में था कुछ हद तक कह सकते हैं कि हो रहा होगा। मुस्लिम समुदाय को तो अस्पृश्यता का दंश भी नहीं झेलना पड़ा। वो खुद शासक वर्ग से थे अंग्रेजों से पहले उनके शासन का लंबा इतिहास है। अंग्रेजों के दौर में भी इनमें से एक वर्ग काफी अच्छी स्थिति में था जैसा कि इतिहास से पता चलता है।
भारत में तो हिंदू मुसलमान एकमेक हैं उनकी भाषा और अदब तक तो एक जैसी है। लखनऊ में रहने वाला मुसलमान एक पन्ना अपनी स्थानीय उर्दू में लिखे और देखे की उसमें कितने शब्द अवधी के हैं उसे पता भी शायद न हो ऐसे में ही हिन्दू लिखे तो देखे कितने शब्द वो हिंदी के समझता है वो उर्दू फ़ारसी आदि के हैं। फिर टॉक टू मुस्लिम का सवाल ही सवालों में रहेगा। भारत के सभी समाजों की उन्नति की वजह सिर्फ सरकार नहीं है चाहे शिक्षा हो या अन्य मामला उस समाज के लोगों ने भी प्रयास किया है।  ऐसे में मुस्लिम समाज को अपने अगुओ से सवाल करना चाहिए। एक समय हिंदुओं में सती प्रथा, विधवा समस्या जातिपाँति, छुआछूत की बीमारी थी। इसके खिलाफ समाज से आवाज उठी, स्वतंत्र भारत में कानून बने लेकिन ऊपरी विरोध भी हुआ होगा, मगर बहुसंख्यक का समर्थन मिला। इसका काफी असर भी हुआ है। इधर मुस्लिम समाज क्या तैयार होगा इसके लिए, लगता नहीं। राजीव गांधी के कार्यकाल में तलाक़शुदा महिला नूर बानो को गुजारा भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुस्लिम समाज के दबाव में सरकार ने पलट दिया। ऐसे में लगता है कि समाज खिड़कियां खोलने को तैयार है, यह फैसला मुस्लिम महिलाओं को शसक्त करता नतीजा मुस्लिम समाज ही शसक्त होता। जब सरकार तक जिस समाज सर डरती हो उस समाज की ओर से टॉक टू मुस्लिम हैशटेग से अभियान चलाना ज्यादती नहीं तो क्या है। मदरसों के आधुनिकीकरण की बात निकलते ही शक सुबहा सामने आ जाता है मसलन किसी भी नई बात का विरोध तभी तो राजनीतिक दलों को इस समाज को वोट बैंक समझने का मौका मिलता है कोई खुद को मुल्ला मुलायम कहलवाता है, कोई मैं मुसलमानों का हूँ मैं कांग्रेस हूं कहता है मगर इन सब का नतीजा क्या है। ऐसे में समाज को सबसे पहले खुद से सवाल करना होगा ऐसा क्यों है।
   आज हिंदू विवाह अधिनियम पारित हुआ, और ज्यादतर हिंदू की मजाल नहीं होती विवाहिता से पंगा ले और किसी ने लिया तो भुगतता है। मगर आज तक भारत में निकाह, हलाल को लेकर कानून नहीं बन सका क्योंकि इसे तुरंत धर्म से जोड़ दिया जाता है, खूद सोचें कि ये धर्म का विषय है या समाज का और इस पर समाज से कोई आवाज नहीं उठती तो ऐसे बंद समाज से तो दूसरे लोग डरेंगे । मुझे लगता है यहां यही स्थिति है। मैं बीते साल मुरादाबाद में था। वहाँ अमरोहा के मंडी धनौरा तहसील के एक मौलवी के घर एक मुस्लिम परिवार रहता ।दंपति में मामूली बात पर विवाद हुआ और पति ने 3 तलाक कह दिया। जल्द ही पति को होश आ गया मगर मौलवी ने यह बात सुन ली थी। पति कहता रहा कि मैंने गुस्से में कहा मगर मौलवी साहब ने पंचायत बुला ली, वो तो खुद हलाला के लिये तैयार थे। अब बताइये ऐसी स्थिति पर सामाजिक चूप्पी क्या इशारे कर रहा है इसके खिलाफ कोई चर्चा कभी हुई, नहीं। यह खबर अखबार में प्रकाशित हुई है, अब कोई अख़बार पर सवाल न उठा दें क्योंकि संबंधित अखबार की पॉलिसी इस मामले में बेदाग है।
