विचार

बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

कहानी टीपू की

 


एक समय था गुण के हिसाब से नाम रखे जाते थे. धीरे धीरे लोगों में यह गलतफहमी हुई कि बच्चे का नाम गुणवान व्यक्ति के नाम पर रख दिया जाय तो बच्चा उस जैसा हो जाएगा लेकिन जैसे इस विचार का कोई आधार नहीं था परिणाम भी अनुमान के मुताबिक क्यों होता तभी तो नाम बडेरा दर्शन थोड़ा की विपरीत अर्थ वाली कहावत भी बनी. क्योंकि अच्छे नाम वाले खराब काम करते रहे. या गुणी नाम रखने के बाद भी बच्चे में या तो गुण नहीं विकसित हुए या उसने अवगुण अपना लिए..


ऐसी ही कहानी यूपी के टीपू की है, टीपू को लोगों ने दिलों का सुल्तान बनाना चाहा लेकिन वह क्या से क्या रह गया वह अब भी रसायन और फॉर्मूले की तलाश में है और यूपी इससे आगे बढ़ गया है , टीपू को एक बार यूपी के लोगों ने सुल्तान बना दिया. लेकिन पांच साल तक सुल्तान रहने के बाद भी इंजीनियर लोगों के सपनों को हकीकत नहीं बना सका.. और न टीपू यह समझ सका कि यूपी की सोच बदल रही है..



टीपू को सुल्तान जाति धर्म से परे सोचकर सभी लोगों ने समर्थन दिया था लोगों ने टीपू के साथ सपना देखा था .. लेकिन सुल्तान बने टीपू ने इसे अपनी इंजिनियरिंग का परिणाम समझ लिया और सल्तनत पर अनुवाआंशिक अधिकार..इंजीनियर तब से पहले के अपने पिता के जाति धर्म फॉर्मूले पर चलता रहा, घर की व्यवस्था बिगड़ने लगी और घर तपकने लगा तो जिम्मेदारी आसपास के लोगों पर डालने लगा जबकि जनता कुछ और सोच रही थी .. खैर जनता तो जनता है.. वह इससे ऊब गई.. और बाद में सुल्तान बदल दिया...


अब समय था कि टीपू बदले हुए मिजाज को समझे और खुद को काबिल बनाये...लेकिन टीपू फॉर्मूले के सहारे सल्तनत पाने की कोशिश करने लगा और शिकास्ट के बाद नया फार्मूला...अभी टीपू जिस सोशल इंजिनियरिंग को कर रहा है.. इससे पहले की परीक्षा में इसके उलट भी कर चुका है... मतलब दृढ़ता की कमी 


अब जब सल्तनत की नई परीक्षा नजदीक आ रही है.. क्या टीपू नये फॉर्मूले पर है... सोशल इंजिनियरिंग के इस फॉर्मूले में समाज में विभाजन और एक वर्ग को विलन बताना रसायन है, टीपू के लिए तो सोचना मुश्किल है लेकिन लोगों को देखना होगा कि यदि टीपू की बात मान भी ली जाय तो उनके लिए क्या बदलेगा क्योंकि टीपू तो हारा खिलाडी है और उसकी हर थियारी में पेच है ...



तभी तो वो बातें उठ रही हैं जो समाज में भी उस तरह नहीं हैं.. जैसा टीपू बता रहा है.. और समाज जिसे भूलाना चाहता है और ऐसा करने वाले उसके मोहरे को उसका संरक्षण है..क्या टीपू जिसे विलन बताना चाह रहा है उसका सही मूल्यांकन कर पायेगा और उनके बराक्स अपने को कहीं खड़ा पाएगा... क्योंकि जब टीपू को मौका मिला तो उसने क्या किया...


शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

क्या राहुल गांधी चाहते हैं सवालों के जवाब

आजकल हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और अडानी ग्रुप के शेयर में गिरावट के बाद देश के सियासी हलके में हंगामा बरपा है. ये और बात है जब मैं कुछ लिख रहा हूं तब कंपनी झटकों से संभालने भी लगी थी.


जनता के हाथों अपनी सत्ता गँवाने के बाद 2014 से ही कारोबारी घराने अडानी और अंबानी पर खफा कांग्रेस पार्टी और उसके अघोषित नायक को तो मन मांगी मुराद मिल गई. उसके हमले प्रेस और संसद के भाषणों में होने लगे.

