जाति दुनिया की सच्चाई है और इसे एक पहचान के रूप में स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है। क्योंकि आज के बुद्धिमान लोगों ने भी तमाम तरह से जीवों में वर्गीकरण किया ही है। इंसान भी तो जीव की एक प्रजाति है, तभी तो इसको होमो सेपियंस कहा जाता है, आम फल है इसका नाम मैगी फेरा इंडिका दिया गया है और इसी तरह से दूसरे जीवों की भी अलग-अलग से पहचान दी गई है यानी एक तरह से जाति बताई गई है। फिर यहां ही उस पर नाक भौं क्यों सिकोड़ना। हालांकि इसके आधार पर भेदभाव और किसी को प्रताड़ित करना ठीक नहीं है।
इन दिनों देश में गजब का ड्रामा चल रहा है, हर बुराई, समस्या और सियासी असफलता
की वजह देश के सवर्ण समुदाय को विशेष रूप से ब्राह्मणों को ठहराने की कोशिश की जा
रही है। बल्कि ये कहें कि ये शर्मसार भाव उनमें भर भी दिया गया है, जिसे उन्होंने
स्वीकार भी कर लिया है। तभी तो जब देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी का नेता सरेआम
सड़कों पर हिकारत से सवर्ण समझकर पत्रकारों से उनकी जाति पूछता है तो उसका संदेश
क्या है? और किसी को कोई आपत्ति नहीं
होती और सवर्ण समुदाय के तमाम उनके लाभान्वित लोग इसे अप्रिसिएट भी करते नजर आते
हैं।
वहीं यूपी में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी का नेता पीडीए (पिछड़ा, दलित और
अल्पसंख्यकों) के लिए लड़ाई लड़ने की बात करता है तो बचता कौन है और किसके खिलाफ
ये लड़ाई है। सिर्फ सवर्ण, उन्हें समाज में दुश्मन बनाया जा रहा है, सिर्फ न्याय
और नागरिक की बात कहने से तो सभी नेक मकसद में शामिल हो सकते थे, न कोई छूटता और न
किसी को ऐतराज होता। लेकिन शासन में रहने के बाद भी आप जिसकी बात कह रहे हैं, उसके
लिए कुछ नहीं किया और अपनी असफलता छिपाने के लिए या कहें दूसरों को बेवकूफ बनाने
के लिए समाज के एक हिस्से को विलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि आपकी कारगुजारी
की ओर किसी का ध्यान न जाय।
ताजा मामला फिर कांग्रेस पार्टी का है, उसके नेता ने संसद में बजट बनाने वाले
अधिकारियों की एक फोटो लहराई है जिसमें उनके मुताबिक सारे सवर्ण समुदाय से हैं।
लेकिन सवाल उठता है कि इसका जिम्मेदार कौन है। आजादी के बाद देश ने इतिहास और
सभ्यता को कोने में रख दिया और संविधान बनाकर सबको बराबरी का अधिकार दे दिया,
पिछड़े दलितों को प्रोत्साहन देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था भी की लेकिन इसे लागू
होने से किसने रोका, जबकि जो सवर्ण समुदाय को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं उन्हीं के
लोग सत्ता में थे और पूरी ताकत से थे। सरकारी व्यवस्था में जिसने पहले नौकरी
ज्वाइन की उसे ही पहले अगली सीढ़ी में पहुंचाया जाता है तो ये व्यवस्था किसने
बनाई...
