विचार

मंगलवार, 19 मार्च 2019

मोदी के जल रूट पर प्रियंका वाड्रा का सफर


असम्भव की संभाव्यता का खेल है राजनीति। कम से कम भारत की राजनीति देखकर तो यही लगता है। जो जल रूट मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक है, उस रूट पर उनकी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वियों में से एक प्रियंका वाड्रा सफर कर रहीं हैं। वह भी मोदी से पहले, इस कड़ी में आज वह मिर्ज़ापुर जिले में पहुंच रही हैं यहां वह गंगा किनारे रहने वाले लोगों खास कर मल्लाह आदि जातियों को रिझाने की कोशिश करेंगी। मिर्ज़ापुर के लोगों को खुश होना चाहिए कि कम से कम वोट के लिए ही सही जनाब ए आलिया ने कदम तो रखा वो भी उन ही प्रतीकों को अपनाते हुए जिससे हमेशा दूरी बनाए रखना ही इन्हें उचित लगा। भला हो लोकसभा चुनाव 2014 का जिसने इस परिवार को लोकतंत्र और मिर्ज़ापुर की याद दिलाई पर यह देखना होगा कि इसका हासिल क्या होता है। अब देखना होगा कि जिस गंगा को केवट के माध्यम से पार कर राम अपनी मंजिल तक पहुंचे थे क्या प्रियंका भाई को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में सफल हो पाएंगी। या खुद प्रियंका राम जैसी निश्छल हो सकती है या लोग उनके मन के भीतर झांक लेंगे। प्रियंका के इस सफर में कमलापति त्रिपाठी की विरासत को संभाल रहे उनकी चौथी पीढ़ी के नेता ललितेश त्रिपाठी और प्रतापगढ़ के रहने वाले राज्यसभा सदस्य योजनाकार हैं। वही मिर्ज़ापुर संसदीय सीट से कांग्रेस के लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी हैं पर उनको टिकट देने का मकसद ब्राह्मण वोट को बस रिझाना है क्योंकि त्रिपाठी परिवार का बनारस विंध्याचल मंडल के ब्राह्मणों और अन्य समुदायों पर अच्छा खासा असर है। कांग्रेस के सबसे बुरे दिन में भी इस परिवार ने कांग्रेस की मौजूदगी यहां गाहे बा गहे बचाए रखा, उन्होंने हमेशा पार्टी का साथ दिया पार्टी का साथ मिला होता तो पूर्वांचल में कांग्रेस को एक अच्छा नेता मिल सकता था। इतने सालों में कांग्रेस की ओर से पार्टी में भी कोई प्रमुख जिम्मेदारी नहीं दी गई। क्या ब्राह्मण इसको भूल पाएंगे। अब चुनाव के समय एक टिकट, पार्टी के मन परिवर्तन का कोई सबूत नहीं है क्योंकि खुद कांग्रेस पार्टी के पास त्रिपाठी परिवार से अच्छा मिर्ज़ापुर में उम्मीदवार नहीं है, ऐसे में लालितेश को टिकट का छिपा एजेंडा ही है। वैसे लगता नहीं कि अगर जातीय गोलबंदी हुई तो ब्राह्मण किसी झांसे में आ जाएंगे और एक बार मायावती, बाद में बीजेपी को सत्ता के शिखर पर पहुंचाने में मदद कर ब्राह्मण अपनी ताकत समझ चुके हैं। किसी भी सीट पर जीत के लिए अ़फसोजनक रूप से जातीय गोलबंदी ही काम आएगी और कोई भी जाति अकेले किसी भी प्रत्याशी को लोकसभा नहीं पहुंचा पाएगी। ऐसे में जातीय गठबंधन की जरूरत होगी। इसके लिए कवायद शुरू हो गई है। सपा ने बसपा से गठबंधन किया है पर एक सवाल यह है कि ऊपर के नेतृत्व में हुआ गठबंधन आमलोगों का मनबंधन कर सकेगा क्योंकि अपेक्षाकृत दबंग समझे जाने वाले यादव समुदाय के लोगों का जातीय अस्मिता के शीर्ष पर उड़ान भर रहे लोगों में मेल कैसे होगा जबकि पिछली सपा सरकार के जाने का एक प्रमुख कारण यही माना जाता है। नेताओं की मजबूरी का गठबंधन पर क्या आम लोग भी मजबूर हैं यह तो समय ही बताएगा। वहीं कांग्रेस भी मुस्लिम, दलित ब्राह्मण आदि जातियों में से छोटी छोटी हिस्सेदारी पाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में खेल किसका बिगड़ेगा यह तो 23 Mai ko पता चलेगा पर nda की बात करें तो उसका पलड़ा थोड़ा मजबूत नजर आता है, अपना दल की भागीदारी और मोदी सरकार के विकास कार्य और दूसरी पार्टियों से नाराज़गी की खुराक काम आयी और गर्मी में लोग वोट देने निकले तो तय मानिए सही जगह पर सही व्यक्ति का पलड़ा भारी रहेगा।