 हालांकि  अडानी ग्रुप ने हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को ख़ारिज किया है और उस के खिलाफ कोर्ट जाने की भी तैयारी है, लेकिन कारोबारी घराने की कौन सुनता हमारे समाज  में आरोप लगा नहीं कि आप गुनहगार हुए का रवैया है, वो भी चुनिंदा केस में ये फार्मूला लागू करने के लिए न्याय के झंडाबरदार ही खड़े रहते हैं (तब तो जरूर जब आरोप तथाकथित दुश्मन जैसे अडानी पर लगा हो ). वही हाल यहां भी है, चाहे इसका साइड इफ़ेक्ट जो भी हो.



खैर अडानी ग्रुप का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया है, सुप्रीम कोर्ट ने जाँच कराने और शेयरधारकों का हित सुरक्षित रखे. कोर्ट ने याचिका भी स्वीकार कर ली है. जिसकी जाँच फैसले आदि का इंतजार करना होगा. बैंको, सेबी, आरबीआई ने भी हालात की समीक्षा की है और मामले पर नज़र रखे हुए हैं. खैर मामला साफ रहे तो अच्छा है.


लेकिन संसद, भाषण और मीडिया में अडानी छाए हैं. कांग्रेस के नायक इसके लिए बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान हमलावर रहे. सरकार पर गंभीर आरोप लगाए, सदन में नारेबाजी भी की, और ऐसा दिखाने की कोशिश की कि  भारतीय उद्योगपति देश का दोस्त नहीं हो सकता है. 


यह कहते वक़्त हम इसको नज़रअंदाज़ करते रहे कि यह कहकर हम भारत के निर्माण के उन स्वप्न दृष्टाओं का अपमान करते रहे जिनकी वजह से आज हम यहां है, वो है भारत का हर नागरिक भारतीय.. और जिनको ढाल बनाकर हम सत्ता भी पाना चाहते हैं... जिसको हम आज के भारतीयों से भारत के लिए ज्यादा समर्पित ज्यादा योग्य और भारत व भारतीयों के प्रति ईमानदार लोगों ने भी उद्योगों और उद्योगपतियों को दुश्मन नहीं माना था तभी हमने सम्यवाद के गुजरे ज़माने में भी जो इसके चमकने का समय था तब भी मिश्रित अर्थव्यवस्था प्रणाली को चुना, वहीं स्वतंत्रता संग्राम को मदद देने में उद्योगपतियों व्यापारियों साहूकारों के योगदान को कृतघ्न और स्वार्थी बेईमान ही भुला सकते हैं जिस तरह का समाज बनने के लिए हम उत्सुक दिख रहे हैं.


खैर हम लौटते हैं मूल बात पर, जिसमें कांग्रेस के नायक ये आरोप लगा रहे हैं कि सरकार उनके सवाल का जवाब नहीं दे रही है, लेकिन यहां एक सवाल ये है कि क्या वाकई वे अपने सवालों का जवाब चाहते भी हैं या सिर्फ माहौल बनाने के लिए आँखों का एक धोखा बस क्रिएट करना चाहते. क्योंकि जवाब के लिए सही जगह और मंच चुनना भी जरूरी है.


सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर करने के उपाय कम नहीं है बशर्ते जवाब चाहने का मकसद हो. जैसे  इस सवाल का जवाब मीडिया से पूछने बताने की जगह संसद को चुनना चाहिए. मौका राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव की जगह प्रश्नकाल को चुनना चाहिए जिसमें मौखिक की जगह तरंकित लिखित सवाल भी पूछ सकते हैं, माध्यम तो कोर्ट भी हो सकता है जिसके जरिये सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर किया जा सकता है ताकि  दुष्यंत के शब्दों में हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं बस कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए सोच  का पता चले.


लेकिन यहीं कांग्रेस नायक और कांग्रेस पार्टी पर सवाल खड़े हो रहे हैं कि क्या वे इन सवालों का जवाब चाहते भी हैं या नहीं. क्योंकि इतने ऑप्शन के बाद भी इनको अपनाने की जगह शोर मचाया जा रहा है.