गर्मी की दोपहरी में
दूर कहीं धूप में
जहां आग है बरस रही
एक आकृति हिलती- डुलती है
पकड़े हलों की मूठ हाथ में
जल रहा है पेट की आग से
उसका खून ही पसीना बन टपक रहा
तन पर चीथड़े हैं उस पर भी
सूर्य की तपन का क्रोध
धरती भी उसी को जलाकर प्रतिशोध ले रही
तपती लू को झेलते
इस आस में भर पेट रोटी मिलेगी
अगले साल किसी पेड़ की छाह में
इस विशाल नभ के नीचे
इस हत भाग्य को
सपनीली दीवारों पर
मिलती यही अलौकिक छत है।
सर्दी में
जाड़ों में जब हम घरों में बैठे होते हैं
हीटर, आग के पास बैठे कांप रहे होते हैं
पानी को बर्फ समझ छूते हैं
हाड़ कंपा देने वाली ठंड में
किसान कुछ चीथड़े पहने
खेतों में सिंचाई की क्यारियां बनाते
पानी में ही खड़ा रहता है ठिठुरते कंपकंपाते
घर से दूर कहीं सेंवार में
इस समय भी साथ देते हैं उसका
वही मरते मिटते सुनहरे सपने
दिन हो या रात में
बरसात में
जब हम वर्षा की फुहारों का इंतज़ार करते हैं
किसान भी इंतज़ार करता है आशा भरी बूंदों की
पर वर्षा की बूंदें खपरैलों छप्परों से टपकती
वजूद को झकझोर छोड़ जाती है रीता
बादलों के गर्जन और बिजली की तड़प
बढ़ाती है किसान की आस और विश्वास को
लहलहाती फसलों से आह्लादित
फसलों के पकने का इंतज़ार करता है
तैयार फसल से निकला अनाज
तमाम कर्जों और सूदों को चुकाने के बाद
कुछ दिनों की खुशियां दे पाती हैं
भूख मिटाने वाला भूखा सोता है
जीवनदाता भूखों मरता है
अगले वर्ष फिर शुरू होता है
वही अंतर्द्वंद्व और अंतर्विरोध।
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