विचार

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

खेल और भारत

लो ओलंपिक में भारत की एक और उम्मीद अखिल को मुह की खानी पड़ी.दोष टीम मैनेजमेंट की रणनीति को दिया जा रहा है.आख़िर कब तक रणनीति बनाने वालो की वजह से बड़े मंचो पर यह एक अरब से ज्यादा की आबादी वाला देश खाली हाथ या कुछ एक पदक लेकर लौटता रहेगा।
फ़िर भी यह ओलंपिक ख़ास रहा है क्योंकि अभिनव के व्यक्तिक प्रयास से पहली बार ओलंपिक में किसी व्यैक्तिक स्पर्धा में स्वर्ण जीतने का स्वाद हमें मिला.यह स्पर्धा हमारे लिए उम्मीद पैदा करने वाला रहा क्योंकि अखिल ,सा इना नेहवाल समेत अनेक खिलाड़ी नजदीकी मुकाबले हारे.जिससे आगे एक किरण दिखाई देती है।
अखिल ने जिस तरह विश्व चैम्पियन को हराया वह हमरे लिए गौरव की बात है.लेकिन इन खेलो के प्रशिक्षण में आने वाले खर्च को देखते हुए कहा जा सकता हैं बड़े मंचो पर पदक जीतना गरीबो के लिए मुश्किल होता जा रहा है,ये और बात है की रास्ते भले कठिन हो जीतना उनके लिए नामुमकिन नही है.लेकिन बदली परिस्थितियों में सरकार की तैयारी निराश करने वाली दिखाई पड़ती है।
राष्ट्रमंडल खेलो से पहले ,अगर सरकार चेत जाती है तो शायद हम बे-आबरू होने से बच सकते हैं । जबकि इसके लिए समय रेत की तरह हाथ से फिसलता जा रहा है.और अभी डेल्ही में इसके लिए जरूरी आधारभूत संरचना का भी विकास नही किया जा सका है,इसके बावजूद सरकार इस स्पर्धा को पर्यटन के ही लिहाज़ से देख रही है,खेल से नही.बिना नजरिया बदले पदक की उम्मीद बेमानी है।