लेकिन सवर्ण होने के नाम पर शर्मसार होने की जरूरत नहीं है, इस देश और संस्कृति को बनाने, बचाने में आपके पुरखों का बड़ा योगदान है। आपने कुछ गलत नहीं किया है, बदमाश लोग तो जो सताए कहे जाते हैं उस कम्युनिटी में भी होते हैं तो अपराध व्यक्तिगत दुर्गुण मानकर उसको वैसे ही ट्रीट करना चाहिए। जिस संविधान के आधार पर सवर्णों को विलन बनाया जा रहा है उस संविधान सभा में 389 सदस्य थे, हालांकि भारत के विभाजन के बाद यह संख्या 299 रह गई, जिसमें से 33 अनुसूचित जनजाति के, 26 अनुसूचित जाति और 15 महिलाएं थीं। बंटवारे के बाद तीन महिलाएं पाकिस्तान चली गईं, भारत में 12 रह गईं। इनमें सरोजनी नायडू और एक मात्र दलित महिला दक्षिणायन वेलायुध्दन शामिल थीं।
जाति
आधारित संख्या मैं नहीं एकत्र कर पा रहा हूं, लेकिन उपरोक्त आंकड़ों के गणित के
आधार पर कह सकते हैं कि संविधान सभा में बहुमत सवर्णों का था और वे जिन चीजों को अधिकार
मानकर भोग रहे होंगे, उसे पिछड़ों दलितों के लिए छोड़ा, ये त्याग बड़ी बात है और
ये शर्मसार होने की बात नहीं है। बाद में जमींदारी उन मूलन लागू कर संपत्ति भी बांटी, न्याय का शोर मचाने वाले दलित और पिछड़े समाज के कितने नेता और अधिकारी 70 साल में इसका रत्ती भर किये हैं या करेंगे. क्योंकि जिस तरह जाति के कारण
पिछड़ों को नहीं सताया जाना चाहिए, उसी तरह जाति के कारण सैकड़ों साल पहले क्या
हुआ उसका बदला आज के समाज में ब्राह्मणों और सवर्णों से नहीं लिया जा सकता है। यह
न्याय के सिद्धांत के भी खिलाफ है।
देश की आजादी के 76 साल बाद अब हम देखते हैं तो दलितों और पिछड़ों में बहुत से
लोग उस समुदाय में ही सवर्ण हो गए हैं उन्होंने अपने समुदाय के लिए क्या किया है,
ये सवर्णों से नफरत करने वालों को अपने समुदाय के लोगों से पूछना चाहिए। क्योंकि
ये तो समुदाय के पिछड़े लोगों के लिए कुछ छोड़ना नहीं चाहते।
इस समय देश में यह भी पोट्रे करने की कोशिश की जा रही है कि जैसे दलितों का
दुश्मन ब्राह्मण समाज है, एक निहित स्वार्थी वर्ग कोई गड़बड़ी होने पर ब्राह्मण और
हिंदू धर्म से जोड़ता है और अच्छाई होने पर इसको प्रगतिशील कहकर फिर पूरे समुदाय
को लांछित करने की कोशिश करता है, इसे सवर्णों को समझने की जरूरत है। आज समाज के
बड़े वर्ग को ब्राह्मण समाज के खिलाफ खड़ा करने के लिए कुछ स्वार्थी लोग तमाम तरह
के झूठ बोलते नजर आते हैं।
लेकिन शायद समय आने पर इनके झूठ का गुब्बारा फूटे, ऐसा कर हितैषी बनने वाले
बाबा साहब का अपमान करते हैं। इसमें ऐसे तमाम लोग गठबंधन कर काम कर रहे हैं जिनका हित हिंदू समाज के डिवीजन में है। क्योंकि देवरुखे ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा केशव
आम्बेडकर ने स्नेह के कारण उनके नाम से गांव का नाम आंबडवेकर हटाकर आम्बेडकर जोड़
दिया था। वहीं सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय ने पढ़ाई के लिए वजीफा दिया तो वो सवर्ण ही
थे, मतलब बाबा साहब के सामने बहुत सारे लोगों ने परेशानियां खड़ी कीं तो मददगार भी
उस समाज के बहुत से लोग थे। उनके तमाम मित्र भी सवर्ण थे।
मैं इस बात का भी पक्षधर हूं कि सरकारी व्यवस्था में जाति आधारित आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी का प्रावधान अब कर देने में कोई बुराई नहीं है, ताकि इसी कारण से पिछड़े समाज में है ये बताने की सियासतदानों की ओट खत्म हो जाए। बल्कि इसे वर्ग की तरह नहीं, बंटवारा जाति के आधार पर ही हो और ऐसी जातियां जिनको अब तक कोई लाभ नहीं मिला, उसे भी मिले। साथ ही रोज-रोज का झगड़ा खत्म हो जाए। ये व्यवस्था राजनीतिक दलों के प्रमुखों के लिए भी हो, ताकि ये न हो कि चंदे से प्राइवेट लिमिटेड कंपनी चले।
पिछड़ों दलितों को राजनीतिक दलों से भी पूछना चाहिए कि उनके अधिकांश प्रवक्ता या बड़े पदाधिकारी एक ही जाति के क्यों हैं, और उन्हें हिस्सेदारी क्यों नहीं दे रहे हैं। मसलन राहुल गांधी और अखिलेश, तेजस्वी ही अपनी पार्टी के लीडर रहें ये कहां का न्याय है। साथ ही कुछ लोगों की जाति स्पष्ट है लेकिन जिनकी स्पष्ट नहीं है, उनसे उनकी जाति पूछनी चाहिए। साथ ही सवर्ण समाज को भी अपने बीच के ऐसे लोगों को पहचान कर
उनका बॉयकॉट करना चाहिए जो सवर्ण होकर भी उनके खिलाफ दुष्प्रचार कर रहे हैं।