  एक और किस्सा सुनाता हूँ मुरादाबाद मंडल का जिला है संभल। इसमें एक मोहल्ला है दीपा सराय व्यापारिक केंद्र है और मुस्लिम समुदाय के लोग बहुतायत में हैं। एक अपराधी को पकड़ना था, पुलिस की हिम्मत नहीं पड़ रही थी वहां जाने के लिए। बहुत दबाव पड़ने पर कई थानों की फोर्स गई तो घर की महिलाओं ने धर्मग्रंथ की बेहुरमती का आरोप लगाकर पोलिस पार्टी को पीटा और उनको जान बचाकर भागना पड़ा। बाद में हंगामा हुआ फोर्स के साथ एसडीएम पहुंचे तो बवाल देख भागे मगर अर्दली हत्थे चढ़ गया। खूब कूटा गया कई दिन भर्ती रहा , सबसे खराब बात थी कि इस भीड़ की अगुआई महिलाएं कर रहीं थी। नारे भी लगा रहीं थी की दीप सराय को कश्मीर बना देंगे। इन खबरों को स्थानीय प्रेस वाले भी छापने से डरते थे मगर दूसरे अखबारों की प्रतिस्पर्धा और नौकरी की वजह से किसी तरह हिम्मत जुटाते थे। इसलिये बहुसंख्यक से डर का सवाल खुद सवालों में है क्योंकि भीड़ हर जगह है और उसकी शक्ल नही होती।
 मैं ये नहीं कहता कि गोहत्या के नाम पर किसी की हत्या ठीक है, मगर अल्पसंख्यक कम उन्मादी नहीं है और कोई समुदाय दुसरों की खराब बात को बताकर तरक्की नहीं कर सकता उसे तो खुद काम से कम अपने लोगों के लिए अच्छे सामाजिक कार्य करने चाहिए।
 इस्लाम में तो जकात का महत्व खूब बताया गया है और प्रचार भी खूब है, जकात इकठ्ठा भी खूब होता होगा। हिंदुओं के ग्रंथों में भी आमदनी को संभवतः 5 भाग में बांट कर 1 भाग दान के लिये कहा गया है मगर खुद को हिंदू होने का दावा करने वालों को पता होगा ये मुझे नहीं पता। ऐसे में जकात की राशि का शिक्षा स्वास्थ्य आदि सामाजिक कार्यों पर खर्च किया जाय तो हालात में तब्दीली आ सकती है सबसे बड़ी बात सभी पक्ष जिसे अपने धर्म को समझना हो दूसरों से व्याख्या समझने से अच्छा मूल धर्म ग्रंथ की भाषा सीखे और खुद समझें वरना अधजल गगरी छलकत जाय और थोथा चना की तर्ज़ पर नीम हकीम खतरे जान। आपको जाना कहीं है और ये कहीं पहुंचा देंगे और ये अगर कार्य व्यवहार में आया तो दोनों बड़े समुदायों का एक दूसरे को लेकर जो सुबहा है वह भी खत्म हो जाएगा और हैशटैग टॉक टू मुस्लिम की जरूरत नहीं पड़ेगी।




सोमवार, 16 जुलाई 2018

कुछ सवाल न्याय के आंगन से भी

भारतीय न्यायपालिका का गौरवशाली इतिहास रहा है, इसकी निष्पक्षता और निर्णय दुनिया की दूसरी अदालतों के लिए नज़ीर रही हैं। इसलिये दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जहां करोड़ों तरह के स्वार्थ और आकांक्षाओं के बीच किसी संस्थान पर सवाल खड़ा कर दिया जाना आम है, न्यायपालिका विश्वशनीयता की कसौटी पर हमेशा खरी उतरी है, नतीजा जनविश्वास उसके साथ है। यही कारण है कि जब भी न्यायपालिका का दूसरी संस्थाओं से टकराव हुआ, संप्रभु जनता न्यायपालिका के साथ खड़ी दिखाई दी और उसे ताकत दी है। न्यायपालिका ने भी अपने संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाई है।
