विचार

सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

पश्चिम बंगाल: मोर्चा भले ही पोलिस आयुक्त के आसपास है लड़ाई का मैदान लोकसभा चुनाव है


देश में व्यक्तित्व की विचित्रता वाले नेताओं के उभार से लोग दिग्भ्रमित हो रहे हैं, ये नेता ऐसे हैं कि कभी कुछ गलत कर ही नहीं सकते के अहंकार भाव से ग्रस्त हैं। इसकी शुरुआत यूपीए २ में अपनी ही सरकार के अध्यादेश को मीडिया के सामने फाड़कर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहसिंह को शर्मिंदा करने वाले वर्तमान पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने की। तब से यह रोग बढ़ता ही जा रहा है।
 दिल्ली से कोलकाता तक ऐसे मंजर आम है। इससे अराजकता का माहौल बन रहा है और देश के संघीय ढांचे को नुक़सान पहुंच रहा है। अफसोसनाक बात है सियासी मजबूरियों के कारण इसके लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। एक सवाल है कि क्या केंद्र सरकार के विरोध में होने भर से देश की पूरी व्यवस्था को ध्वस्त करने की आजादी दे दी जानी चाहिए। ताज़ा मामला पश्चिम बंगाल का है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर शारदा चिट फंड मामले की जांच कर रही सीबीआई टीम को रविवार को कोलकाता में हिरासत में ले लिया गया। केंद्रीय जांच एजेंसी की यह टीम कभी इसी मामले की जांच कर रही sit के अफसर और वर्तमान कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ करने पहुंची थी। इस दौरान सीबीआई की टीम को घंटों थाने में बैठाया जाना राज्य सरकार और पुलिस की सोच पर सवाल उठाता है। बाद में टीम को छोड़ दिया गया और मुख्यमंत्री धरने पर बैठ गईं और आरोप लगाया कि राजनीतिक विरोधियों को परेशान किया जा रहा है।
 सवाल यह है कि कोलकाता पुलिस आयुक्त क्या राजनीतिक पार्टी के सदस्य हैं और पूछताछ से पहले किसी मुख्यमंत्री को किसी अफसर को क्यों क्लीनचिट देना चाहिए था या इसके लिए कोर्ट का रास्ता नहीं था पर जो रास्ता अपनाया गया अभूतपूर्व था और अब इसने सुबहे को जरूर जन्म दे दिया। सबको पता है कि पुलिस और प्रशासन का मुखिया सरकार का पसंदीदा अफसर ही होता है ऐसे में मुख्यमंत्री का राजीव कुमार के पक्ष में उतरना और जिस घोटाले में बनर्जी सरकार से जुड़े मंत्री और लोग आरोपित हों उस जांच टीम के मुखिया को अहम जिम्मेदारी दिया जाना सवाल तो उठाएगा। इससे राजीव कुमार की व्यक्तिगत छवि को भी धक्का पहुंचेगा। शारदा घोटाले की जांच सीबीआई supreme Court ki निगरानी में कर रही है ऐसे में केंद्रीय एजेंसी को पूछताछ से रोककर क्या माननीय न्यायालय का सम्मान किया गया या संघीय ढांचे की फिक्र की गई या यह बातें विभिन्न दलों के लिए बस जुमले हैं।
