विचार

सोमवार, 4 दिसंबर 2023

किसी की आजादी, किसी की बवाल ए जान

 



हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जिसकी कैफियत अजीबोगरीब है। हर आदमी ही सिर्फ खुद को अच्छा सबको बुरा समझने में लगा है। सबको बेतहाशा अधिकार चाहिए और सिर्फ अपने लिए, वे भी जिम्मेदारियों के बगैर। किसी ने सवाल उठाया तो झट से डेविल करार दे दिया, और हर काम में देखिए और धारणा को टेस्ट भर करिए, आपको लगेगा ये घटनाएं तो आपके पास भी हों रहीं हैं। यह सब होता है आजादी के नाम पर, हमारे अपने देश का हाल भी काबिलेगौर है। लेकिन यह किसी की आजादी, किसी की बवाल ए जान न हो जाय..अराजकता की स्थिति न पैदा हो जाय..क्या जरूरी नहीं है एक नियम आधारित समाज बनाया जाय, जिसमें निजता निजी और सामाजिकता प्रखर हो..


मैं शुरुआत करता हूं, उस बात से कि अक्सर आपने लोगों के मुंह से सुना होगा कि संविधान ने हमें अमुक आजादी दी है, लेकिन क्या आपने सुना है कि कोई बता रहा है कि संविधान ने ही उसी अनुच्छेद में आजादी पर क्या बंदिशें लगाईं हैं और नागरिकों के लिए क्या ड्यूटी तय की हैं। 

दरअसल यह बातें करने वाले अभिजात्य लोग आजादी को ढाल के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं, बेपरवाह ताकत भोगने के लिए.. बगैर ड्यूटी के अधिकार मांगने वाला और रिस्ट्रिक्शन का ध्यान न रखने वाले पर सशंकित होना चाहिए.. यह बातें संदर्भ के लिए ही कर रहा हूं...असल चर्चा का मकसद उत्तर प्रदेश में हलाल सर्टिफिकेशन पर प्रतिबंध से जुड़ा है..जिस पर बड़ी बहस छिड़ी है..


बतातें चलें कि पहले उत्पादों पर वेज और नॉन वेज को बताने के लिए उत्पादों पर हरे भूरे रंग के निशान देखा होगा। लेकिन अब विभिन्न उत्पादों पर हलाल लिखे जाने का चलन बढ़ा है, पहले तो हलाल (कुछ संप्रदायों की मजहबी मान्यताओं में उन जानवरों का सिर एक झटके से अलग करने की मनाही है जिनके मांस का भक्षण करना होता है, जानवर को हलाल करने से अर्थ है उसकी सांस नली काट देना और खून धीरे-धीरे बहने देना, शरिया में तो इस काम को मुस्लिम के ही करने की भी शर्त लगाई गई है, जो विशेष इबादत के साथ जानवर को जिबह करेगा, यहूदी भी ऐसा तरीका अपनाते हैं और इसे क्रोशर कहते हैं। हालांकि जर्मनी, बेल्जियम और ग्रीस आदि देशों ने इस पर रोक लगा रखी है ) की चर्चा भक्षण करने वाले मांस के समय होती थी अब हर चीज दाल, अनाज, चाय पत्ती मसाला, फ्लैट के लिए सुनाई दे रही है। 

पता चला कि कुछ निजी संस्थाएं और कंपनियां इससे संबंधित सर्टिफिकेशन, शुल्क लेकर कर रहीं हैं। ये एक खास समुदाय के लिए किया जा रहा है, मतलब भोज्य पदार्थ पर भी धार्मिक छन्नी लगा दिया गया। यह उजागर तब हुआ जब उत्तर प्रदेश में इससे संबंधित एफआईआर दर्ज हुई। लेकिन इसी के साथ कई सवाल भी खड़े हो गए ?  सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि यह प्रमाणन कर कौन रहा है और धार्मिक आधार पर बंटवारे का औचित्य क्या है?


अभी जो जानकारी सामने आई है उसके अनुसार हलाल इंडिया, जमीयत उलमा ए हिंद हलाल ट्रस्ट और हलाल काउंसिल ऑफ इंडिया जैसी संस्थाएं ऐसा काम कर रहीं हैं। अगला सवाल यही है कि उन्हें यह अधिकार किसने दिया और किसी कानून की आड़ में भी कर रहीं हैं तो यदि नियम बनाना, प्रमाणन और जांच करना भी आउटसोर्स कर दिया जाएगा तो फिर हमारी संसद, विधानसभा और सरकारी मशीनरी क्या करेगी। 


यह तो एक तरह से निजी संस्थाओं को समानांतर व्यवस्था चलाने की छूट देना है, क्योंकि खाद्य पदार्थों के प्रमाणन के लिए भारत में पहले से ही एक संस्था है भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण यानी एफएसएसएआई और यहां उसका काम निजी संस्थाएं कर रहीं हैं। 

भारत में एक संप्रदाय की धार्मिक निजी अदालतें भी समय-समय पर सुर्खियों में आती रहीं हैं, क्या संविधान और आजादी की आड़ में असंवैधानिक चीजों को बढ़ावा तो नहीं दिया जा रहा है। क्योंकि संविधान में धार्मिक अदालतों की व्यवस्था तो नहीं है और अब हलाल सर्टिफिकेशन एक नया कदम है।

दूसरा सवाल यह है कि एक बहुलवादी देश में क्या यह उचित है यदि सभी फैसले धार्मिक लिहाज से और गैरकानूनी तरीकों से होंगे तो नियम आधारित समाज का क्या होगा। सभी चीजों पर अन्य संप्रदायों की भी बातें मान लें तो इतने धार्मिक ठप्पे हो जाएंगे कि जानने योग्य बातों के लिए जगह कहां बचेगी। फिर दुष्प्रभाव किसे भुगतना पड़ेगा।


यह कदम सुरक्षा के लिए भी सवाल है, क्योंकि हलाल सर्टिफिकेशन करने वाली संस्थाएं कंपनियों से उनके उत्पादों के लिए मोटी रकम वसूल रहीं हैं, लेकिन वे इस पैसे का क्या कर रहीं हैं, लोगों की चुनी हुई सरकार को ही कुछ पता नहीं है। हालांकि इस्लामी देशों में निर्यात की जाने वाली सामग्री के लिए कंपनियों को हलाल सर्टिफिकेट लेना पड़ता था लेकिन अब घरेलू काम के लिए भी इस तरह की चीजें किसी नई आफत को बुलावा दे सकती हैं। 

सबसे बड़ी बात की प्रमाणन का काम निजी संस्थाओं को कैसे दिया जा सकता है, इस्लामी देशों में भी इस तरह का काम निजी संस्थाएं नहीं करतीं, बल्कि वहां भी सरकारी एजेंसियां ही इस तरह का काम करती हैं। इस आजादी को संवैधानिक दायरे में क्यों नहीं लाया जाना चाहिए।

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