विचार

सोमवार, 16 जुलाई 2018

कुछ सवाल न्याय के आंगन से भी

भारतीय न्यायपालिका का गौरवशाली इतिहास रहा है, इसकी निष्पक्षता और निर्णय दुनिया की दूसरी अदालतों के लिए नज़ीर रही हैं। इसलिये दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जहां करोड़ों तरह के स्वार्थ और आकांक्षाओं के बीच किसी संस्थान पर सवाल खड़ा कर दिया जाना आम है, न्यायपालिका विश्वशनीयता की कसौटी पर हमेशा खरी उतरी है, नतीजा जनविश्वास उसके साथ है। यही कारण है कि जब भी न्यायपालिका का दूसरी संस्थाओं से टकराव हुआ, संप्रभु जनता न्यायपालिका के साथ खड़ी दिखाई दी और उसे ताकत दी है। न्यायपालिका ने भी अपने संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाई है।
 मगर, बीते कुछ सालों में न्यायपालिका से जुड़े कुछ ऐसे प्रकरण सामने आए जो इसके स्वर्णिम इतिहास को धूमिल कर रहे हैं। इस पर न्याय के पहरुओं को विचार करना चाहिए। इसमें पूर्व जस्टिस करनन विवाद ने हमारी काफी जग हसाई कराई। ऐसे मामले पर विचार की आज अनिवार्यता है साथ ही उनके आरोपों की जांच भी जरूरी है। खैर इस प्रकरण का पटाक्षेप अवमानना मामले में उनकी गिरफ्तारी से हुआ। लोगों ने सोचा होगा चलो राहत मिली लेकिन फिर कई जस्टिस की ओर से मीडिया में प्रेस कांफ्रेंस कर मुख्य न्यायाधीश पर कुछ विशेष मामले विशेष पीठ को भेजने के आरोप लगाए गए। इसने पूरी न्यायपालिका को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया, जिससे सवाल खड़े करने वाले भी नहीं बच सके। वजह तो इस मामले में राजनीतिक दलों का कूदना था मगर ये जमीन इनको माननीय जस्टिस लोगों ने ही उपलब्ध कराई थी। जनता को जो संदेश मिला साफ था राजनीति न्यायपालिका में प्रवेश कर गई है। क्योंकि जैसा दिखाया जा रहा था कि ये सवाल सिर्फ मुख्यन्यायधीश पर है प्रकान्तर से उन्हें भी आरोपी बना दिया गया जिन जज को तथाकथित विशेष मामले भेजे गए और आरोप लगाने वालों के क्रांति के संदेश को बहुसंख्यक ने शायद ही स्वीकार किया हो।अच्छा होता यह मामला मीडिया में लाने की बजाय आपस में बने मैकेनिज्म से सुल्टा लिया जाता। इन विवादों से कुछ और हुआ हो या न जनता के विश्वास को ठेस जरूर पहुंची है। यही कारण है इस विवाद पर संभ्रांत वर्ग भले ही चर्चा करे जनता में हलचल नहीं हुई।
 एक ऐसा ही मसाला और मुंह बाए खड़ा है जो आदर्श स्थिति से कोसो दूर जा रहा है। वह है उत्तराखंड के मुख्यन्यायधीश की सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति का, कोलेजियम बार बार इनके नाम पर ही अटकी है और केंद्र सरकार अपने कारण गिनाकर उनके नाम पर राजी नहीं है। इससे दूसरे रिक्त पदों पर भी प्रक्रिया अटकी पड़ी है, इस रसाकसी में पीड़ित कौन हो रहा है। क्या कोलेजियम या सरकार, नहीं आम लोग, जो न्याय की आस में उम्र गुजार रहे हैं और जज की कमी से उनके मुकदमो पर फैसला नहीं आ रहा है। न्याय में देरी न्याय नहीं के बराबर खुद कोर्ट ने कई बार दोहराया है फिर इसके जिम्मेदार कौन हैं सभी पक्ष खुद ही बैठकर तय कर लें। क्या इसके लिये जिद जिम्मेदार नहीं है। कोलेजियम किस वजह से सिर्फ उत्तराखंड के मुख्यन्यायधीश को लेकर अड़ा है यह शायद कोलेजियम ही जनता है मगर सरकार ने तो उनके प्रोन्नति पर राजी न होने के तर्क जूनियर होने, क्षेत्रीयता आदि के सार्वजनिक कर दिए हैं। ऐसे में सरकार का पलड़ा तो भारी नज़र आता है, फिर सरकार जनता की प्रत्यक्ष प्रतिनिधि है उसे दरकिनार करना हिंदुस्तान जैसे मुल्क में तो ठीक नहीं। जिद में तमाम दूसरे प्रतिभाशाली जज को अनजाने में ही कमतर आंका जा रहा है।ऐसे में सबसे अच्छा है कि सभी संबंधित पक्ष अपनी गौरवशाली विरासत में कुछ जोड़ें पूर्वजों के लिए अफ़सोस का वायस न बनें, कम से कम जो शपथ लिए हैं उसकी लाज रखें।

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