विचार

गुरुवार, 19 सितंबर 2019

किसान का दुख


२००७ से पहले इलाहाबाद में लिखी मेरी कविता जिसमें किसान की सोच को मैंने आज के हालात में समझने की कोशिश की थी, जो अब भी कमोबेश वहीं हैं।
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     देखो-देखो फूटी विकास की चिंगारी 
    हो गई मेरी छप्पर राख।
    मुझमें से ही किसी से विकास का गुणगान कराया 
  देने लगे मुझे "राख का प्रसाद"।।

 कौन दिखलाये रास्ता, कौन दे हमें सहारा।
 आंखों से छलके आंसू,दिल से निकली आह
एक आंखों की हद में सूखी, दूसरी लौट आई मेरे पास।।
 
   एक मन जलाए, दूजी तन जलाए।
  मेरी छटपटाहट कौन समझे, कौन समझाए।।
  मेरे आंसुओं की है क्या कीमत।
  जब मेरी पीड़ा कुछ को सुख दे अनमोल।।


 फिर कोई क्यों पसीजे, दुनिया चलती अपनी राह ।
है मुझको क्या अधिकार, कथा कहूँ अपनी दुनिया की
जो हुई मेरे देखते तबाह।।


  जमीन पुरखों की थी चली गई। दर-दर रोटी को भटकूँगा। क्या मुझको मिलेगा काम।। न जाने कब इस टीस संग मुझको मिल पाए आनंद "विश्राम"।

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