 मगर, बीते कुछ सालों में न्यायपालिका से जुड़े कुछ ऐसे प्रकरण सामने आए जो इसके स्वर्णिम इतिहास को धूमिल कर रहे हैं। इस पर न्याय के पहरुओं को विचार करना चाहिए। इसमें पूर्व जस्टिस करनन विवाद ने हमारी काफी जग हसाई कराई। ऐसे मामले पर विचार की आज अनिवार्यता है साथ ही उनके आरोपों की जांच भी जरूरी है। खैर इस प्रकरण का पटाक्षेप अवमानना मामले में उनकी गिरफ्तारी से हुआ। लोगों ने सोचा होगा चलो राहत मिली लेकिन फिर कई जस्टिस की ओर से मीडिया में प्रेस कांफ्रेंस कर मुख्य न्यायाधीश पर कुछ विशेष मामले विशेष पीठ को भेजने के आरोप लगाए गए। इसने पूरी न्यायपालिका को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया, जिससे सवाल खड़े करने वाले भी नहीं बच सके। वजह तो इस मामले में राजनीतिक दलों का कूदना था मगर ये जमीन इनको माननीय जस्टिस लोगों ने ही उपलब्ध कराई थी। जनता को जो संदेश मिला साफ था राजनीति न्यायपालिका में प्रवेश कर गई है। क्योंकि जैसा दिखाया जा रहा था कि ये सवाल सिर्फ मुख्यन्यायधीश पर है प्रकान्तर से उन्हें भी आरोपी बना दिया गया जिन जज को तथाकथित विशेष मामले भेजे गए और आरोप लगाने वालों के क्रांति के संदेश को बहुसंख्यक ने शायद ही स्वीकार किया हो।अच्छा होता यह मामला मीडिया में लाने की बजाय आपस में बने मैकेनिज्म से सुल्टा लिया जाता। इन विवादों से कुछ और हुआ हो या न जनता के विश्वास को ठेस जरूर पहुंची है। यही कारण है इस विवाद पर संभ्रांत वर्ग भले ही चर्चा करे जनता में हलचल नहीं हुई।
 एक ऐसा ही मसाला और मुंह बाए खड़ा है जो आदर्श स्थिति से कोसो दूर जा रहा है। वह है उत्तराखंड के मुख्यन्यायधीश की सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति का, कोलेजियम बार बार इनके नाम पर ही अटकी है और केंद्र सरकार अपने कारण गिनाकर उनके नाम पर राजी नहीं है। इससे दूसरे रिक्त पदों पर भी प्रक्रिया अटकी पड़ी है, इस रसाकसी में पीड़ित कौन हो रहा है। क्या कोलेजियम या सरकार, नहीं आम लोग, जो न्याय की आस में उम्र गुजार रहे हैं और जज की कमी से उनके मुकदमो पर फैसला नहीं आ रहा है। न्याय में देरी न्याय नहीं के बराबर खुद कोर्ट ने कई बार दोहराया है फिर इसके जिम्मेदार कौन हैं सभी पक्ष खुद ही बैठकर तय कर लें। क्या इसके लिये जिद जिम्मेदार नहीं है। कोलेजियम किस वजह से सिर्फ उत्तराखंड के मुख्यन्यायधीश को लेकर अड़ा है यह शायद कोलेजियम ही जनता है मगर सरकार ने तो उनके प्रोन्नति पर राजी न होने के तर्क जूनियर होने, क्षेत्रीयता आदि के सार्वजनिक कर दिए हैं। ऐसे में सरकार का पलड़ा तो भारी नज़र आता है, फिर सरकार जनता की प्रत्यक्ष प्रतिनिधि है उसे दरकिनार करना हिंदुस्तान जैसे मुल्क में तो ठीक नहीं। जिद में तमाम दूसरे प्रतिभाशाली जज को अनजाने में ही कमतर आंका जा रहा है।ऐसे में सबसे अच्छा है कि सभी संबंधित पक्ष अपनी गौरवशाली विरासत में कुछ जोड़ें पूर्वजों के लिए अफ़सोस का वायस न बनें, कम से कम जो शपथ लिए हैं उसकी लाज रखें।