विचार

गुरुवार, 15 मई 2008

किसान और समाज का अंतर्विरोध

किसान
गर्मी की दोपहरी में
दूर कहीं धूप में,
जहाँ आग है बरस रही
एक आकृति हिलती-डुलती है,
पकड़े हलों की मूंठ हाथ में

जल रहा है पेट की आग से
उसका खून ही पसीना बन टपक रहा
तन पर चीथड़े हैं उस पर भी
सूर्य की तपन का क्रोध
धरती भी उसी को जलाकर प्रतिशोध ले रही

तपती लू को झेलते
इस आस में
मिलेगी भर -पेट रोटी
अगले साल किसी पेड़ की छांह में

इस विस्तीर्ण नभ के नीचे
इस हतभाग्य को
सपनीली दीवारों के ऊपर
मिलती यह अलौकिक छत है ।

शीत में

शीत में जब हम घरों में बैठे
हीटर-आग के पास बैठे कांप रहे होते हैं
पानी को बर्फ समझ छूते हैं
हाड़ कंपा देनी वाली ठंड में

वह कुछ चीथड़े पहने
खेतों में सिंचाई की क्यारियां बनाते
पानी में खड़ा रहता है ठिठुरते कंपकपाते
घर से दूर कहीं सेवार में

उस समय भी साथ देते हैं
वही मरते मिटते सुनहरे सपने

बरसात में

जब हम वर्षा की फुहारों का इन्तजार करते हैं
यह भी इंतज़ार करता है
एक आशा से

वर्षा की सारी बूंदे खपरैलों से
टपकती भिगोती हैं इसके वजूद को

बादलों के गर्जन और बिजली की तड़प बढ़ाती हैं
इसके आस और विश्वास को

लहलहाती फसलों से आह्लादित
उनके पकने का इंतज़ार करता है
तैयार फसल से निकला अनाज
तमाम कर्जों  और सूद को चुकाने के बाद
कुछ दिनों की ही खुशियां दे पाती हैं

हमारी भूख मिटाने वाला ख़ुद भूखों सोता है
हमें जीवन देने वाला भूखों मरता है
अगले वर्ष फ़िर शुरू होता है वही द्वंद्व और अंतर्विरोध।

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