या सवाल उठता है कि इससे सीबीआई और पोलिस को सांस्थानिक रूप से कोई मजबूती मिली या उसकी छवि और व्यवस्था को ही नुकसान पहुंचा और क्या सिर्फ केंद्रीय सरकार के विरोध के कारण ही सभी संस्थाओं को दांव पर लगा देने की छूट है जबकि सबको पता है कि इन संस्थाओं के जरिये ही शांसन व्यवस्था कायम होती है। दरअसल लड़ाई में मोहरा कोई भी बने इसकी बिसात आगामी लोकसभा चुनाव है और दांव पर है प्रधानमंत्री की कुर्सी। पिछले चुनाव में उत्तर प्रदेश समेत हिंदी पट्टी के राज्यों ने वर्तमान सरकार के प्रतिनिधियों पर खूब प्यार लुटाया था पर दक्षिण पश्चिम बंगाल आदि में अपेक्षित सफलता नही मिल सकी थी। हिंदी पट्टी में सर्वाधिक उभार के बाद ही भाजपा ने समझ लिया था कि अगले लोकसभा चुनाव में उसे शायद उतनी सफलता न मिले, इसलिए यहां होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए उसने दूसरे राज्यों में प्रयास शुरू कर दिया था। इसमें उसे सबसे ज्यादा उम्मीद 42 सीट वाले पश्चिम बंगाल और 21 सीट वाले उड़ीशा से है जहाँ पिछले चुनाव में भाजपा को ओडिशा में 1 सीट और बंगाल में 2 सीट ही जीत पाई है।
इधर दोनों ही राज्यों में भाजपा मजबूत विपक्ष बनकर उभरी है और यहां पहले से स्थापित पार्टीयों को पीछे धकेल कर नंबर 2 की पोजिशन ले ली है और पार्टी के पास करिश्माई चेहरा नरेंद्र मोदी का होने से डरे दल इसे रोकने के लिए ये सारी कवायद करते नज़र आ रहे हैं। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनाव में टीएमसी ने सभी 19 जिलों की 2467 पंचायत सीटों पर कब्जा जमाया और बीजेपी 386 सीट जीतकर दूसरे स्थान पर रही जबकि टीएमसी से पहले कई दशक तक शांसन करने वाली माकपा को 94 सीट ही नसीब हुई। इससे पहले हुए नगरीय निकाय चुनाव में सभी 7 पर कब्जा जमाया था और 148 में से 140 वार्ड में जीत दर्ज की थी पर अधिकतर पर बीजेपी दूसरे स्थान पर थी। इससे राज्य में तृणमूल के लिए खतरे की घंटी बज गई है क्योंकि राज्य में उसकी प्रतिद्वंद्वी बीजेपी बन चुकी है और दुसरे राज्यों मेंक्षेत्रीय दलों की तरह हाशिये पर जाने से बचने के लिए तृणमूल को उसे रोकना होगा। ऐसे में यह सारी कवायद खुद को प्रधानमंत्री मोदी के सामने मजबूत दिखाने की कवायद का हिस्सा नज़र आ रहा है क्योंकि यूपीए2 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कमजोर होने और मोदी के फैसले लेने में मजबूत होने की छवि का भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलने में अहम योगदान रहा था। इ
विपक्षी दलों की ओर से प्लान बी पर भी काम किया जा रहा है जिसमें न भाजपानीत एनडीए की सरकार बने न कांग्रेसनीत यूपीए की, बल्कि इनसे अलग बाकी दलों की गठबंधन सरकार बने ऐसे में पूर्व में हुए इन्द्र कुमार गुजराल और hd देवगौड़ा वाले प्रयोग के मुताबिक कइयो को अपने लिए संभावना दिखती है। ऐसे में अंदरखाने सब अपने समीकरण दुरुस्त करने में जुटे हैं। बंगाल में ममता खुद को मोदी से टक्कर लेते दिखना चाहती हैं तो महाराष्ट में पवार और उत्तर प्रदेश में माया की हसरत किसी से छिपी नहीं है। वहीं दक्षिण में केसीआर और चंद्र बाबू नायडू अपनी गोटियां बिछा रहे हैं। दिल्ली के केजरीवाल तो मोदी के खिलाफ चुनाव तक लड़ चुके हैं। इसमे जांच एजेंसियों से लेकर चुनाव आयोग तक को निशाना बनाये जाने से कोई झिझक नही रहा है। इसमें किसी को चिंता नहीं है कि संस्थानों पर से आम जनता का विश्वास उठ गया तो इनकी लगाई आग बुझाए न बुझेगी। फिर कुर्सी पर कोई भी क्यों न हो।

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